शिमला/शैल। प्रदूषण नियन्त्रण और पर्यावरण सुरक्षा की जिम्मेदारी के लिये ही केन्द्र से लेकर राज्यों तक प्रदूषण नियन्त्रण बोर्डों का गठन किया गया है। क्योंकि आज अन्र्तराष्ट्रीय समुदाय की सबसे बड़ी चिन्ता पर्यावरण है। अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मेलनों और मंचो पर यह चिन्ता वयक्त की जा चुकी है। यूएन इस संद्धर्भ में कड़े नियम बना चुका है और सदस्य देश इन नियमों की पालना को बाध्य हैं। प्रदूषण और पर्यावरण की इसी गंभीरता का संज्ञान लेते हुए वीरभद्र शासनकाल के दौरान एनजीटी ने प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के सदस्य सचिव और इसके अध्यक्ष की शैक्षणिक योग्यताओं को लेकर सवाल उठाया था और यह आदेश जारी किये थे कि इन पदों पर उन्हीं लोगों को तैनात किया जाये जिनके पास इस विषय की अनुकूल योग्यताएं हो।
प्रदेश में जब होटलों एवम् अन्य अवैध निर्माणों को लेकर उच्च न्यायालय में याचिकाएं आयी थी तब अदालत ने पर्यटन टीसीपी, लोक निर्माण के साथ- साथ प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से भी जवाब तलबी की थी। इसी जवाब तलबी की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कसौली कांड घटा था। एनजीटी प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड और टीसीपी के कुछ लोगों के खिलाफ नाम लेते हुए कारवाई करने के आदेश दिये थे। अदालत की इस सारी गंभीरता से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदूषण और पर्यावरण की गंभीरता क्या है। लेकिन क्या अदालत की इस गंभीरता का सरकार और प्रदूषण बोर्ड की कार्यप्रणाली पर कोई असर पड़ा है। इसका जवाब अभी 26-3-2019 को एनजीटी से आये एक आदेश के माध्यम से सामने आ जाता है।
एनजीटी के साप कांगड़ा के मण्डक्षेत्र में हो रहे अवैध खनन का एक मामला मंड पर्यावरण संरक्षण परिषद के माध्यम से आया था। यह मामला आने के बाद कलैक्टर कांगड़ा और प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से 21-12-2018 को जवाब मांगा गया था। इस पर बोर्ड ने 6-3-2019 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। शपथपत्र के साथ दायर हुई इस रिपोर्ट में बोर्ड ने सीधे कहा कि यह अवैध खनिज खनन का मामला उनके अधिकार क्षेत्र में ही नही आता है। यह उद्योग विभाग के जियोलोजिकल प्रभाग का मामला है जो कि 1957 के खनिज अधिनियम के तहत संचालित और नियन्त्रित होता है।
प्र्रदूषण बोर्ड के इस जवाब का कड़ा संज्ञान लेते हुए एनजीटी ने यह कहा है कि शायद बोर्ड सदस्य सचिव को पर्यावरण के नियमों का पूरा ज्ञान ही नही है। पर्यावरण को लेकर प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी है एनजीटी ने अपने आदेश में प्रदेश के मुख्य सचिव को भी निर्देश दिये हैं कि वह बोर्ड के सदस्य सचिव को पर्यावरण नियमों का पूरा ज्ञान अर्जित करने की व्यवस्था करें। एनजीटी का यह आदेश राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर एक गंभीर सवाल खड़ा कर देता है क्योंकि इस आदेश से यह स्पष्ट हो जाता है कि या तो सदस्य सचिव को सही में ही पर्यावरण नियमों का ज्ञान नही है और उनकी नियुक्ति एनजीटी के पूर्व निर्देशों के एकदम विपरीत की गयी है। यदि यह नियुक्ति एनजीटी के मानकों के अनुसार सही है तो फिर निश्चित रूप से बोर्ड अवैध के दोषीयों को किसी के दबाव में बचाने का प्रयास कर रहा है सबसे रोचक तो यह है कि एनजीटी का यह आर्डर 26 मार्च को आ गया था। लेकिन अभी तक इस पर कोई अमल नही किया गया है। क्योंकि या तो सदस्य सचिव को पर्यावरण नियमों की जानकारी/योग्यता हासिल करने के निर्देश दिये जाते या फिर उनकी जगह किसी दूसरे अधिकारी को तैनात किया जाता जो एनजीटी के पूर्व के निर्देशों अनुसार शैक्षणिक योग्यता रखता हो। लेकिन अभी तक ऐसा हुआ नही है और इसी से सरकार की नीयत और नीति पर सवाल उठता है।