Friday, 19 September 2025
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क्या भाजपा के आरोप पत्र पर जांच हो पायेगी विजिलैन्स की कार्यप्रणाली से उठा सवाल

शिमला/शैल। भाजपा के आरोप पत्र पर विभिन्न विभागों ने उनसे जुड़े आरोप पत्रों पर अपनी टिप्पणीयां विजिलैन्स को भेज दी हैं। विजिलैन्स इन टिप्पणीयों की समीक्षा करके जिने मामलों को जांच के योग्य पायेगा उनपर प्रारम्भिक जांच करके सरकार को अगली कारवाई की अनुमति के लिये भेजेगा। उसके बाद सरकार तय करेगी की किन आरोपों पर एफआरआई दर्ज करने की अनुमति देनी है या नही देनी है। आज तक विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस या भाजपा ने जितनी बार भी आरोप पत्र सौंपे हैं उन पर सत्ता में आने के बाद जांच को लेकर इसी तरह का चलन रहा है। इस चलन के कारण ही आज तक भाजपा या कांग्रेस ने सत्ता में आने के बाद किसी भी आरोप को अन्तिम अंजाम तक नही पहुंचाया है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि सत्ता में आने के बाद आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटीयों को भी याद नही रहता कि उन्होने कौन से आरोप लगाये थे और उनमें से कितने सही पाये गये हैं या कितने गलत साबित हुए हैं। आरोप पत्र तैयार करने वाली कमेटीयां अपने आरोपों की सत्यता प्रमाणिक के प्रति कितना सजग होती है इसका आकलन भाजपा के ही आरोप पत्र से लगाया जा सकता है
इस आरोप पत्र में पशुपालन विभाग में दवा खरीद को लेकर आरोप लगाये गये हैं। उस समय पशुपालन विभाग अनिल शर्मा के पास था और आज अनिल जयराम सरकार मे भी मंत्री हैं इसलिये यह आरोप अलग से चर्चा का विषय बन गये हैं। लेकिन इन आरोपों की व्यवहारिक सच्चाई यह है कि जिन चौदह कंपनीयों के खिलाफ आरोप लगे थे उनकी जांच कांग्रेस सरकार के दौरान ही हो गयी थी और जो भी कारवाई कानून के अनुसार बनती थी उसको अंजाम दे दिया गया था। इस कारवाई का अनुमोदन उस समय मुख्यन्त्री ने भी किया हुआ है। बल्कि अब जयराम सरकार के समय में भी यह कारवाई की रिपोर्ट वर्तमान पशुपालन मन्त्री के पास भी गयी है और उन्होनें भी इसे स्वीकार कर लिया है। विजिलैन्स को भी यह रिपोर्ट जा चुकी है। इसी तरह परिवहन निगम में बस खरीद को लेकर आरोप लगाया गया है। लेकिन यह मामला एक बार उच्च न्यायालय तक जा चुका है। उच्च न्यायालय ने इस खरीद को लेकर अपनाई गयी प्रक्रिया को एक सही पारदर्शी ठहराया है। इस नाते परिवहन निगम और पशुपालन विभाग को लेकर लगाये यह आरोप कहीं नही टिक पायेंगे। लेकिन इन आरोपों को लेकर अब विजिलैन्स ने सरकार को इस वस्तुस्थिति की सूचना नही दी है इससे विजिलैन्स की कार्यशैली पर पहले ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
इससे भी हटकर एक बड़ा सवाल तो यह है कि भाजपा के आरोप पत्र को लेकर जांच की कोई समय सीमा तय नही की गयी है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामलें में 2008 में जांच को लेकर स्पष्ट जांच निर्देश जारी किये हुए हैं। यह निर्देश सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने जारी किये हैं। जो अपने में अब कानून बन चुके हैं। इन निर्देशों के मुताबिक जिस भी शिकायत से संज्ञेय अपराध का बोध होता हो उसमें तुरन्त प्रभाव से एफआरआई दर्ज किया जाना अनिवार्य है। यदि किसी कारण से जाचंकर्ता अधिकारी आयी हुई शिकायत पर प्रारम्भिक जांच करना भी चाहे तो उसे यह जांच सात दिन के भीतर पूरी करनी होगी। प्रारम्भिक जांच भी शिकायत के गुण-दोषों की जांच नही होगी केवल यह देखा जायेगा कि इसमें संज्ञेय अपराध का बोध होता है या नहीं। यदि जांचकर्ता की नज़र संज्ञेय अपराध का बोध नही होता है तो जांच अधिकारी को इसके कारण लिखित में रिकार्ड करते हुए शिकायतकर्ता को इसकी सूचना देनी होगी और यह सब कारवाई सात दिन के भीतर पूरी हो जानी चाहिये। ऐसा न करने वाले अधिकारी के खिलाफ भी कारवाई किये जाने के निर्देश किये गये हैं। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि

Conclusion/Directions:

111) In view of the aforesaid discussion, we hold:
i) Registration of FIR is mandatory under Section 154 of the Code, if the information discloses commission of a cognizable offence and no preliminary inquiry is permissible in such a situation.
ii) If the information received does not disclose a cognizable offence but indicates the necessity for an inquiry, a preliminary inquiry may be conducted only to ascertain whether cognizable offence is disclosed or not.
iii) If the inquiry discloses the commission of a cognizable offence, the FIR must be registered. In cases where preliminary inquiry ends in closing the complaint, a copy of the entry of such closure must be supplied to the first informant forthwith and not later than one week. It must disclose reasons in brief for closing the complaint and not proceeding further.
iv) The police officer cannot avoid his duty of registering offence if cognizable offence is disclosed. Action must be taken against erring officers who do not register the FIR if information received by him discloses a cognizable offence.
v) The scope of preliminary inquiry is not to verify the veracity or otherwise of the information received but only to ascertain whether the information reveals any cognizable offence.
vi) As to what type and in which cases preliminary inquiry is to be conducted will depend on the facts and circumstances of each case.
The category of cases in which preliminary inquiry may be made are as under:
a) Matrimonial disputes/ family disputes
b) Commercial offences
c) Medical negligence cases
d) Corruption cases
e) Cases where there is abnormal delay/laches in initiating criminal prosecution, for example, over 3 months delay in reporting the matter without satisfactorily explaining the reasons for delay.
The aforesaid are only illustrations and not exhaustive of all conditions which may warrant preliminary inquiry.
vii) While ensuring and protecting the rights of the accused and the complainant, a preliminary inquiry should be made time bound and in any case it should not exceed 7 days. The fact of such delay and the causes of it must be reflected in the General Diary entry.
viii) Since the General Diary/Station Diary/Daily Diary is the record of all information received in a police station, we direct that all information relating to cognizable offences, whether resulting in registration of FIR or leading to an inquiry, must be mandatorily and meticulously reflected in the said Diary and the decision to conduct a preliminary inquiry must also be reflected, as mentioned above.

सर्वोच्च न्यायालय के इन निर्देशों की यदि ईमानदारी से अनुपालना की जाये तो सही मायने में भ्रष्टाचार पर लगाम भी लगायी जा सकती है और फर्जी शिकायतों को भी रोका जा सकता है लेकिन विजिलैन्स इन निर्देशों के अनुसार कारवाईे ही नही कर रही है। जयराम सरकार ने धर्मशाला में मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में बीवरेज कारपोरेशन में हुए घपले की जांच करवाये जाने का फैसला लिया था। इसमें सीधे-सीधे संज्ञेय अपराध का बोध होता है लेकिन इस मामले में अभी तक कोई एफआरआई दर्ज नही हो पायी है। इस तरह अब तीन सहकारी बैंको को लेकर मामला विजिलैन्स में गया है। इसमें भी जो आरोप हैं उनसे सीधे संज्ञेय अपराध का बोध बनता है। यह मुख्य सचिव और मुख्यमन्त्री की अनुशंसा से गृह विभाग से होकर विजिलैन्स को गया है। इसमें सारे दस्तावेजी सक्ष्य विजिलैन्स को भेजी रिपोर्ट के साथ संलग्न है। प्रारम्भिक जांच में भी दस्तावेज ही जुटाये जाते हैं। जो इस रिपोर्ट के साथ पहले से ही मौजूद हैं लेकिन इस मामले में भी विजिलैन्स ने अब तक एफआईआर दर्ज नही की है क्योंकि गृह विभाग ने अपनी ओर से एफआईआर दर्ज करने के निर्देश जारी नही किये हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या गृह विभाग और विजिलैन्स को सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा जारी किये गये निर्देशों की जानकारी ही नही है या फिर विजिलैन्स किसी तरह से इन मामलों को टालना चाहता है। सूत्रों के मुताबिक विजिलैन्स के पास ऐसी कई शिकायतें वर्षों से लंबित हैं। जिन पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार मामले दर्ज होकर अब तक अन्तिम फैसले भी आ जाने चाहिये थे लेकिन ऐसा नही हुआ है।इससे विजिलैन्स की नीयत और नीति दोनां पर गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या भाजपा के इस बहुचर्चित आरोप पत्र पर सही में कोई जांच हो पायेगी या यह एक जुमला बनकर ही रह जायेगा।

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