शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के पिछले करीब छः वर्ष से चले आ रहे अध्यक्ष ठाकुर सुखविन्दर सिंह सुक्खु को हटाकर कुलदीप सिंह राठौर को पार्टी की कमान सौंपी गयी है। कांग्रेस पार्टी में हुए इस बदलाव से प्रदेश के सियासी समीकरणों में भी बदलाव आनेे की संभावनाएं प्रबल हो गयी हैं। स्मरणीय है कि सुक्खु को हटाने के लिये वीरभद्र सिंह एक लम्बे अरसे से मुहिम छेड़े हुए थे लेकिन अब जब यह बदलाव आया है तब वीरभद्र सिंह इस मुहाने पर शांत चल रहे थे। बल्कि अब तो सुक्खु के साथ सार्वजनिक मंच भी सांझा करने लग गये थे। वीरभद्र में यह बदलाव पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद आया था। लेकिन इसी बीच आनन्द शर्मा ने अपने निकटस्थ कुलदीप राठौर को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की रणनीति तैयार कर ली क्योंकि सुक्खु का हटना सिन्द्धात रूप से तय था। इसमें केवल यही शेष बचा था कि बदलाव लोकसभा चुनावों के बाद हो या पहले और इसकी जानकारी आनन्द शर्मा को थी। इस परिदृश्य में आनन्द को अपनी रणनीति को अमली जामा पहनाने का मौका मिल गया।
इसके लिये आनन्द ने वीरभद्र सिंह को भी राजी कर लिया। वीरभद्र सिंह ने भी कुलदीप राठौर के लिये अपनी सहमति जता दी क्योंकि वह अपने तौर पर सुक्खु को हटवाने में सफल नही हो पाये थे। इसलिये वीरभद्र सिंह के पास और कोई विकल्प शेष नही रह गया था। क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष के लिये नये संभावितों में सबसे ऊपर आशा कुमारी का नाम चल रहा था लेकिन उनके खिलाफ प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबित याचिका सबसे कड़ा व्यवधान बन रही थी। ऐसे में आनन्द शर्मा ने वीरभद्र के साथ ही आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री से भी राठौर के लिये सहमति हासिल कर ली इस तरह प्रदेश के इन शीर्ष नेताओं की सहमति होने से पहली बार एक गैर विधायक/सांसद को यह जिम्मेदारी मिल गयी। यह सही है कि कांग्रेस के संगठन में एनएसयूआई से लेकर युवा कांग्रेस और मुख्य संगठन में बतौर महामन्त्री जिम्मेदारी निभा चुके राठौर के पास एक अच्छा अनुभव है। राठौर को कभी विधायक बनने के लिये पार्टी का टिकट नही मिल पाया है इसलिये उनके राजनीति आकंलन में चुनावी हार-जीत का मानक लागू नही होता। अब आने वाला लोकसभा चुनाव न केवल राठौर बल्कि आनन्द से लेकर वीरभद्र सिंह तक के लिये एक बड़ी परीक्षा सिद्ध होगा।
राठौर के अध्यक्ष बनने के साथ ही कांग्रेस के भीतरी समीकरणों में उथल -पुथल होनी शुरू हो गयी है। जब दिल्ली में इस बदलाव पर मोहर लगायी जा रही थी तब सुक्खु भी दिल्ली में ही मौजूद थे। सुक्खु ने दावा किया है कि बदलाव के लिये उनसे सहमति ली गयी थी। जब सुक्खु ने सहमति दे दी थी तो फिर उन्होंने उसी दिन प्रदेश की कुछ जिला इकाईयों में फेरबदल क्यों किया? क्या उस फेरबदल को नया अध्यक्ष यथास्थिति बनाये रखेगा यह राजनीतिक विश्लेषण की नजर से एक महत्वपूर्ण सवाल है। इस पर राठौर का रूख क्या रहता है इसका पता आने वाले दिनो में लगेगा। इसी के साथ एक सवाल वीरभद्र सिंह को लेकर भी खड़ा हो गया है। इस बदलाव के बाद वीरभद्र सिंह ने फिर कहा है कि वह स्वयं चुनाव न लड़कर दूसरों से चुनाव लड़वायेंगे। वीरभद्र सिंह का यह ब्यान फिर उसी तर्ज पर आया है जब उन्होंने यह कहा था कि मण्डी से कोई भी मकरझण्डू चुनाव लड़ लेगा। यही नहीं उन्होंने हमीरपुर और कांगड़ा से पार्टी के संभावित उम्मीदवारों के तौर पर हमीरपुर से राजेन्द्र राणा के बेटे और कांगड़ा से सुधीर शर्मा का नाम उछाल कर पार्टी मे कई चर्चाओं को जन्म दे दिया था। वीरभद्र के इस ब्यान पर जब प्रदेश प्रभारी रजनी पाटिल की कड़ी प्रतिक्रिया आयी तब वीरभद्र ने मण्डी जाकर स्वयं चुनाव लड़ने की सहमति जता दी। वीरभद्र कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में आते हैं और प्रदेश में छः बार मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। ऐसे में उनके हर ब्यान के राजनीतिक अर्थ देखे जाने स्वभाविक हैं। क्योंकि आज भी प्रदेश में जब किसी राजनेता के जनाधार का आंकड़ा देखा जाता है तो उस गिनती में उनका पहला स्थान आता है। लेकिन अभी थोड़े ही अन्तराल में वीरभद्र जैसे नेता का तीन बार ब्यान बदलना अपने में बहुत कुछ कह जाता है।
यह सही है कि इस समय वीरभद्र आयकर सीबीआई और ईडी के मामलें झेल रहे हैं। सीबीआई अदालत में आये से अधिक संपत्ति मामले में वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह और छः अन्य आरोपियों के खिलाफ आरोप तय हो गये हैं। 29 जनवरी को वीरभद्र सिंह आनन्द चौहान और प्रेम राज के खिलाफ आरोप तय होंगे। इससे पहले प्रतिभा सिंह के साथ चुन्नी लाल, जोगिन्द्र सिंह धाल्टा, लवण कुमार, राम कुमार भाटिया और वक्कामुल्ला चन्द्रशेखर के खिलाफ आरोप तय हो चुके हैं। वीरभद्र के खिलाफ आरोप तय होने के बाद वह चुनाव लड़ने के लिये अपात्र नही हो जाते हैं। जब सीबीआई ने उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला बनाया था तब इस मामले का अदालत में आना तय था और यह आरोप तय होना प्रक्रिया का हिस्सा है। इसलिये यह नही माना जा सकता कि इसके दबाव में वीरभद्र अपने ब्यान बदल रहे हों। वीरभद्र, जयराम के प्रति अभी तक कोई ज्यादा आक्रामक नही रहे हैं इसी के साथ यह भी एक सच्च है कि इस समय कांग्रेस के पास मण्डी से वीरभद्र स्वयं या उनके परिवार के किसी सदस्य से ज्यादा उपयुक्त उम्मीदवार नही हो सकता।
इस वस्तुस्थिति में कांग्रेस के नये अध्यक्ष के लिये वीरभद्र सिंह को मण्डी से चुनाव लड़ने के लिये राजी करना पहली आवश्यकता होगी। क्योंकि मण्डी मुख्यमन्त्री जयराम का अपना जिला है। इसलिये अपने नेतृत्व को समर्थन देना एक व्यवहारिक सच्चाई हो जाती है। ऐसे जयराम को मण्डी में ही घेरे रखने के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि कांग्रेस वहां से वीरभद्र जैसे नेता को ही मैदान में उतारे।
इसी के साथ कांग्रेस को सरकार के खिलाफ भी अपनी आक्रामकता को तेज करना होगा। लेकिन जो आरोप पत्र अभी कांग्रेस, सरकार के खिलाफ लेकर आयी है उस स्तर की आक्रामकता से चुनावी सफलता हालिस कर पाना संभव नही होगा। इस तरह नये अध्यक्ष के लिये पार्टी के सारे नेताओं को साथ लाकर चलना और सरकार के खिलाफ गंभीर रूप से आक्रामक हो पाना बड़ी चुनौतियां मानी जा रही है।
यही नही वीरभद्र सिंह ने सुक्खु को औरंगजेब करार देकर एक बार फिर हाईकमान पर सवाल उठा दिये हैं क्योंकि यदि सुक्खु छः वर्ष तक अध्यक्ष रहे हैं तो ऐसा हाईकमान की मंशा से ही संभव हुआ है। ऐसे में जब सुक्खु के हमीरपुर से लोकसभा प्रत्याशी होने पर पूछा गया तो उनका यह कहना कि हाईकमान में कोई इतना मूर्ख नही हो सकता है, वीरभद्र इसी पर नही रूके बल्कि यहां तक कह दिया कि कुछ लोगों का वश चले तो वह नौकर को भी टिकट दिला दें। वीरभद्र के ऐसे ब्यान निश्चित रूप से पार्टी को कमजोर बनाते हैं। भाजपा को कांग्रेस की एकजुटता पर तंज कसने का मौका मिल जाता है। जबकि इस समय हाईकमान ने नये अध्यक्ष को कमान संभाली है तब वीरभद्र जैसे बड़े नेता के ऐसे ब्यान अध्यक्ष के लिये परेशानी खड़ी करने वाले साबित होंगे।
दूसरी ओर सुक्खु ने भी वीरभद्र को जवाब देते हुए यह गंभीर आरोप लगाया है कि हर चुनाव से पहले वह पार्टी को ब्लैक करते आये हैं। सुक्खु ने सीधे आरोप लगाया है कि वीरभद्र के मुख्यमन्त्री रहते जो भी चुनाव पार्टी ने लड़े हैं वह सब हारे हैं। सुक्खु ने सवाल किया है कि वीरभद्र आज तक एक बार भी पार्टी को सत्ता में रिपीट क्यों नहीं कर पाये हैं। वैसे वीरभद्र सिंह ने जिस तरह से 1983 से पहले तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. ठाकुर रामलाल के खिलाफ फोरेस्ट माफिया को लेकर पत्र लिखा था और फिर 1993 में पंडित सुखराम को रोकने के लिये विधानसभा का घेराव तक करवा दिया था उससे खुक्खु के आरोपों में बहुत दम दिखाई देता है। अभी पिछले कार्यकाल में भी कांग्रेस के अधिकांश चुनाव क्षेत्रों में समानान्तर सत्ता केन्द्र खड़े कर दिये थे जो पार्टी के हार के कारण बने हैं। इस परिदृश्य में वीरभद्र की अब शुरू हुई ब्यानबाजी से भी निश्चित रूप से संगठन को नुकसान होगा यह तय है।