अंग्रेजी में कहा है “Eternal Vigilance is the price of liberty” सतत सतर्कता ही स्वतन्त्रता का मूल्य है अर्थात स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये सदैव चौकन्ना रहना पड़ता है । यही कारण है कि हमारी सेनायें, हमारी स्वतन्त्रता, हमारे जानमाल और हमारे राष्ट्र की एक एक इंच के लिये चौबीसों घण्टे सजग, सचेत और सतर्क रहती है ।
स्वतन्त्रता मिलने के तुरन्त बाद जब पाकिस्तान ने कबायलियों के भेष में काश्मीर में अपनी सेना की घुसपैठ करवाई थी तब भी भारत के वीर सैनिकों ने देश की रक्षा की । पाकिस्तानियों के दांत खट्टे करते हुये पूरे का पूरा काश्मीर अपने कब्जे में लेने के लिये हमारे वीर सैनिक आगे बढ़ रहे थे तभी तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू जी ने युद्वविराम की घोषणा कर दी और काश्मीर की समस्या देश के लिये खड़ी कर दी ।
1962 में भी वीर सैनिकों ने बिना आधुनिक हथियारों के भी चीन की सेना का जवरदस्त मुकाबला किया पर राजनीतिक नेतृत्व ने फिर हथियार डाल दिये । 1965 में भी वीर सैनिकों ने जबरदस्त विजय प्राप्त की । युद्व क्षेत्र में वीर सैनिकों ने अपनी वीरता और कुर्बानी से जो कुछ जीता था उसे ताशकन्द समझौते के अन्तर्गत बातचीत के टेबल पर खो दिया, केवल जीता हुआ क्षेत्र ही नहीं खोया हमने अपने प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी को भी खो दिया ।
1971 के युद्व के परिणामस्वरूप वीर सैनिकों ने अपनी वीरता और वलिदान से पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये, बंगला देश एक नया राष्ट्र बन गया । हमारे सैनिकों ने इकानवे हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों को युद्वबन्दी बना लिया। राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई होती तो पूरे का पूरा काश्मीर हमारा हो सकता था परन्तु जो सैनिकों ने जीता वो शिमला समझौते के अन्तर्गत प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गान्धी ने बातचीत के टेबल पर खो दिया ।
इस सारे इतिहास को देखते हुये हम कह सकते हैं कि श्री अटल बिहारी वाजपेई जी के रूप में पहली बार देश को एक सशक्त नेतृत्व मिला जिसने जब आवश्यकता थी तो आण्विक बम धमाके भी किये और वीर सैनिकों की भावना का सम्मान करते हुये अन्तर्राष्ट्रीय दवाब के वावजूद युद्वविराम की घोषणा तब तक नहीं की जब तक कारगिल का अपना सारा क्षेत्र पाकिस्तान के घुसपैठियों से खाली नहीं करवा लिया ।
इतिहास में पहली बार 2 जुलाई, 1999 को प्रधानमन्त्री, श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी स्वयं सैनिकों की पीठ थपथपाने के लिये युद्व के मोर्चे पर गये । देश में प्रधानमन्त्री की इस पहल को लेकर जवरदस्त उत्साह का संचार हुआ । इस संघर्ष में शहीद हुये सैनिकों के पार्थिव शरीरों को पहली बार हवाई जहाज या हैलिकॉप्टर के माध्यम से उनके परिवारजनों तक पहुंचाया गया, राजकीय सम्मान के साथ उनका अन्तिम संस्कार किया गया । केन्द्र और प्रदेष सरकारों ने शहीद के परिवारों की सहायता के लिये हर सम्भव सहायता प्रदान करने का प्रयास किया ।
उस समय हिमाचल प्रदेष में हमारी सरकार थी । श्री नरेन्द्र मोदी हिमाचल के प्रभारी थे । हमने भी आपस में विचार विमर्ष करके सैनिकों तक खाद्य सामग्री (पका पकाया भोजन) और दैनिक उपयोग के वस्त्र आदि लिये और हैलीकॉप्टर भर कर 4 जुलाई को श्रीनगर पहुंच गये । 5 जुलाई प्रातःकाल हम श्रीनगर से कारगिल के लिये उड़े । जब हम कारगिल उतर रहे थे तब भी पाकिस्तान की तरफ से गोलाबारी हो रही थी । सेना के बरिष्ठ अधिकारी ब्रिगेडियर नन्द्राजोग के नेतृत्व में हमें जानकारियां दे रहे थे। भूमिगत मोर्चे में उपस्थित सैनिकों को सामान बांटा और बाकि सामान उन सैनिकों के पास दे दिया ताकि मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे सैनिकों तक भी पहुंचाया जा सके ।
सांयकाल श्रीनगर वापिस पहुंचकर हम सैनिक अस्पताल गये, घायल सैनिकों का कुशलक्षेम पूछा और उन्हें सामान बांटा । एक जवान विस्तर पर लेटा हुआ था उसने सामान पकड़ा नहीं, हमने सामान साईड टेबल पर रख दिया यह सोचकर कि शायद घायल होने के कारण यह नाराज़ होगा । ज्यूं ही हम मुड़े तो एक डाक्टर दौड़े दौड़े आया और हमें बताया कि माईन ब्लास्ट में उस जवान के दोनों हाथ और दोनों पैर उड़ गये थे । हम वापिस मुड़े और उसके सिर पर हाथ रखकर पूछा, ‘‘बहुत दर्द होता होगा’’, उसने कहा ‘‘पहले था, कल शाम से नहीं हो रहा है’’ । हमने पूछा क्या कोई दर्द निवारक दवाई ली या टीका लगा ? उसने कहा ‘‘नहीं, कल शाम (4 जुलाई को) टाईगर हिल वापस ले लिया मेरा दर्द खत्म हो गया,’’ यह सुनकर हम सब भावुक हो गये, देष भक्ति के इस जजवे को सलाम ।
हिमाचल के 52 जबान शहीद हुये थे, मैं सभी के घर गया, हर शहीद परिवार की दिल को छू लेने वाली बातें सुनी। पालमपुर में कारगिल युद्व के प्रथम शहीद कै0 सौरभ कालिया की माता जी अपने पास बैठी शहीद परमवीर चक्र कै0 विक्रम बत्रा की माता श्रीमति बत्रा को ढांढस बंधा रही थीं । एक मां जिसने अपना बेटा खोया था वह दूसरी मां, जिसने अभी अभी अपना बेटा खोया था, उसे सांत्वना दे रही थी ।
बिलासपुर के बीर सैनिक संजय कुमार को परमवीर चक्र मिला था। उसी जिले में एक जवान मंगल सिंह भी शहीद हुआ था। शहीद मंगल सिंह की मां, श्रीमति कौशल्या देवी ने डेढ किलो मीटर तक शहीद बेटे मंगल सिंह की अर्थी को कंधा दिया। पालमपुर के लम्बापट गांव के हबलदार रोशन लाल का जवान बेटा राकेश कुमार शादी के 15 दिन के अन्दर ही शहीद हो गया था । रोशन लाल जी को पछतावा था कि 1965 के युद्व में जिस मोर्चे पर वह तैनात था उसी मोर्चे पर उसका बेटा 1999 में शहीद हो गया ।
हमीरपुर जिले के बमसन चुनाव क्षेत्र के शहीद राज कुमार के पिता हबलदार खजान सिंह भी पूर्व सैनिक थे । जब मैं उनके घर पहुंचा तो इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने कहा, ‘‘धूमल साहब, बेटे तो पैदा ही इसलिये किये जाते हैं कि पढ़ें, लिखें और जवान होकर फौज में भर्ती होकर देश की रक्षा करें और जरूरत हो तो अपना वलिदान दें, आप दिल्ली जा रहे हैं तो वाजपेयी जी को कहना कि सैनिकों की कमी हो तो 82 वर्ष का हबलदार खजान सिंह आज भी हथियार उठाकर देश की रक्षा करने के लिये तैयार है’’ । यह शब्द सुनकर वहां उपस्थित हर कोई उनकी भावना की प्रशन्सा करने लगा । बाद में जब मैं अटल जी को मिला और उन्हें यह सारी घटनायें सुनाईं तो वे भी बड़े भावुक हुये ।
जब तक भारत मां के ऐसे वीर सपूत देष के लिये हर वलिदान देने के लिये तैयार होंगे तब तक यह देश सुरक्षित है। मातृभूमि के लिये समर्पण की भावना हर नागरिक में हो, शहीदों का सम्मान पूरा राष्ट्र करे तो स्वतन्त्रता और सुरक्षा दोनों सुनिष्चित की जा सकती हैं। कारगिल विजय के शुभ अवसर पर स्वतन्त्रता आंदोलन से लेकर जितने भी युद्व हुये उनमें शहीद हुये सभी शहीदों को कोटि कोटि नमन ।
प्रेम कुमार धूमल
पूर्व मुख्यमन्त्री, हिमाचल प्रदेश