Friday, 19 September 2025
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सरकार के लिये आसान नहीं है मन्त्री पद भरना और धर्मशाला प्रवास पर जाना

शिमला/शैल।क्या मुख्यमन्त्री जयराम अपने मन्त्रीमण्डल के दो खाली पदों को विधानसभा सत्र से पहले भर लेंगे? क्या सरकार धर्मशाला प्रवास पर जायेगी और अगला विधानसभा अध्यक्ष कौन होगा। यह सवाल इन दिनों सचिवालय के गलियारों से लेकर सड़क तक हर जगह चर्चा में सुने जा सकते हैं। यह चर्चा इसलिये उठ रही है क्योंकि पिछले वर्ष मई में हुए लोकसभा चुनावों के परिणाम स्वरूप मन्त्रीमण्डल में दो पद खाली हुए थे जो अभी तक भरे नही गये हैं। अब डाॅ. बिन्दल के विधानसभा अध्यक्ष पद छोड़कर पार्टी अध्यक्ष बनने के कारण स्पीकर का पद भी खाली हो गया है। आगे बजट सत्र आना है इसलिये नये अध्यक्ष का चुनाव अनिवार्य हो गया है और इसके लिये चयन की तारीख भी तय हो गयी है। ऐसे में यह सवाल चर्चित होना स्वभाविक है कि अगला अध्यक्ष कौन होगा और जब अध्यक्ष का चयन होना ही है तो क्या उसी के साथ मन्त्री पदों को भी भर लिया जायेगा या नही। इन्ही सवालों के साथ मुख्यमन्त्री का धर्मशाला प्रवास होना या न होना एक मुद्दा बन गया है। क्योंकि धर्मशाला में विधानसभा भवन बनने और धर्मशाला को प्रदेश की दूसरी राजधानी घोषित करने के बाद जनता में इसके औचित्य पर सवाल उठे हैं। यहां तक कि कांग्रेस-भाजपा के कई बड़े नेताओं ने ईमानदारी से यह स्वीकारा है कि यह सब फिजूल खर्ची है और इसे बन्द कर दिया जाना चाहिये। क्योंकि वर्ष में एक सप्ताह के लिये वहां पर विधानसभा सत्र आयोजित करना और मुख्यमन्त्री द्वारा वहां से पन्द्रह दिन या एक महीना बैठकर सरकार चलाने का सही में कोई औचित्य नही बनता। फिर अब जब दिल्ली चुनावों के लिये प्रदेश की पूरी सरकार मुख्यमन्त्री और उनके मन्त्री तथा विधायक भी करीब एक माह के लिये प्रदेश से बाहर थे तब भी प्रशासन सुचारू रूप से चल रहा था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ईच्छा शक्ति से चलती है इसके लिये ऐसे प्रवासों की आवश्यकता नही होती है। फिर दूसरा बड़ा सवाल प्रदेश के आर्थिक साधनों का आ जाता है और वहां स्थिति यह है कि जब जयराम सरकार ने पदभार संभाला था तब प्रदेश पर 46000 करोड़ से थोड़ा अधिक का कर्ज था जो अब बढ़कर 53000 करोड़ हो गया है। इस कर्ज की स्थिति को सामने रखते हुए सरकार को सारे अनुत्पादक खर्चो पर रोक लगाने की आवश्यकता हो जाती है और इसमें धर्मशाला में सरकार का प्रवास और वहां एक सप्ताह के लिये विधानसभा का सत्र आयोजित करना हर गणित से अनुत्पादक खर्चा ही बनता है। इस खर्चे पर रोक लगाना मुख्यमन्त्री का ही दायित्व है और उनकी सूझबूझ का भी यह परिचायक बन जाता है। इससे हट कर विधानसभा अध्यक्ष का चयन और मन्त्री पदों को भरना सीधे राजनीतिक प्रश्न बन जाते हैं। विधानसभा अध्यक्ष का चयन टाला नही जा सकता है यह तय है। विधानसभा अध्यक्ष के लिये वरीयता और अनुभव दोनों एक साथ आवश्यक हैं। वैसे तो कायदे से विधानसभा उपाध्यक्ष को ही अध्यक्ष बना दिया जाना चाहिये क्योंकि उसे अब तक दो वर्ष का अनुभव हो गया है। उपाध्यक्ष के बाद वरीयता के दायरे में वर्तमान और पूर्व मन्त्री आते हैं। इस समय सदन में दो पूर्व मन्त्री नरेन्द्र बरागटा और रमेश धवाला हैं जो जयराम की इस टीम में मन्त्री नही बन पाये हैं। इन दोनों को अब मन्त्रीमण्डल या स्पीकर के लिये रखा जाता है या नही यह राजनितिक दृष्टि से बड़ा सवाल होगा। डाॅ. बिन्दल के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद अब डाॅ. सैजल का नाम भी स्पीकर के लिये चर्चा में आ गया है और इसे बिन्दल की पसन्द माना जा रहा है। यदि ऐसा है तो अध्यक्ष नाते सैजल को स्पीकर बनवाना बिन्दल का पहला राजनीतिक फैसला होगा। इस फैसले को सिरे चढ़ाना पार्टी और हाईकमान में उनकी पकड़ की पहली परीक्षा होगा और इसमें असफल होने का जोखिम वह नही ले सकते। माना जा रहा है कि स्पीकर के चयन में जयराम बिन्दल की अनुशंसा का विरोध नही करेंगे।
यदि सैजल स्पीकर बन जाते हैं तो एक और मन्त्री पद खाली हो जाता है। ऐसे में जब तीन मन्त्री पद भरने के लिये उपलब्ध हो जाते हैं तो इन्हें तीनों सत्ता केन्द्र आपस में एक-एक बांट सकेंगे। मुख्यमन्त्री के साथ ही अब पार्टी अध्यक्ष बिन्दल भी स्वभाविक रूप से सत्ता केन्द्र हो गये हैं। अगले चुनाव उनकी भी परीक्षा होंगे। ऐसे में सरकार के हर नीतिगत फैसलें में उनका दखल बनता है और रहेगा भी। परन्तु जयराम और बिन्दल के साथ ही इस समय संयोगवश पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और केन्द्रिय वित्त राज्य मन्त्री अनुराग ठाकुर दोनों ही हिमाचल से हैं। इस नाते इन दोनों की नजर और दखल भी प्रदेश की सरकार तथा राजनीति पर बराबर बनी रहेगी। मन्त्री पद भरने और पार्टी के पदाधिकारियों के चयन में इनका दखल भी बराबर रहेगा यह तय है। फिर दिल्ली के चुनावों में अनुराग ठाकुर ने विवादित होने का जो जोखिम उठाया है वह उनका अपने स्तर का ही फैसला नही हो सकता। क्योंकि अनुराग का ब्यान उसी हिन्दु ऐजैन्डा का हिस्सा है जिसके गिर्द 2014 से लेकर अब तक पार्टी घूम रही है। हिन्दु ऐजैन्डा आज कितना अहम है भाजपा-संघ के लिये इसका अन्दाजा असम उच्च न्यायालय के उस न्यायाधीश के फैसले से लगाया जा सकता है जिसने स्वतः संज्ञान लेकर एक याचिका में कहा था कि भारत को भी पाकिस्तान की तर्ज पर धार्मिक राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये और यह काम मोदी ही कर सकते हैं। स्वभाविक है कि जो भी पार्टी नेता हिन्दु ऐजैन्डे पर आक्रामक लाईन लेगा उसे सरकार और संगठन में हल्के से नही लिया जा सकता। इस परिप्रेक्ष में प्रदेश में मन्त्री पद भरते समय नड्डा के साथ ही अनुराग की राय भी महत्वपूर्ण रहेगी। इस समय हमीरपुर, बिलासपुर और सिरमौर ही ऐसे जिले हैं जिन्हे मन्त्रीपरिषद में स्थान हासिल नही है। यदि सैजल स्पीकर बन जाते हैं तब सोलन भी इस श्रेणी में आ जायेगा। सैजल के स्पीकर बनने के बाद मन्त्रीमण्डल में कोई दलित मन्त्री नही रह जाता है। जनजातिय क्षेत्रों से पहले ही कोई मन्त्री नही है। इसलिये अब मन्त्री पद भरने के लिये जिलों को प्रतिनिधित्व देना और दलित वर्ग को भी सरकार में स्थान देना ऐसे मुद्दे होंगे जिन्हे आसानी से नज़रअन्दाज कर पाना संभव नही होगा। फिर मुख्यमन्त्री को भी क्षेत्र और वर्ग के आधार पर सरकार में सन्तुलन बनाने के लिये यही मौका होगा। बहुत संभव है कि अब जो मन्त्री बनाये जायें उन्हे वरियता का गणित लगाकर राज्य मन्त्री ही रखा जाये और इससे पूर्व मन्त्रियों को भी इस दौड़ से बाहर किया जा सकता है।
इस परिदृश्य में मन्त्री पद भरना और धर्मशाला प्रवास पर जाना ऐसे राजनीतिक फैसले होंगे जिनका असर सरकार के शेष बचे पूरे कार्यकाल पर पड़ेगा।

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