शिमला/शैल। 16 नवबर को राष्ट्रीय प्रैस दिवस के रूप में जाना जाता है। इस दिन भारतीय प्रैस परिषद मीडिया से जुड़े किसी मुद्दे को मीडिया के सामने एक खुले चिन्तन और खुली चिन्ता के लिय संप्रेषित करती है। क्योंकि यह दिन और इस दिन चिन्तन के लिये आया विषय मीडिया के लिये अपने भीतर झांकने का विषय होता है। उम्मीद की जाती है कि इस अवसर पर मीडिया से जुड़ा हर कर्मी आत्मचिन्तन करके अपने लिये कुछ मानक तय करेगा। इस दिन निष्पक्षता से हर छोटा-बड़ा व्यक्ति जो अपने को मीडिया कर्मी मानता है इक्कठे बैठकर सामूहिक रूप से खुले मन
इस चिन्तन में रास्ता खोजने का प्रयास क्यों नही होे पाया इस पर बात करने से पहले यह कहना ज्यादा प्रसांगिक होगा कि इस अवसर पर शिमला में ही बैठे सारे मीडिया कर्मी उपस्थित नही रहे। शिमला में प्रदेश विश्वविद्यालय के अतिरिक्त इग्नू एपीजी गोयल विश्वविद्यालय में भी पत्रकारिता का विषय पढाया जा रहा है। यह अच्छा होता कि इन संस्थानों का भी पत्रकारिता विभागों के छात्र इस आयोजन में भाग लें क्योंकि भविष्य में उन्हें इन सवालों का सामना करना है। इसकेे लिये प्रदेश के लोक संपर्क विभाग के साथ मैं प्रैस क्लब के संचालकों से भी यह अपेक्षा करूंगा कि अगले वर्ष यह दोनों मिलकर इस दिन का आयोजन करें और सभी मीडिया कर्मीयों से भी उम्मीद करूंगा कि वह अपने-अपने अहम को छोड़कर इस आयोजन का हिस्सा बने और यह आयोजन पूरे दिन भर का कार्यक्रम रहे। भविष्य की इस कामना के साथ ही मैं इस विषय पर स्वयं क्या सोचता हूं उसे भी अपने सह धर्मीयों और पाठकों के साथ सांझा करना चाहूंगा।
मीडिया पहले विश्वयुद्ध के बाद से पत्रकारिता का पर्याय बन गया है। संप्रेषण का सबसे बड़ा माध्यम माना जाता है। मीडिया/संप्रेषण सूचना और संप्रेषण विचार का समाज और उसकी व्यवस्था में सूचना और विचार दोनों का अपना-अपना अलग महत्व है और दोनों की ही अपनी -अपनी भूमिका है। संभवतः इसी महत्व और भूमिका के कारण ही मीडिया को लोकन्त्र का चैथा खम्बा माना जाता है। समाज में चाहेे लोकतांत्रिक व्यवस्था हो या तानाशाही लेकिन दोनों ही व्यवस्थाओं कार्यपालिका और न्यायापालिका आवश्यक अंग है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्थापिका तीसरे सतम्भ के रूप में जुडती है। हमारे यहां लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत यह यह तीनों अंग मौजूद है और तीनों का अपना-अपना दायित्व है इन तीनों पर नजर रखने के लिये जनता है। इसे जनता के अधिकार हासिल है कि वह पांच साल बाद व्यवस्था को बदल सकती है। जनता बदलाव तब करती है जब उसे लगता है कि उसके द्वारा चुनी हुई व्यवस्थापिका के तहत कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने दायित्वों का ठीक से निर्वहन नही कर रही है। जब ऐसी स्थिति उभरती है तब मीडिया की भूमिका आती है। तब मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह व्यवस्थापिका कार्यपालिका और न्यायपालिका पर एक ऐसे निगरान की भूमिका निभाये जो अपने में पूरी तरह निष्पक्ष भी हो। लेकिन जब व्यवस्थापिका सत्ता के लोभ में कार्यपालिका और न्यायपालिका को प्रभावित करना शुरू कर देती है तब सामाजिक व्यवस्था का सारा सन्तुलन बिगड़ जाता है। जब यह स्थिति पनपती है तब जनता भ्रमित होना शुरू हो जाती है। जिस जनता को इसी पूरी व्यवस्था का मालिक कहा जाता है जिसके सामने सारे तन्त्र की जवाबदेही मानी जाती है। वही जनता इसी व्यवस्था के सामने जब लाचारगी में आ जाती है तब जनता का इस स्थिति से बाहर निकालने की जिम्मेदारी केवल मीडिया के कंधों पर आ जाती है।
यह वह स्थिति होती जब जनता उसे मीडिया द्वारा प्रेषित सारी सूचनाओं और विचारों पर या तो तात्कालिक रूप से एकदम विश्वास कर लेती है और तब उस पर सकारात्मक फैसला लेती है या उस पर विश्वास न करके नकारात्मक फैसला लेती है। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण स्थिति होती है और यहीं पर सत्ता पर काबिज या सत्ता पर कब्जा करने की चाहत वाला चाहे वह एक राजनीतिक दल हो या महज़ एक व्यक्ति वह मीडिया का सहारा लेता है। और यहीं से शुरू होता है मीडिया की विश्वसनीयता का प्रश्न। यदि मीडिया कर्मी ऐसी स्थिति का निष्पक्ष वौद्धिक आंकलन करके अपना पक्ष चुनता है तो उसकी विश्वसनीयता पर किसी भी तरह का संकट नही आता है। तब उस पर फेक न्यूज या पेड न्यूज के आक्षेप नही लगते हैं। लेकिन इसके लिये आवश्यक शर्त यह रहती है कि संबधित विषय पर उसका अध्ययन और जानकारी एकदम ठोस हो। जब ठोस अध्ययन और जानकारी के आधार पर व्यवस्था पर चोट करता है तब उसकी विश्वसनीयता अपने आप स्थापित हो जाती है। अध्ययन और जानकारी का अभाव ही उसे सवालों के घेरे में खडे़ करते है। आज जिस सोशल मीडिया को एक बड़ी चुनौतीे माना जा रहा है विश्वसनीयता का सबसे बड़ा संकट उसी पर है। क्योंकि यह सोशल मीडिया सूचना संवाहक तो बन गया है लेकिन अभी तक विचार का नही बन पाया है। फिर सोशल मीडिया पर आयी जानकारी के स्त्रोत का पता लगाने के लियेे तो कैलिफार्निया का सहयोग चाहिए यह इन चुनावों के दौरान प्रदेश भाजपा द्वारा साईबर एक्ट के तहत दायर एक शिकायत के जवाब में हमारे सामने आ चुका है। सोशल मीडिया पर आयी पोस्ट से भाजपा का जो नुकसान होना था वह तो हो गया और उस पर दर्ज शिकायत पर कारवाई होने तक तो शायद दूसरा चुनाव भी आ जाये। इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस सोशल मीडिया की अपनी प्रमाणिकता पर गंभीर सवाल उठ चुकेे हैं वह मीडिया के लिये चुनौती या संकट नही हो सकता। सोशल मीडिया एक त्वरित प्रचार का माध्यम मात्र है और उसे प्रचार मंच से अधिक मान देने की आवश्यकता नही है। आज जब कोई विचार या सचूना पाठकों के सामनेे दस्तावेजी प्रमाणों के साथ रखी जाती है तब उसकी विश्वसनीयता पर कोई सवाल नही उठ पाते हैं। आज पत्रकार यदि अपनी सूचना पर आश्वस्त हैं तो उस पर कोई संकट नही है। क्योंकि आज पाठक भी पत्रकार पर हर समय उसी तरह नज़र रखे हुए है जिस तरह पत्रकार रखता है। आज यदि पत्रकार की करनी और कथनी में कोई अनतर नही होगा तो समाज हर समय उसके साथ खड़ा नज़र आयेगा। इसलिये जब पत्रकार स्वयं पर विश्वास कर पायेगा तब उसकी विश्वसनीयता को कोई संकट नही है।