शिमला/शैल। जयराम सरकार ने कर्फ्यू को जारी रखने का फैसला लिया है। इसी फैसले के चलते सरकार ने प्रदेश में बस सेवा भी बहाल नही की है। सामान्त यातायात के लिये राज्य की सारी सीमाएं सील चल रही हैं। केन्द्र ने अन्र्तराज्य बस सेवाएं शुरू करने का फैसला राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों पर छोड़ रखा है। हिमाचल की ही तरह पंजाब में भी कर्फ्यू था लेकिन अब चौथे लाॅकडाऊन के साथ ही पंजाब ने प्रदेश के भीतर बस सेवा शुरू कर दी है। हरियाणा ने भी प्रदेश के भीतर बस सेवा बहाल कर दी है। दिल्ली में भी यह बस सेवा शीघ्र ही शुरू होने की संभावना है। सभी राज्य अपनी-अपनी प्रशासनिक क्षमताओं और जन सामान्य की आवश्यकताओं के आधार पर फैसला ले रहे हैं। कोरोना की स्थिति के आकलन के परिदृश्य में हिमाचल इन पड़ोसी राज्यों की अपेक्षा बहुत बेहतर स्थिति में है। यह सही है कि प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से हर रोज़ कोरोना के मामले सामने आ रहे हैं और संभव है कि आने वाले दिनों में यह मामले बढ़े भी। क्योंकि देश के अलग-अगल राज्यों में बैठे हिमाचली अपने घर वापिस आने के लिये छटपटा रहे हैं। अब तक शायद एक लाख लोग वापसी कर भी चुके हैं और 60,000 के आने के आवेदन लंबित हैं। अपने घर वापिस आना उनका अधिकार है इस नाते उन्हे रोकना उनके साथ ज्यादती होगी। मिाचल से भी एक लाख के करीब प्रवासी मजदूर वापिस जा चुके है।
प्रदेश में 24 मार्च से कर्फ्यू चल रहा है। सारा कामकाज बन्द पड़ा है। सारे शैक्षणिक और धार्मिक तथा अन्य सार्वजनिक स्थल बन्द हैं। प्रदेश के भीतर आने वालों की सीमा पर जांच की जा रही है। जिसमें भी कोरोना के लक्षण पाये जा रहे हैं उसे संगरोध में रखा जा रहा है। संगरोध की संख्यागत और संगरोधन दोनों व्यवस्थाएं की गयी हैं। गंभीर मरीज़ों को इसके लिये चिन्हित नामज़द अस्तपालों में भर्ती करवाया जा रहा है। मुख्यमन्त्री प्रतिदिन कोरोना को लेकर प्रदेश की जनता को संबोधित कर रहे हैं और व्यवस्था संबंधी यह सारे दावे स्वयं जनता के समाने रख चुके है। इसलिये यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि व्यवस्था संबंधी यह दावे सही हैं तो फिर प्रदेश में कर्फ्यू को चालू रखने और बस सेवा बहाल न करने का कोई औचित्य नही रह जाता है।
इस समय राज्य सचिवालय से लेकर नीचे ज़िला और ब्लाॅक स्तर तक हर सरकारी कार्यालयों में नही के बराबर काम हो रहा है। सचिवालय में ही सारे अधिकारी और मन्त्री तक अपने कार्यालयों में नियमित नहीं आ पा रहे हैं। पूरी सरकार पांच-छः बड़े बाबू चला रहे हैं। ज़िलों में सारी व्यवस्था डीसी और एसपी के हवाले है मन्त्रीयों और विधायकों की भूमिका भी बहुत सीमित रह गयी है। सरकार चला रहे बाबूओं का जनसंपर्क बहुत सीमित होता है। इनकी जनता के प्रति सीधी जवाब देही नही होती है। यह जवाब देही राजनीतिक कार्यकर्ता और राजनेता की होती है जिसने जनता से वोट मांगना और लेना होता है। इस समय कोरोना का आतंक एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुका है जहां कभी भी लावा फूट सकता है। आज के हालात 1975 के आपातकाल से भी बदत्तर हो चुके हैं। लेकिन इन बाबूओं को उनकी कोई व्यवहारिक जानकारी नही है क्योंकि प्रशासन के किसी भी स्तर पर आज बैठा हुआ कर्मचारी और अधिकारी 1975 में स्कूल का छात्रा था। आज भी इनका बहुत सारा ज्ञान कंप्यूटर पर आधारित ही है। ऐसे संकट के समय में जनता को आतंकित करने की बजाये उसे सरकारी प्रयासों के बारे में आश्वस्त करना होता है।
महामारी अधिनियम 1897 में बन गया था और तब से लेकर आज तक एक दर्जन के लगभग महामारीयां आ चुकी हैं। हर बार इसी स्तर के नुकससान हुए हैं। ताजा उदाहरण स्वाईनफ्लू का रहा है इसके केस तो इस साल फरवरी 2020 में शिमला, मण्डी और कांगड़ा में रहे हैं। इस फ्लू से आज से ज्यादा जान माला का नुकसान हुआ है। लेकिन तब कोई तालाबन्दी और कर्फ्यू नही लगाया गया था। बहुत सारों को तो शायद इस फ्लू की जानकारी भी नही रही है क्योंकि तब जनता को आतंकित नही किया गया था। यदि इन नीति निरधारक बाबूओं ने स्वाईन फ्लू का ही ईमानदारी से अध्ययन कर लिया होता तो शायद ऐसे कर्फ्यू और तालाबन्दी की कोई राय न देता प्रदेश पहले ही कर्ज के चक्रव्यहू में चल रहा है। अब कोरोना के कारण कर्ज की सीमा 2% और बढ़ा दी गयी है इससे यह बाबू और कर्ज लेकर काम चला देंगे। लेकिन इसका भविष्य पर क्या असर पड़ेगा इससे इनका कोई लेना देना नही है। क्या यदि वर्ष भर हर रोज़ कोरोना के केस आते रहे तो वर्षभर कर्फ्यू जारी रहेगा। सारा काम काज़ बन्द रहेगा। इन सवालों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।