Friday, 19 September 2025
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क्या कांग्रेस के बड़े नेता ही भाजपा की मदद कर रहे थे पार्टी में उठी चर्चा

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस इस बार फिर सभी चारों सीटों पर भाजपा के हाथों हार गयी है। इस हार का सबसे बड़ा पक्ष यह है कि प्रदेश के 68 विधानसभा क्षेत्रों में से एक पर कांग्रेस को बढ़त नही मिल पायी है। प्रदेश के छः बार मुख्यमन्त्री रह चुके वीरभद्र सिंह, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, पूर्व केन्द्रिय मन्त्री आनन्द शर्मा और राष्ट्रीय सचिव आशा कुमारी तक कोई भी बड़ा नेता अपने अपने क्षेत्र तक नही बचा सका है। इस हार पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए वीरभद्र सिंह ने कहा है कि पूर्व अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खु को बहुत पहले ही पद से हटा दिया जाना चाहिये था।
स्मरणीय है कि सुक्खु को इसी वर्ष फरवरी के अन्त में अध्यक्ष पद से हटाया गया था। यह भी तब संभव हुआ था जब आनन्द शर्मा, वीरभद्र सिंह, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी ने एक साथ लिखित में सुक्खु को हटाने की मांग रखी थी। जबकि वीरभद्र सिंह 2012 में सरकार बनने के बाद से ही सुक्खु को हटाने की मांग करने लग गये थे। प्रदेश कांग्रेस पर नजर रखने वाले विष्लेशक जानते हैं वीरभद्र सिंह हर उस अध्यक्ष का विरोध करते रहे हैं जो उनकी सहमति से नही बना हो। बल्कि सुक्खु एक मात्र ऐसा अध्यक्ष रहा है जो वीरभद्र सिंह के सीधे विरोध के बाद भी काफी समय तक इस पद पर बना रहा है। कांग्रेस भाजपा और वामदलों जैसा संगठन नही है जहां सरकार और सत्ता से संगठन का कद बड़ा हो जाये। यहां पर प्रायः मुख्यमन्त्री ही संगठन पर संगठन से अधिक सरकार की नीतियां प्रभावी रहती हैं और शायद इसी कारण से सरकार कभी सत्ता में दोबारा वापसी नही कर पायी है। क्योंकि सरकार बनने के बाद उस संगठन के साथ तालमेल की कमी आ जाती है जो सरकार के निर्देशों के अनुसार न बना हो। प्रदेश में हर बार वीरभद्र संगठन पर हावि रहे हैं और इस हावि होने से संगठन का बजूद नही के बराबर हो जाता रहा है। सुक्खु को हटाने के बाद वह सभी नेता अपने-अपने चुनाव क्षेत्र तक नही बचा सके हैं जिन्हांने सुक्खु को हटाने के लिये लिखित में प्रस्ताव किया था।
सुक्खु को हटाने के बाद जो नयी कार्यकारिणी बनाई गयी थी और उसमें जिस संख्या में पदाधिकारी बनाये गये थे यदि वह लोग भी अपने-अपने बूथ की जिम्मेदारी ले लेते तो भी शायद इतनी शर्मनाक हार न होती। वीरभद्र सिंह छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे हैं इसलिये यह उनकी पहली जिम्मेदारी बनती थी कि वह अपने बाद प्रदेश में नया नेतृत्व तैयार करते किसी को तो अपना उत्तराधिकारी घोषित करते। बल्कि उनकी सारी कार्यप्रणाली से अब अन्त में आकर यही झलक रहा है कि उनके बेटे को बड़ा नेता बनने तक प्रदेश में कांग्रेस खड़ी भी न हो पाये। क्योंकि आज जब सभी नेता अपना-अपना चुनाव क्षेत्र तक नही बचा पाये हैं तो कल यदि इनमें से अधिकांश नेताओं को टिकट से वंचित कर दिया तो यह लोग उसका विरोध कैसे कर पायेंगे। क्योंकि कोई भी नेता वीरभद्र के साये से बाहर निकलकर अपना अलग से बजूद नही बना पाया है।
इसी चुनाव में कांग्रेस नेता पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया ने वीरभद्र सिंह पर आरोप लगाया है कि अपने केसां से बचने के लिये उन्होने पार्टी को भाजपा के आगे एक तरह से गिरवी रख दिया है। मनकोटिया के इस आरोप पर यदि गंभीरता से नजर दौड़ाई जाये तो मण्डी से होने वाले किसी भी प्रत्याशी का कद उस समय बौना हो गया था जब वीरभद्र सिंह ने यह कहा था कि कोई भी मकरझण्डू चुनाव लड़ लेगा। इस ब्यान के बाद कांगड़ा और हमीरपुर से अपने ही तौर पर प्रत्याशीयों के नाम उछाल दिये और अन्त तक उनकी वकालत करते रहे। जब यह प्रत्याशी उनकी पंसद के नही हो पाये तो उन्होने प्रचार के दौरान हर जनसभा में परोक्ष/अपरोक्ष में यह संदेश और संकेत अवश्य दिया कि प्रत्याशी उनकी पंसन्द का नही है। इसी के साथ चुनाव प्रचार में वीरभद्र मुख्यन्त्री जयराम को ईमानदारी का प्रमाणपत्र भी बराबर बांटते रहे। वीरभद्र के इन ब्यानों पर प्रदेश में कोई भी नेता सवाल तक खड़ा नही कर पाया। प्रदेश की प्रभारी रजनी पाटिल लगातार इसी डर में रही कि कौन सा नेता न जाने मंच से कब क्या ब्यान दे दे। कुलदीप राठौर का कद भी अध्यक्ष होने के वाबजूद इतना बड़ा नही हो पाया था कि वह किसी भी बड़े नेता को रोक पाते। इस सबका परिणाम था कि अधिकांश बूथों पर पार्टी के कार्यकर्ता थे ही नही। यहां तक की जब पांवटा साहिब में वीवीपैट और ईवीएम मैच नही कर पायी तो कांग्रेस उसको भी मुद्दा बनाकर उठा नही पायी। इससे यही प्रमाणित होता है कि पार्टी के बड़े नेताओं का एक बड़ा वर्ग अपरोक्ष में भाजपा की मद्द कर रहा था। इसको लेकर पार्टी के भीतर एक बड़ा विवाद छिड़ गया है। वीरभद्र ब्रिगेड से लेकर अब तक पूर्व मुख्यमन्त्री की भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं।

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