Thursday, 18 September 2025
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दलित राजनीति के आईने में राष्ट्रपति का चयन

शिमला/शैल।  देश के राष्ट्रपति के लिये सत्तारूढ़ एनडीए ने बिहार के पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद को तो विपक्ष ने बिहार की ही बेटी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। दोनों ही उम्मीदवार दलित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन रामनाथ कोविंद के नाम पर जिस अन्दाज में केन्द्र सरकार के ही वरिष्ठ मन्त्री और लोजपा के शीर्ष नेता रामविलास पासवान ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे यह चयन दलित राजनीति का केन्द्र बनकर रह गया है। क्योंकि पासवान ने एन डी ए द्वारा रामनाथ कोविंद का नाम पेश किये जाने को उन लोगों के गाल पर तमाचा करार दिया जो भाजपा को दलित विरोधी मानते हैं। पासवान की इसी प्रतिक्रिया का परिणाम है कि विपक्ष ने भी दलित वर्ग से ही कोविंद से भी बड़ा चेहरा उतारने का फैसला लिया और मीरा कुमार के रूप में यह नाम सामने आया है। लेकिन जिस तरह से यह बहस बढ़ाई गयी है उससे यह लगने लगा है कि शायद यह पद इस बार अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित है और यही इस बहस का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है जहां इस सर्वोच्च प्रतिष्ठित पद को भी दलित राजनीति के मानक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
लेकिन इसी बहस से एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या पासवान ने इस बहस को एक मकसद के साथ तो नहीं मोड़ा है इस ओर? क्योंकि पिछले एक लम्बे अरसे से देश के विभिन्न राज्यों से आरक्षण को लेकर आन्दोलन उठे हैं। हार्दिक पटेल से लेकर जाट आन्दोलन तक देश ने देखे हैं। इन आन्दोलनो में या तो इन वर्गों के लिये भी आरक्षण की मांग की गई या फिर सारे आरक्षण को सिरे से समाप्त करने की मांग उठाई गयी है। इस समय अनुसूचित जातियों के लिये 15 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लिये 7.5 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। आजादी के बाद 1957 में काका कालेलकर कमेटी की रिपोर्ट के बाद जब सरकार ने पहली बार अनुसूचित जातियों की सूची प्रकाशित की थी उसमें ऐसी 1100 जातियों का उल्लेख है। इसके बाद 1980 में आयी मण्डल आयोग की रिपोर्ट में 3743 अन्य पिछड़ी जातियों का उल्लेख है जिसके लिये आरक्षण की सिफारिश की गयी थी। अनुसूचित जातियों के लिये पहली बार अंग्रेज शासन के दौरान जब राजा राम मोहन राय और स्वामी विवेकानन्द तथा गांधी जैसे समाज सुधारकों के विचारों से प्रभावित होकर समाज सुधार और दलितोंद्धार राष्ट्रीय आन्दोलन के अंग बन गये। अंग्रेजों ने इस स्थिति को भांपते हुए पूना पैकट के तहत आरक्षण का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया और 1935 के भारत सरकार अधिनियम में अनुसूचित जातियों के लिये प्रांतों की विधान सभाओं के अन्दर 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया। 1935 से शुरू हुआ यह राजनीतिक आरक्षण आज तक चल रहा है। यह राजनीतिक आरक्षण अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये है लेकिन अन्य पिछड़ी जातियों के लिये नही है। काका कालेलकर और फिर मण्डल आयोग की रिपोर्टों के परिणामस्वरूप इनके लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षा के लिये शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया।
संविधान के अनुच्छेद 15, 16, 38, 46, 164, 275, 330, 332, 334, 335, 338, 340, 341, 342 और 366 में सार्वजनिक सेवाओं में अवसर की समानता के साथ-साथ पिछड़े वर्गों के लिये राज्यों की सेवाओं, शैक्षणिक संस्थानों और व्यवस्थापिकाओं में स्थान आरक्षित करने की भी अनुमति दी गयी है। अनुच्छेद 16(4) के मूल प्रारूप में नागरिकों के किसी भी वर्ग के लिये आरक्षण की बात रखी गयी थी। परन्तु डा. अम्बेडकर ने इसके साथ पिछड़ा शब्द जुड़वा दिया ताकि आरक्षण की शर्त और दशा स्पष्ट हो सके। लेकिन मण्डल आयोग की सिफारिशों पर अमल 1989 में वी.पी. सिंह सरकार के समय हुआ। इस अमल का विरोध इतने बड़े स्तर पर हुआ कि यह आन्दोलन हिंसक तक हो गया। कई राज्यों में आन्दोलनकारियों ने आत्मदाह तक किये। इसी आरक्षण विरोधी आन्दोलन के परिणामस्वरूप वी.पी.सिंह की सरकार गयी और सरकार जाने के साथ ही आन्दोलन भी समाप्त हो गया। इस आरक्षण विरोधी आन्दोलन को आर.एस.एस. का संरक्षण और समर्थन प्राप्त था यह जगजाहिर है। इस आन्दोलन के बाद आज तक आरक्षण का विरोध उस तर्ज पर सामने नहीं आया है जबकि आरक्षण की व्यवहारिक स्थिति वैसी ही बनी हुई है। इस समय केन्द्र में भाजपा को अपने दम पर प्रचण्ड बहुमत हासिल है। इस दौरान जहां आरक्षण को लेकर कुछ आन्दोलन सामने आये हैं वहीं पर संघ नेतृत्व की ओर से भी कई ब्यान आ चुके हैं। आरक्षण प्राप्त वर्गों से ‘‘क्रिमी लेयर’’ को बाहर करने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय बहुत पहले दे चुका है परन्तु इस फैसले पर सही अर्थों में अमल नहीं हो पाया है क्योंकि इस लेयर का दायरा हर बार बढ़ा दिया जाता है। आज तक आरक्षण से सम्पन्न हो चुके किसी भी परिवार की ओर से यह सामने नहीं आया है कि उसने अपने को आरक्षण से बाहर कर दिये जाने का आग्रह किया हो। पासवान, मीरा कुमार या कोविंद कोई भी हो सबको चुनाव आरक्षित सीट से ही लड़ना है। राष्ट्रपति को संविधान में इन वर्गों के लिये विशेष अधिकारी का अधिकार भी प्राप्त है और इसी अधिकार के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुए हैं।
इस समय आरक्षण को लेकर जो स्थिति परोक्ष/अपरोक्ष में उभर रही है वह एक बार फिर 1991-1992 जैसे स्वरूप में कब सामने आ जाये इसकी संभावना बराबर बनी हुई है। आज इस संभावित परिदृश्य में राष्ट्रपति की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी यह तय है। ऐसे में आज बहस का रूख इस आकर्षित करने की दिशा में यह प्रयास पाठकों के सामने है।

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