Thursday, 18 September 2025
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मकलोड़गंज बसअड्डा प्रकरण में नहीं हुई कोई कारवाई

शिमला/शैल। सर्वोच्च न्यायालय की सी ई सी के बाद नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल में पहुंचे कांगड़ा के धर्मशाला स्थित मकलोड़गंज बस स्टैण्ड निर्माण मामलें में अन्ततः ट्रिव्यूनल ने 35 लाख का जुर्माना लगाते हुए इस निर्माण को पन्द्रह दिन के भीतर तोड़ने और संवद्ध जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कारवाई करने तथा उनकी जिम्मेदारी तय करने के निर्देश दिये हैं। इन निर्देशों की अनुपालना की जिम्मेदारी मुख्य सचिव को सौंपते हुए कहा है ^^ We  direct the Chief Secretary to hold  an enquiry against the erring officials of HP BSM &DA and fix responsibility  ट्रिव्यूनल ने 35 लाख के जुर्माने में 15 लाख निर्माता कंपनी प्रंशाती सूर्य को 10 लाख बस अड्डा प्राधिकरण और पांच लाख प्रदेश सरकार तथा पांच लाख पर्यटन विभाग को लगाया है।
स्मरणीय है कि मकलोड़गंज में पार्किंग सुविधा उपलब्ध करवाने के लिये भारत सरकार ने 12.11.97 को पत्र संख्या 9&373@97&ROC  के माध्यम से 930 वर्ग मीटर वन भूमि की स्वीकृति प्रदान की थी। इसके बाद 1.3.2001 को पत्र संख्या  9&559@98&ROC 295 के माध्यम से 4835 वर्ग मीटर वन भूमि पर बस स्टैण्ड निर्माण की स्वीकृति प्रदान की थी। यह दोनो स्वीकृतियां मूलतः पर्यटन विभाग और एस डी एम धर्मशाला के नाम पर थी । लेकिन प्रदेश सरकार ने वर्ष 2006 में पर्यटन विभाग से एनओसी लेकर परिवहन विभाग की बस स्टेण्ड मैनेजमैन्ट अथाॅर्रिटी को 99 वर्ष की की लीज पर अपने ही स्तर पर दे दिया और राजस्व रिकार्ड में इसका इन्द्राज भी बदल दिया। जबकि भारत सरकार से 12.11.97 और 1.3.2001 को आये पत्रों में स्पष्ट कहा था कि

(1) The legal Status of the forest land will remain unchanged the forest land will be restored to the forest department as and when it is no more required
(2) The forest land will not be used for any other purpose than that mentioned in the proposal. State Govt. will ensure through State forest department the fulfillment of these conditions.

गौरतलब है कि यहां पर पार्किंग स्थल बनाने की योजना 1995-96 से चल रही थी और जब वन भूमि का उपयोग बदलने की बात उठी थी तो इस पर दो याचिकाएं 202/95 तथा 171-96 धर्मशाला के अतुल भारद्वाज तथा मुंबई पर्यावरण एक्शन गु्रप के नाम से सर्वोच्च न्यायालय में डाली गयी थी और इनके कारण 2004 तक यहां कोई निर्माण कार्य शुरू ही नही हो सका था। 7-11-2000 को राज्य सरकार ने यह निर्माण 1307 के आधार पर करवाने का फैसला लिया और 19-11-2003 को इस आश्य का एक विज्ञापन जारी किया जिसके उत्तर में केवल एक ही आवेदन आया जिसे रद्द कर दिया गया। इसके बाद 13-7- 2004 को नये सिरे से आवदेन मंगवाये गये और 13-10-2004 को   HP BSM & DA  निदेशक मण्डल की बैठक में में प्रशांती सूर्य को यह कार्य BOT में आवंटित कर दिया। इसका Concession Period  16 वर्ष 7 महीने 15 दिन तय किया गया। इस आंवटन के साथ निर्माण का जो प्लान दिया गया उसके अनुसार इस बहुमंजिला काॅम्लैक्स का एरिया 3680 वर्ग मीटर होना था। इसके नक्शे टीसीपी से स्वीकृत होने थे लेकिन प्रशांती  सूर्य ने इस स्वीकृति के बिना दिसम्बर 2005 में निर्माण कार्य शुरू कर दिया। टी सी पी के पास 4-3-2006 के नक्शे आये इनमें कुछ कमियां थी जिनको दूर करने के लिये टी सी पी ने 28-7-2006, 5-10-2006, 27-11-2006, 4-1-2007 और 19-2-2007 को बस स्टैण्ड प्राधिकरण को पत्र लिखे जिनका कोई जबाव नही आया निर्माण कार्य चलता रहा। जबकि टी सी पी ने सैक्शन 39 के तहत चार बार नोटिस देकर निर्माण कार्य बन्द करने के आदेश भी दिये। इस पर 13-4-2007 को जिलाधीश कांगड़ा ने निदेशक टी सी पी को पत्र लिखकर इस निर्माण में कुछ रियायतें देने का आग्रह किया। इस पर 28-4-2007 को यह मामला मन्त्रिमण्डल के सामने आया। आरएफपी के अनुसार कुल निर्मित एरिया 6459 वर्ग मीटर होना था जबकि वास्तव में यह एरिया 13270 वर्ग मीटर हो गया है। टर्मिनल ब्लाक में जहां आरएफपी के मुताबिक दो मंजिले बननी थी वहां छः मंजिले बन गयी है। अनुमानित निर्माण लागत 15 करोड़ में से प्रशांती सूर्य ने आठ करोड़ बैंको से ऋण लेकर जुटाये हैं जिसकी गांरटी राज्य सरकार ने दी है। सी ई सी ने इसका गंभीर संज्ञान लेते हुए लिखा था किIt has been Stated by M/S Prashanti Surya that it has taken Rs 8 Crores as loan for which state of Himachal Pradesh stands a guarantee. If this statement is correct , it is a very serious  Lapse an stern action needs to be taken against the concerned persons for giving   guarantee. The RFP document does not provide that the State will stand guarantee for repayment of loan taken by the successful bidder. सी ई सी ने राज्य सरकार से भी उसका पक्ष पूछा था। राज्य सरकार ने कहा है कि The State Government has stated that inadvertently, an error has been committed by using the piece of land measuring 093 hac for the construction of a commercial hotel complex rather than for parking place.  सर्वोच्च न्यायालय की सी ई सी के बाद यह मामला एन जी टी के पास पहुंचा है। एन जी टी ने इसमें 35 लाख जुर्माना लगाने के साथ संवद्ध दोषी अधिकारियों के खिलाफ कारवाई करने के निर्देश दिये हैं। अब सरकार इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में अपील में जायेगी या दोषीयों के खिलाफ कारवाई करेगी इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय की सी ई सी तो इसमें पहले ही गंभीर संज्ञान ले चुकी है। सी ई सी ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को कड़ी फटकार लगायी हुई है। सी ई सी परिवहन फाॅरैस्ट, वित्त, टीसीपी, राजस्व और जिला प्रशासन के खिलाफ कड़ी टिप्पणीयां कर चुकी है जिसके अनुसार सबके खिलाफ आपराधिक मामले बनते हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय से सरकार को राहत की उम्मीद बहुत कम है।

कोटखाई प्रकरण में रेप से लेकर हत्या तक एक घन्टे में अन्जाम दिया गया पूरे अपराध को

शिमला/शैल। राष्ट्रीय महिला आयेाग की सदस्य सुषमा साहू ने एक पत्रकार वार्ता में यह सनसनी खेज खुलासा किया है कि मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह की पत्नी पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह ने कोटखाई प्रकरण की नाबलिग पीड़िता के परिजनों से मिलकर इस कांड की सीबीआई से जांच करवाने की बजाये प्रदेश पुलिस से जांच करवाने का आग्रह करें। प्रतिभा सिंह ने साहू के इस खुलासे के जवाब में यह कहा कि जब वह पीड़िता के परिजनों से मिली थी तब उन्होने पुलिस जांच पर पूरा भरोसा जताया था और तब उन्होने इस संद्धर्भ में यह कहा था कि जब पुलिस जांच पर भरोसा है तो फिर सीबीआई जांच की आवश्यकता नही आती है। लेकिन जिस अन्दाज में साहू ने यह बात सामने लायी है। इससे पूरा संद्धर्भ ही बदल जाता है और संद्धर्भ बदलने का यह प्रयास फिर राजनीति की गंध से भरा लगता है। क्योंकि अब जब यह मामला सीबीआई के पास चला गया है। तब सीबीआई की रिपोर्ट आने का इन्तजार किया जाना चाहिये।
सुषमा साहू ने पत्रकार वार्ता में पोस्टमार्टम रिपोर्ट को लेकर भी सवाल उठाये हैं रिपोर्ट के मुताबिक पीड़िता ने मौत से दो घन्टे पहले चावल खाये थे। रिपोर्ट के मुताबिक मौत 4 जुलाई को शाम के 4 से 5 बजे के बीच हुई है। पोस्टमार्टम 7 जुलाई को हुआ। इस पर सवाल उठाया गया है। कि 4 तारीख को खाये गये चावल 7 तारीख तक यथास्थिति कैसे बने रहे। साहू के इस सवाल पर कोई जवाबी प्रतिक्रिया नही आयी है। लेकिन यहां पर एक और गंभीर सवाल उठता है कि पुलिस जांच के मुताबिक 4 जुलाई को यह लड़की शाम 4 बजे के करीब स्कूल से निकली है और स्कूल में ही उसने खाने में चावल खाये थे। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक मौत का समय 4 से 5 बजे का है। यदि मौत का समय और बच्ची के स्कूल से निकलने का समय सही है तो इसका अर्थ यह होता है कि स्कूल से निकलते ही बच्ची को उठा लिया गया होगा। जिस स्थान पर लाश मिली है वहां तक स्कूल से पहुंचने में करीब 20 मिनट लगते है और आबादी से यह स्थल करीब 300 मीटर है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या यह संभव हो सकता है कि करीब एक घन्टे के समय में छः लोग बच्ची से बलात्कार भी कर गये और इसी समय में उसकी हत्या भी कर दी गयी। क्योंकि स्कूल से निकलने के समय और हत्या के समय में केवल एक घन्टेे का अन्तराल है। इतने कम समय में और वह भी आबादी से महज तीन सौ मीटर की दूरी पर हत्या और बलात्कार का होना ज्यादा संभव नही लगता। फिर पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी सूत्रों के मुताबिक बलात्कार की केवल संभावना जताई गयी है। निश्चित तौर पर पुष्टि नही नही की गयी है।
इसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि जब 4 जुलाई को शाम 4 से 5 बजे के बीच हत्या हो गयी तो फिर गर्मी के मौसम में लाश से दुर्गंन्ध क्यों नही फैली ? लाश की गन्ध पर तो जंगली जानवर एकदम आकर्षित होते है लेकिन लाश को जंगली जानवरों की ओर से कोई नुकसान नही पहुंचा है। ऐसे में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में आये मौत के समय और पुलिस के मुताबिक बच्ची के स्कूल से निकलने के समय में केवल एक घन्टे का बीच का समय है जिसमें हत्या और रेप दोनों को अंजाम दे दिया गया। क्या इतने समय में यह सब संभव हो सकता है या नही अब इसका जवाब सीबीआई से ही आना है।


प्रभारी बदलने के साथ ही नेतृत्व परिवर्तन की भी उठी मांग

शिमला/शैल। आज हिमाचल सरकार पूरी तरह अराजकता का पर्याय बन चुकी है और इसका सबसे ताजा उदाहरण है अभी घटित हुआ कोटखाई का गुड़िया प्रकरण जहां अन्त मे उस सीबीआई को मामला सौंपना पड़ा जिसके खिलाफ मुख्यमन्त्री के अपने ही मामलें में सरकार सन्देह और अविश्वास व्यक्त कर चुकी है। सरकार की इस स्थिति के लिये काफी हद तक कांग्रेस का प्रदेश संगठन भी जिम्मेदार रहा है। क्योंकि सरकार के बनने के साथ ही संगठन और सरकार में वर्चस्व की जो लड़ाई शुरू हुई थी आज वह खुलकर सड़क तक पहुंच गयी है। जब पथ यात्रा के प्रकरण में संगठन के मुखिया सुक्खु ने मुख्यमन्त्री पर भूल जाने का तंज कसा तो वीरभद्र ने उसका पलट कर जवाब देते हुए यहां तक कह दिया कि उसे तो वह दिन भी याद है जब सुक्खु पैदा हुआ था। संगठन और सरकार में यह टकराव सरकार बनने के साथ ही मुख्यमन्त्री द्वारा विभिन्न निगमों/बोर्डों में की गयी ताज़पोशीयों से शुरू हुआ था और वीरभद्र ने उसी वक्त ‘एक व्यक्ति एक पद’ के सिद्धान्त को मानने से इन्कार कर दिया था। सरकार और संगठन का यह टकराव हर मोड़ पर हर मुद्दे पर खुलकर सामने आता रहा है जब संगठन में सचिवों के त्यागपत्र देने की नौबत आयी और सरकार में मुख्य संसदीय सचिवों के त्यागपत्र तथा कार्यालय में न आने तक की स्थिति आ गयी तो यह टकराव की पराकाष्ठा थी।
सरकार और संगठन के इस टकराव में न सुक्खु वीरभद्र को बदलवा सके और न ही वीरभद्र सुक्खु को। इसी टकराव के कारण लोकसभा की चारों सीटों हारी और अब नगर निगम शिमला हारी। इसी टकराव का परिणाम है वीरभद्र समर्थकों द्वारा उनके नाम से ब्रिगेड खड़ा करना तथा संगठन के कड़ा संज्ञान लेने पर उसको भंग करके एनजीओ की शक्ल देना और सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर कर देना जो अब तक चल रहा है। सुक्खु वीरभद्र के इस टकराव को जारी रखवाने में जहां दोनो के स्वार्थी सलाहकरों ने अहम भूमिका निभायी है वहीं पर हाई कमान की प्रतिनिधि रही प्रदेश की प्रभारी अबिंका सोनी ने भी कवेल ‘‘बिल्ली मौसी’’ की ही भूमिका निभाई और सारा दोष हाईकमान पर धृतराष्ट्र होने का लगता रहा। संगठन और सरकार के सूत्रों की माने तो अंबिका सोनी ने कभी भी प्रदेश की सही तस्वीर हाईकमान के सामने रखी ही नही। आज भी जब प्रदेश में यह गुड़िया प्रकरण घटा और पूरे देश में वीरभद्र सरकार के खिलाफ रोष के स्वर उभरे तब भी प्रभारी ने यहां आकर हालात का जायजा लेने की कोशिश तक नही की। जबकि भाजपा का प्रभारी अपनी नियुक्ति के पहले दिन से ही यहां डेरा डालकर बैठ गया है और पूरे प्रदेश का भ्रमण करके पार्टी कार्यकर्ताओं को चुनावी अभियान में व्यस्त कर दिया है। इस संद्धर्भ में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस कहीं देखने को नही मिल रही है। इस समय कांग्रेस की स्थिति तो यह हो गयी है कि उसे सुक्खु और वीरभद्र के अतिरिक्त और किसी दुश्मन की आवश्यकता ही नही रह गयी है। सरकार और संगठन दोनो एक बराबर अराजकता के शिकार हो चुके है। संभवतः इसी सब की आहट पाकर हाईकमान ने यहां के प्रभारी बदले हैं।
आज जहां कांग्रेस से गुजरात में शंकर सिंह बाघेला बाहर चले गये है वहीं पर हिमाचल में मनकोटिया जैसे व्यक्ति को जनहित में पर्यटन विकास वोर्ड के उपाध्यक्ष पद से वर्खास्त करके ऐन चुनाव के वक्त अपने पांव पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। जानबूझकर विपक्ष को एक मुखर प्रवक्ता उपलब्ध करवा दिया है जबकि इस बार चुनाव में मनकोटिया की जीत तो वीरभद्र से भी ज्यादा पक्की मानी जा रही है। कांग्रेस को तो सत्ता में बने रहने के लिये एक-एक सीट पर पूरी एकजुटता के साथ चुनाव लड़ने की आवश्यकता है। उसे तो बाहर से लोग भीतर लाने की आवश्यकता है। क्योंकि इस समय पार्टी पर एक संकट तो इस गुड़िया प्रकरण से आ गया है। इससे जहां जिला शिमला में पहले आठ में छः सीटें पक्की मानकर प्रदेश में इससे आगे गिनती शुरू होती थी वहां अब एक सीट भी पक्की मानकर चलना कठिन लग रहा है। यहां विश्वास बहाल करने के लिये सीबीआई से हटकर स्वयं प्रशासनिक स्तर पर कुछ लोगों के खिलाफ कड़ी कारवाई करके एक सख्त संदेश देना होगा। यदि यह संदेश न हो पाया तो वीरभद्र और विक्रमादित्य की अपनी सीटें भी संकट में होंगी यह तय है। पार्टी का दूसरा संकट स्वयं वीरभद्र सिंह के खिलाफ चल रहे आयकर, सीबीआई और ईडी के मामलें है। वीरभद्र के अपने कार्यालय को तो पहले ही दिन से ही ‘‘रिटायरड और टायरड’’ लोगों का आश्रम प्रचारित किया जाता रहा है और इस प्रचार - प्रसार का प्रभाव पूरे प्रशासन पर जनता बराबर देखती आ रही है। इस पर वीरभद्र और उनके परिवार तथा निकट सलाहकारों की ही आंखे बन्द रही है। जबकि बाकी सभी की खुली है।
वीरभद्र अपने मामलों के लिये तो केन्द्र सरकार पर राजनीतिक द्वेष का आरोप लगाते आ रहे हैं। जनता को यह कहते आये हैं कि एक ही मामले की तीन ऐजैन्सीयां एक साथ जांच कर रही जबकि ऐसा सामान्यतः नही होता। जनता और पार्टी उनके इस तर्क पर सीधे असहमति नही जता पायी है। क्योंकि केन्द्र की यह ऐजैन्सीयां इस मामले में अब तक कोई बड़ा परिणाम भी सामने नही ला पायी है। इसलिये हाईकमान भी उनके साथ खड़ी रही है। लेकिन अब इस बलात्कार और फिर हत्या प्रकरण में पुलिस की जांच पर उठे सवालों ने एकदम सरकार और पार्टी को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। क्योंकि ऐसे संगीन अपराध में भी अलसी दोषीयों को बचाने का आरोप पुलिस पर लगा है। जांच में ऐसे कई गंभीर बिन्दु है जो पुलिस जांच पर सन्देह करने के पुख्ता आधार बनते है। फिर इस प्रकरण पर आये मुख्यमन्त्री के ब्यानों से भी जनता सन्तुष्ट नही रही है क्योंकि सरकार ने संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ प्रशासनिक स्तर पर कोई कारवाई ही नही की है। इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि चुनावों में पार्टी को इससे भारी नुकसान उठाना पडे़गा और इसकी सीधी जिम्मेदारी मुख्यमन्त्री पर आती है। क्योंकि वह ही प्रदेश के गृहमंत्री भी है। ऐसे में सरकार और पार्टी के भीतर उनके विरोधीयों को नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठाने का एक तर्क संगत मौका मिल गया है। जिन लोगों को अपने राजनीतिक भविष्य की चिन्ता है उनका तर्क है कि आज जनता सबसे पहले उनसे यही सवाल पूछेगी की ऐसे अपराध में दोषी को क्यों और किसके ईशारे पर बचाया जा रहा है। फिर भाजपा ने तो इस प्र्रकरण पर 26 जुलाई तक मुख्यमन्त्री को त्यागपत्र देने का अल्टीमेटम दे दिया है। यदि तब तक वीरभद्र नहीं हटतें हैं तो उसके बाद इस मुद्दे को फिर जनता में ले जाने की बात की है। ऐसे में यदि सीबीआई भी अपनी जांच में पुलिस को दोषी पाती है तब तो स्थिति और भी भंयकर हो जायेगी। इसी सबको सामने रखते आधा दर्जन विधायकों ने हाईकमान को पत्र लिखकर स्पष्ट शब्दों में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठा दी है। यह संख्या और भी बढ़ जायेगी क्योंकि ऐसे मुद्दे पर कोई भी राजनेता सीधे मुख्यमन्त्री का पक्ष लेने की हिम्मत नही कर पायेगा। क्योंकि ऐसा करने पर वही जनता के रोष का केन्द्र बन जायेगा। माना जा रहा है कि यदि अब भी हाईकमान ने कोई कारगर कदम न उठाया तो सरकार गिरने तक की नौबत आ जायेगी।
इस परिदृश्य में प्रदेश का प्रभार संभाल रहे शिंदे और उनके सहयोगी रजनी के लिये पार्टी को टूटने से बचाये रखने के लिये हाईकमान होने का कड़ा संदेश देना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में सुक्खु और वीरभद्र सिंह का एक साथ चल पाना संभव नही है। इसलिये पार्टी को सुक्खु-वीरभद्र संकट से बचाने के लिये हाईकमान क्या करती है और प्रभारी इस जमीनी हकीकत का कितना सही आकलन कर पाते हैं इस पर सबकी नजरें रेहेंगी। क्योंकि अब सी बी आई के आने के बाद भी इस प्रकरण को जनचर्चा में बनाये रखने के लिये कुछ तथाकथित सामाजिक संगठनों ने एक गुड़िया न्याय मंच बनाकर इस मामले को आगे बढ़ाते हुये प्रदर्शनों की रणनीति को जारी रखा हुआ है। आज इस प्रकरण में प्रशासन की अब तक की सारी असफलता के लिये मुख्यमन्त्री और उनके कार्यालय को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। ऐसे में स्वभाविक है कि यदि इस परिदृश्य में मुख्यमन्त्री के विरोधी कोई अलग रास्ता चुन लेते हैं तो जनता और हाईकमान उन्हे दोषी नहीं ठहरा सकेगी।

यात्रा के बावजूद परिवर्तन के लिये ठोस जमीन तैयार नहीं कर पायी भाजपा

शिमला/शैल। प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के लिये पहली बार इस स्तर पर रथ यात्राओं का आयोजन किया जो हर विधानसभा क्षेत्र में पहुंची और उसे किसी-न-किसी बड़े नेता ने संबोधित किया। इन नेताओं में प्रदेश और प्रदेश से बाहर के भी बड़े नेता शामिल रहे हैं। यात्रा में जनता को वीरभद्र सरकार के भ्रष्टाचार और मोदी सरकार की सफलताओं के बारे में विस्तृत जानकारी दी गयी। वीरभद्र सरकार के खिलाफ सबसे बड़े आरोप रहे कि प्रदेश में हर स्तर पर माफियाओं का राज है और मुख्यमन्त्री अपने खिलाफ चल रहे मामलों में इस कदर उलझे हुए हैं कि उनका अधिकतर समय अदालतों के चक्कर काटने में ही व्यतीत हो रहा है। अदालत में जमानत पर चल रहे मुख्यमन्त्री के पास प्रदेश के विकास के लिये समय ही नहीं है। इस वास्तुस्थिति को जनता को परोसते हुए आह्वान किया गया कि वह आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके भाजपा को शासन की जिम्मेदारी सौंपे।
भाजपा के इस सन्देश का प्रदेश की जनता पर कितना असर हुआ है इसका आकलन करने से पहले यह जानना और समझना बहुत आवश्यक है कि भाजपा के प्रदेश नेतृत्व की अपनी स्थिति क्या है। क्योंकि सत्ता परिवर्तन के बाद मोदी ने तो स्वयं प्रदेश के मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर तो नहीं बैठना है उस पर यहीं का कोई नेता बैठेगा। अभी यू-पी में मोदी के नाम पर सत्ता परिवर्तन हुआ और योगी मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठे हैं। लेकिन वहां पहले 100 दिनों में जिस तरह का शासन सामने आ रहा है वह कोई बहुत ज्यादा सुखद एवं और सन्तोषजनक नही हैं। हरियाणा में खट्टर सरकार भी बड़ी सफल सरकार नहीं कही जा सकती है। इस परिदृश्य में प्रदेश की जनता मोदी और शाह से नेतृत्व की स्पष्टता चाहेगी। इस समय भाजपा धूमल-नड्डा और शान्ता तीनों को एक बराबर रखकर चल रही है जिसका यह भी अर्थ लिया जा रहा है कि इन तीनों में से कोई भी नहीं। इन तीनों के बाद प्रदेश में रहे पार्टी के राज्य अध्यक्ष आते हैं। इनमें सुरेश भारद्वाज, जयराम ठाकुर और सत्तपाल सत्ती प्रमुख हैं पर इन्हें इस यात्रा में प्रदेश के बड़े नेताओं की पंक्ति में रखकर प्रचारित-प्रसारित नहीं किया और इस नाते इन्हे भी मुख्यमन्त्री पद के संभावितों में नहीं माना जा रहा है। प्रदेश की वर्तमान परिस्थितियों में नेतृत्व की अस्पष्टता पार्टी पर भारी पड़ सकती है क्योंकि मोदी फैक्टर से जहां लाभ की उम्मीद की जा रही है वहीं पर इसके कारण एक जटिलता भी सामने खड़ी है। क्योंकि इस समय पार्टी का हर पुराना कार्यकर्ता यह उम्मीद लगाये बैठा है कि विधानसभा चुनाव में वरिष्ठता के नाते उसे टिकट दिया जाना चाहिये। ऐाी स्थिति करीब दो दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में खुल कर सामने आ सकती है। अभी हुये शिमला नगर-निगम के चुनावों में यही स्थिति उभरी थी और नाराज होकर कार्यकर्ताओं ने निर्दलीय होकर चुनाव लड़ लिये। इसी कारण भाजपा को निगम में सीधे बहुमत नहीं मिल पाया और फिर अपने ही विद्रोहीयों का सहारा लेकर सत्ता का जुगाड़ करना पड़ा।
पार्टी की इस भीतरी स्थिति के साथ जहां भाजपा ने वीरभद्र सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये वहीं पर उन आरोपों की विस्तृत व्याख्या जनता के सामने नहीं रख पायी। राज्यपाल को समय -समय पर सौंपे भ्रष्टाचार के आरोप पत्रों पर अब जनता को कोई विश्वास नहीं रहा है। क्योंकि कांग्रेस और भाजपा ने सत्ता में आने के बाद कभी भी अपने ही आरोप पत्रों पर कोई कारवाई नहीं की है। आज जनता भ्रष्टाचार के आरोपों की प्रमाणिकता के दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ उस पर ठोस कारवाई भी चाहती है जो आज तक नहीं हो पायी है। इस समय वीरभद्र के अपने खिलाफ चल रहे मामलों पर केन्द्र सरकार की सी बी आई और ईडी कोई ठोस परिणाम नहीं दे पायी है। वीरभद्र के मामले में उसी के सहअभियुक्त एलआईसी ऐजैन्ट आनन्द चैहान की गिरफ्तारी ने ऐजैन्सी की विश्वसनीयता पर ही गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं क्योंकि एक ही मामले में सहअभियुक्त तो एक वर्ष से जेल में है और मुख्यअभियुक्त बाहर हो ऐजैन्सी के राजनीतिक इस्तेमाल का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है। आज यह आम चर्चा है कि संघ के एक सर्वे में यह कहा गया है कि यदि वीरभद्र पर बड़ा हाथ डाला जाता है तो उससे चुनावों में राजनीतिक नुकसान हो सकता है। यह चर्चा है कि इस बारे में भाजपा के ही एक बड़े नेता ने अरूण जेटली को ऐसी बड़ी कारवाई करने से रोका है। संभवतः इसी कारण से भाजपा वीरभद्र के कथित भ्रष्टाचार पर अपने भाषणों में कोई ज्यादा बड़ा खुलासा कर नहीं कर पा रही है। बल्कि अधिकांश लोगों को तो इस मामले की सही तरीके से पूरी जानकारी ही नहीं है। यहां तक कि भाजपा के प्रवक्ताओं को ही इसकी विस्तृत जानकारी नहीं और भाजपा का प्रदेश मुख्यालय पर इस बार कोई प्रवक्ता है ही नहीं, जो ऐसे मामलों की सही जानकारी जुटा कर जनता के सामने रखें।
इस सारी स्थिति का यदि निष्पक्ष राजनीतिक आकलन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता परिवर्तन के लिये अभी कोई ठोस ज़मीन तैयार नहीं हो पायी है। इसमें नेतृत्व की अस्पष्टता सबसे बड़ा कारण मानी जा रही है और इसी के चलते भ्रष्टाचार के आरोपों पर केवल रस्म अदायगी ही हो रही है। इसी रस्म अदायगी को अब प्रदेश की जनता समझने भी लग पड़ी है।

फिर नही हो पाया सी आई सी का चयन

शिमला/शैल। एक वर्ष से अधिक समय से खाली चले आ रहे मुख्य सूचना आयुक्त के पद को भरने के लिये रखी गयी बैठक फिर टल गयी और यह चयन फिर रूक गया है। अब सात जून को चुनाव आयुक्त के डी वातिश के सेवा निवृत हो जाने के बाद यह संवैधानिक संस्थान बिल्कुल खाली हो जायेगा। इस बार भी यह बैठक नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल के न आने से नहीं हो पायी है। पिछली बार धूमल इसलिये बैठक ने नही गये थे क्योंकि उन्होने जो स्पष्टीकरण मांगे थे उनका जवाब उन्हे नहीं मिला था। इस बार धूमल केन्द्रिय गृहमन्त्री राजनाथ सिंह के हमीरपुर कार्यक्रम के कारण बैठक मे शामिल नही हो पाये हैं। लेकिन यह चयन बहुमत से होना है इसमें किसी को भी वीटो का अधिकार नही है और इस स्थिति में यदि सरकार चाहती तो बैठक करके चयन कर सकती थी। धूमल ने नमित शर्मा बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया में सीआईसी के संद्धर्भ में आये सर्वोच्च न्यायालय फैसले पर सरकार का पक्ष पूछा था। क्योंकि इस फैसले के कारण नौकरशाह इस चयन से बाहर हो गये थे लेकिन केन्द्र सरकार ने जब इस फैसले के रिव्यु की गुहार लगायी तब इसमें फिर बदलाव आ गया था। इस बदलाव के कारण ही आज केन्द्रिय सूचना आयोग में नौकरशाहों की तैनाती हो रही है। इस आधार पर राज्य सरकार को भी किसी नौकरशाह को इसके लिये चयन करना कठिन नहीं है। लेकिन सूत्रो के मुताबिक इस पद के लिये मुख्यमन्त्री के अपने ही वफादारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ गयी है और वही चयन की समस्या बन गयी है।

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