शिमला/शैल। प्रदेश की लोकसभा सीटों के लिये भाजपा के प्रत्याशी कौन होंगे अभी इसका फैसला नही हो पाया है। लेकिन इस फैसले से पहले ही मुख्यमन्त्री के अपने जिले से ही पंडित सुखराम के पौत्र और ऊर्जा मन्त्री अनिल शर्मा के बेटे आश्रय शर्मा ने मण्डी संसदीय हल्के से अपना चुनाव प्रचार अभियान भी शुरू कर दिया है। आश्रय काफी अरसे से यह दावा करते आ रहे हैं कि वही यहां से भाजपा के उम्मीदवार होंगे। जब एक सम्मेलन में प्रदेश अध्यक्ष सत्तपाल सत्ती ने यह घोषणा की थी कि मण्डी से राम स्वरूप शर्मा ही फिर से पार्टी के उम्मीदवार होंगे तब इस घोषणा पर पंडित सुखराम ने कड़ी प्रतिक्रिया जारी की थी। सुखराम की प्रतिक्रिया के बाद सत्ती ने भी अपना ब्यान बदल लिया था। लेकिन अभी तक टिकटों का फैसला हुआ नही है। ऐसे में आश्रय शर्मा के प्रचार अभियान के राजनीतिक हल्कों में कई अर्थ निकाले जा रहे हैं। क्योंकि यह संभव नही हो सकता कि उसके अभियान को बाप और दादा का आशीर्वाद हासिल न हो। पंडित सुखराम का प्रदेश की राजनीति में अपना एक अलग से विषेश स्थान है। इसलिये यह एक बड़ा सवाल हो जाता है कि यदि आश्रय को टिकट नही मिलता है तो सुखराम और अनिल का अगला कदम क्या होता है। क्योंकि पिछले दिनों यह चर्चा जोरों पर हरी है कि पंडित सुखराम कांग्रेस में वापिस जा सकते हैं। अनिल शर्मा जयराम के साथ मंत्राी होने के बावजूद भी मण्डी में अपने को बहुत सुखद महसूस नही कर रहे हैं। यह चर्चा भी कई बार मुखर हो चुकी है। फिर जयराम मण्डी का नाम बदल कर माण्डव करने की बात भी कर चुके हैं और इस नाम को बदलने का प्रस्ताव पर सुखराम और अनिल शर्मा की कतई सहमति नही है। नाम बदलने का यह प्रस्ताव भाजपा /जयराम से राजनीतिक रिश्ते अलग करने का एक आसान और तात्कालिक कारण बन सकता है।
इसी तरह हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से भी सिनेतारिका कंगना रणौत का नाम अचानक राजनीतिक हल्कों में चर्चा का विषय बन गया है। इस समय हमीरपुर ससंदीय क्षेत्र से अनुराग ठाकुर सांसद हैं। अनुराग को प्रदेश का भविष्य का नेता भी माना जा रहा है और उन्होंने अपने काम से क्रिकेट और भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी है। लेकिन अनुराग के इस बढ़ते कद से पार्टी के भीतर ही एक बड़ा वर्ग उनका अघोषित विरोधी बना हुआ है। बल्कि चर्चा तो यहां तक है कि इसी वर्ग की धूमल को हटवाने में बड़ी भूमिका रही है। इसी के चलते तो जयराम की सरकार बनने के बाद उठे जंजैहली प्रकरण में धमूल -जयराम के रिश्ते यहां तक पंहुच गये थे कि कुछ हल्कों में जंजैहली प्रकरण में धूमल की भूमिका होने के चर्चे चल पड़े थे। धमूल को इस चर्चा के कारण यहां तक कहना पड़ गया था कि सरकार चाहे तो उनकी भूमिका की सीआईडी से जांच करवा ले। अब इसी परिदृश्य को सामने रखकर कुछ लोगों ने कंगाना रणौत का नाम उछालकर एक नयी विसात बिच्छाई है।
यही नही मण्डी संसदीय क्षेत्र से कुल्लु से पूर्व मंत्री और सांसद रहे महेश्वर सिहं को लेकर भी यह चर्चाएं चल रही हैं कि वह भाजपा का दामन छोड़कर कभी भी कांग्रेस का हाथ थाम सकते हैं। महेश्वर सिंह कुल्लु से विधानसभा का चुनाव हारने के बाद मण्डी से इस बार लोकसभा का उम्मीदवार होने की आसा में थे। लेकिन यहां से जब मुख्यमन्त्री की पत्नी डा. साधना ठाकुर का नाम भी संभावित उम्मीदवार के रूप में अखबारों की खबरों तक पहुंच गया तब मण्डी का सारा राजनीतिक गणित ही बदल गया है। यह एक सार्वजनिक सच है कि यदि विधानसभा चुनावों से पहले महेश्वर सिंह और पंडित सुखराम परिवार ने राजनीतिक पासा बदल न की होती तो शायद भाजपा अकेले सत्ता तक न पंहुच पाती। लेकिन आज यह दोनों अपने को भाजपा में हशिये पर धकेल दिया महसूस कर रहे हैं। ऐसे में बहुत संभव है कि राजनीति में अपने को फिर स्थापित करने के लिये पासा बदल की राजनीति का सहारा ले लें। यही स्थिति हमीरपुर से भाजपा पूर्व सांसद रहे सुरेश चन्देल की रही है। पार्टी ने उन्हे "Cash for Question" में चुनावी राजनीति से बाहर कर दिया। लेकिन "Cash on camera" में आरोप तय होने के बावजूद शिमला के सांसद वीरन्द्र कश्यप को लेकर पार्टी का आचरण सुरेश चन्देल से भिन्न है। एक ही जैसे आरोप पर दो अलग-अलग नेताओं के साथ अलग -अलग आचरण होने से पार्टी की अपनी ही नीयत और नीति पर सवाल उठने स्वभाविक है। ऐसे में इस संभावना से इन्कार नही किया जा सकता कि अब सुरेश चन्देल भी पार्टी को अपनी अहमियत का अहसास कराने के लिये कोई पासा बदल के खेल पर अलम कर जायें। क्योंकि यह कतई नही माना जा सकता कि आश्रय शर्मा के प्रचार अभियान के पीछे कोई बड़ी रणनीति नही है। इस परिदृश्य में यदि आने वाले लोकसभा चुनाव का एक पूर्व आकलन किया जाये तो यह स्पष्ट झलकता है कि भाजपा के अन्दर बढ़े स्तर पर एक बड़ी खेमेबाजी चल रही है क्योंकि अभी सम्पन्न हुए बजट सत्र में जिस तरह से भाजपा के कुछ अपने ही विधायकों की अपनी ही सरकार के प्रति आक्रमकता देखने को मिली है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के अन्दर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। सरकार वित्तिय संकट में चल रही है इसका खुलासा उस वक्त सार्वजनिक रूप से सामने आ गया जब प्रधानमन्त्री की योजना के नाम पर किसानों को दिये गये दो-दो हज़ार रूपये बैकों ने किसानों को भुगतान करने से मना कर दिया। ऐसा बैकों ने क्यों कर दिया इसका कोई संतोषजनक जवाब भी सामने नहीं आया है। इस आशय की खबरें तक छप गयी लेकिन सरकार की तरफ से इनका किसी तरह का कोई खण्डन सामने नहीं आया इसी के साथ यह चर्चा भी सामने आयी है कि इस बार सेवानिवृत कर्मचारियों को पैंशन का भुगतान भी समय पर नहीं हो पाया है। जहां सरकार की एक ओर इस तरह की वित्तिय स्थिति हो वहीं पर सरकार द्वारा बड़ी लगर्ज़ी गाड़ियां खरीदा जाना सरकार की नियत और नीति पर सवाल उठेगा ही।
अभी इसी के साथ सरकार द्वारा कर्मचारी भर्तीयों को लेकर अपनायी जा रही आउटसोर्स नीति पर भी गंभीर सवाल बजट सत्र में देखने को मिले हैं। यह सही है कि सरकार ने हर गंभीर सवाल को ‘‘सूचना एकत्रित की जा रही है’’ कहकर टालने का प्रयास किया है लेकिन यह माना जा रहा है कि यह सारे सवाल चुनावों के वक्त सरकार से जवाब मांगेंगे और यही सरकार के लिये सबसे बड़ा संकट होगा।