शिमला/शैल। वित्तीय संकट से जूझती प्रदेश सरकार विभिन्न जलविद्युत परियोजनाओं में चली आर्बिट्रेशन लिटिगेशन प्रोसिडिंग में अब तक कई करोड़ों का नुकसान उठा चुकी है। प्रदेश का बिजली बोर्ड इस समय करीब दो हजार करोड़ के घाटे में चल रहा है। लेकिन प्रदेश सरकार इस सबको नजरअन्दाज करते हुये वित्तीय खुशहाली के लिये जल विद्युत परियोजनाओं पर भरोसा जता रही है उससे सरकार की नीयत और नीति दोनों को लेकर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। क्योंकि जब भी कोई जल विद्युत परियोजना विज्ञापित होती है तब उसके लिये निविदाएं आमंत्रित की जाती हैं। निविदा भेजने के लिये तय अपफ्रन्ट प्रीमियम साथ भेजना होता है। जिस भी कंपनी की निविदाये शर्तों और मानकों पर पूरी उतरती है उसे परियोजना आवंटित कर दी जाती है। इस तरह परियोजना आवंटित होने के बाद संबंधित निष्पादन कंपनी को भी यह हक हासिल रहता है कि वह आवंटित परियोजना का अपने तौर पर भी आकलन और मूल्यांकन करवा कर उसकी व्यवहारिकता के बारे में संतुष्ट हो जाये। क्योंकि उसने परियोजना के लिये करोड़ों का निवेश और उसका प्रबन्ध करना होता है। यदि इस आकलन और मूल्यांकन के बाद आवंटी को यह लगे कि परियोजना व्यवहारिक न होकर घाटे का सौदा है तो उस स्थिति में वह विद्युत बोर्ड/निविदा जारी करने वाले को भी लिखित में आग्रह कर सकता है कि उसका आवंटन रद्द कर दिया जाये। ऐसा आग्रह आने पर निविदा जारी करने वाले को भी यह हक हासिल है कि वह आवंटी को परियोजना के बारे में पूरी तरह तर्क पूर्ण तरीके से संतुष्ट करवाये और उसके बाद दोनों पक्ष आपसी सहमति से अगला फैसला लें। लेकिन निविदा जारीकर्ता को यह हक हासिल नही है कि वह आये हुए आग्रह का महीनों तक कोई संज्ञान ही न ले। जब संबद्ध अधिकारी महीनों तक ऐसे आग्रह का संज्ञान न लें तो ऐसी स्थिति आवंटी को आर्बिट्रेशन में जाने के लिये बाध्य कर देती है। बल्कि कई बार तो अधिकारी आर्बिट्रेशन प्रोसिडिंग का भी संज्ञान नहीं लेते हैं और ऐसी स्थिति ही आर्बिट्रेशन में हार का कारण बनती हैं। 30 मैगावाट का मलाणा-III और 12 मैगावाट की धांचों परियोजनाओं में ऐसा ही हुआ है और बोर्ड के खिलाफ 8,41,04,572 रुपए का अवार्ड 15% ब्याज सहित अदायगी का आदेश हो गया है।
स्मरणीय है कि यह परियोजनाएं 4-5-2011 को उत्तर प्रदेश के गौतमबद्ध नगर स्थित एक बीएमडी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी को आवंटित हुई और 26-05-2011 को कंपनी ने 8.40 करोड़ का अपफ्रन्ट जमा करवा दिया। इसके बाद कंपनी ने विभिन्न सरकारी अदारां से अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करके परियोजना की डी.पी.आर. सौंपी और उसका तकनीकी और वित्तीय मूल्यांकन विशेषज्ञों द्वारा करवाया। इस आकलन में यह रिपोर्ट आयी की परियोजना की लागत 12 करोड़ प्रति मैगावाट आयेगी। लेकिन कंपनी को हस्ताक्षरित पी.आई.ए. के अनुसार केवल 2.50 से तीन रूपये प्रति यूनिट मिलने थे। इस आकलन पर जब बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों ने कंपनी को वित्तीय सहयोग देने से मना कर दिया तो 21 जनवरी 2019 को कंपनी ने यह आवंटन रद्द करने का आग्रह कर दिया। इसका कोई जवाब देने की बजाये सरकार ने 3 अक्तूबर 2019 को यह आवंटन रद्द कर दिया और अपफ्रन्ट राशि जब्त कर ली। इस पर कंपनी आर्बिट्रेशन में चली गयी। आर्बिट्रेशन की पेशी 20 जनवरी 2020 को तय हुई। लेकिन सरकार आर्बिट्रेशन की कारवाई में ही शामिल नही हुई और इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में चली गयी। उच्च न्यायालय ने 2 जून 2022 को सरकार की याचिका खारिज कर दी। इस तरह सरकार के खिलाफ 8,41,04,572 रुपए 15% ब्याज सहित अदा करने के आदेश आ गये हैं।
इस मामले को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि संबद्ध अधिकारियों के गैर जिम्मेदाराना आचरण से यह नुकसान हुआ है। इस पर भी बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सरकार में किसी ने भी इसका संज्ञान नही लिया और न ही किसी की कोई जिम्मेदारी तय हुई है। आर्बिट्रेशन के मामलों में एक अरब से अधिक का नुकसान हो चुका है जिसके लिये कोई जिम्मेदार नही ठहराया गया है। क्या यह अपने में एक बड़ा नियोजित भ्रष्टाचार नहीं है।