शिमला/शैल। प्रदेश के रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों का आंकड़ा करीब 14 लाख को पहुंच चुका है। इसका अर्थ है कि प्रदेश का हर पांचवा व्यक्ति बेरोजगार हैै। इस समय प्रदेश के सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र में नौकरी करने वालों का आंकड़ा भी पांच लाख तक ही पहुंच पाया है। प्रदेश के निजी क्षेत्र नेे जितना रोजगार दिया है और उससे सरकार को जो राजस्व मिल रहा है यदि उसे निजी क्षेत्र को दी गयी सब्सिडी और अन्य आर्थिक लाभों के साथ मिलाकर आंकलित किया जाये तो शायद आर्थिक सहायता पर अदा किया जा रहा ब्याज उससे मिल रहे राजस्व से कहीं अधिक बढ़ जायेगा। यही नहीं निजी क्षेत्र की सहायता के लिए स्थापित किए गए संस्थान वित्त निगम, खादी बोर्ड और एसआईडीसी आदि आज किस हालत को पहुंच चुके हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार की उद्योग नीतियां कितनी सफल और प्रसांगिक रही हैं। निजी क्षेत्र से इस संबंध में जुड़े आंकड़े कैग रिपोर्टों में उपलब्ध हैं। इसका एक उदाहरण यहां काफी होगा कि 1990 में जब बसपा परियोजना जेपी उद्योग को बिजली बोर्ड से लेकर दी गई तब उस पर बिजली बोर्ड का 16 करोड़ निवेश हो चुका था। इस निवेश को जेपी उद्योग ने ब्याज सहित वापस करना था। जब यह रकम 92 करोड़ को पहुंच गई तब इसे यह कहकर जेपी उद्योग को माफ कर दिया गया कि यदि इसे वसूला जाएगा तो जेपी बिजली के दाम बढ़ा देगा। इस पर कैग ने कई बार आपत्तियां दर्ज की हैं। जिन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं। इसी सरकार के कार्यकाल में हाइड्रो कालेज के निर्माण में 92 करोड़ की ऑफर देने वाले टेंडर को नजरअंदाज करके 100 करोड़ की ऑफर वाले को काम दे दिया गया। स्कूलों में बच्चों को दी जाने वाली वर्दियों की खरीद में हुए घोटाले की चर्चा कई दिन तक पिछली सरकार के कार्यकाल में विधानसभा में भी रही थी। इसकी जांच के बाद आपूर्तिकर्ता फर्मों को ब्लैक लिस्ट करके करोड़ों का जुर्माना भी वसूला गया था। जिसे माफ कर दिए जाने पर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने के शिक्षा विभाग के आग्रह को इस सरकार ने क्यों अस्वीकार कर दिया कोई नहीं जानता।
इस समय जब विपक्ष सरकार से कर्जों और केंद्रीय सहायता पर श्वेत पत्र की मांग कर रहा है तब इन सवालों का उठाया जाना ज्यादा प्रसांगिक हो जाता है। क्योंकि यदि सरकार यह श्वेत पत्र जारी करती है तब भी और यदि नहीं करती है तब भी प्रदेश के बढ़ते कर्जाें पर एक बहस तो अवश्य आयेगी। जनता यह सवाल भी अवश्य पूछेगी कि जब प्रदेश में स्थापित उद्योगों ने सिर्फ सरकार पर कर्ज बढ़ाने का ही काम किया है तो फिर इन्हें आर्थिक सहायता क्यों दी जानी चाहिए। इस परिदृश्य में सरकार को अपनी उद्योग नीति पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता हो जाती है। आज सवाल प्रदेश के विकास और यहां के लोगों को रोजगार मिलने का है। इसके लिये हिमाचल निर्माता स्व. डॉ. परमार की त्रिमुखी वन खेती से बेहतर और कोई नहीं रह जाती। यदि प्रदेश को बढ़ते कर्ज के चक्रव्यू से बाहर निकालना है तो उद्योग नीति पर नये सिरे से विचार करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अभी तक कोई भी सरकार इस बढ़ते कर्ज के कारणों का खुलासा नहीं कर पायी है। आज तो संवैधानिक पदों पर बैठे लोग खुलेआम औद्योगिक निवेश के लिए आयोजित निवेश आयोजनों में भाग ले रहे हैं। जबकि इससे उनकी निष्पक्षता पर स्वभाविक रूप से सवाल उठ रहे हैं और सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है।