शिमला के उप-नगर संजौली के समिट्री में 20 अक्तूबर 2011 को घरेलू नौकर अमन चौधरी ने 95 साल के एक बुजुर्ग अंबादत्त धांटा को घर में अकेला पाकर उसका कत्ल कर दिया था। हत्या के बाद अमन चौधरी फरार हो गया था। पुलिस ने मामला दर्ज करके उसे बिहार से गिरफ्तार किया अन्ततः अदालत में धारा 302 के तहत चालान दायर कर दिया। चालान अदालत में आने के बाद अमन चैाधरी ने दलील दी कि वह नाबालिग है। इस पर यह मामला हाईकोर्ट आ गया और हाईकोर्ट ने विशेष जज वन को निर्देश दिये कि वह कानून के मुताबिक आरोपी की उम्र तय करे। इस पर विशेष जज ने आईजीएमसी के मैडिकल अधीक्षक को मैडिकल बोर्ड गठित करके आरोपी की उपरोक्त तिथि को उम्र निर्धारित करने के आदेश दिये। मैडिकल बोर्ड ने आरोपी की जांच करके अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी और कहा कि हत्या के दिन आरोपी की उम्र बीस साल से ज्यादा थी। यह रिपोर्ट 21 दिसम्बर 2016 को सौंपी गयी थी। इसके बाद 11 जनवरी 2017 को आरोपी ने व्यक्तिगत तौर पर विशेष जज के पास अर्जी दायर की कि उसकी उम्र का सही-सही पता लगाने के लिये दोबारा पीजीआई से मैडिकल करवाने की अनुमति दी जाये। आरोपी की इस अर्जी को अदालत ने स्वीकार कर लिया। इस अर्जी का सरकारी वकील ने भी विरोध नहीं किया। विशेष जज इस फैसले का हाईकोर्ट के जस्टिस त्रिलोक सिंह चौहान ने कड़ा संज्ञान लेेते हुए इसे प्रथम दृष्टया सही नही पाया। विशेष जज वन ने कैसे यह अर्जी सुन ली जबकि इसमें यह भी जिक्र नही था कि यह किस प्रावधान के तहत दायर की गयी है। उच्च न्यायालय ने कहा है कि सैशन जज की शक्तियां बेलगाम नही है। सीआरपीसी की धारा 482 केे तहत भी असीमित शक्तियां नही है। जस्टिस चौहान ने कहा है कि Therefore in such cricumstances both Learned Session Judge (Forests) Shimla and Public Prosecutor owe an explanation Learned Session Judge( forests) shimla owes a duty explain as to under what authority of law he passed the order dated. 11.1.2017 and at the same time the Public Prosecutor owes a duty to explain as to why he had not opposed such as application.
जस्टिस चौहान ने जिस तरह से विशेष जज वन से जवाब तलब किया है और सरकारी वकील के खिलाफ जांच किये जाने का निर्देश गृह सचिव को दिया है उसे न्याययिक अधिकारियों की न्याययिक जवाब देही तय किये जाने की दिशा मेें एक बड़ा कदम करार दिया जा सकता है। न्यायपालिका की भी जवाबदेही तय होनी चाहिये इसको लेकर एक लम्बे अरसे से बहस चली आ रही हैै। केन्द्र सरकार के पास यह जवाबदेही का विधेयक अभी विचाराधीन चल रहा है। जिस तरह का संज्ञान जस्टिस चौहान ने लिया है। ऐसा कोई प्रावधान आम आदमी के पास नही है। कत्ल हुए अंबादत्त धांटा के परिजन ऐसा कोई आग्रह नही कर सकते थे जबकि इस हत्या से पीड़ित वह है। ऐेसे दर्जनों मामले पाये जा सकते है जहां शक्तियों के अतिक्रमण के कारण इन्साफ न मिल पाया हो और अन्याय को चुपचाप बर्दाश्त कर लिया गया हो।
सामान्यतः निचली अदालत के फैसले को जब ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाती है तो कई बार यह फैसले बरकरार रह जाते है परन्तु कई बार बदल जाते है। लेकिन फैसला बदलने की सूरत में निचली अदालत के जज या मामले की पैरवी कर रहे वकील के खिलाफ कोई कारवाई करने का या उससे जवाब तलब करने को कोई प्रत्यक्ष प्रावधान आम आदमी के पास नही है। जबकि आज न्यायपालिका पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हो गये है ऐसे कई मामले सामने भी आ चुके हैं बल्कि पिछले दिनो अरूणाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री स्व कालिखो पुल के मरने से पहले लिखे गये पत्र के सामने आने के बाद न्यायपालिका को लेकर एक गंभीर बहस ही नही परन्तु उसकी विश्वसनीयता और निष्पक्षता को लेकर भी गंभीर सवाल उठ खड़े हुए है। न्यायपालिका पर से आम आदमी का भरोसा टूटना समाज के लिये बड़ा नुकसान देह होगा। क्योंकि जब न्यायपालिका पर से भरोसा खत्म हो जायेगा तो समाज में अराजकता फैल जायेगी और फिर जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो जायेगी।
इसलिये आज न्यायपालिका को विश्वसनीयता और भरोसे के संकट से उबारने के लिये यदि कहीं से कोई पहल होनी है तो स्वयं न्यायपालिका को ही शुरूआत करनी होगी। इस परिदृश्य में जस्टिस चौहान का विशेष जज से यह जवाब तलब करना कि किस प्रावधान/शक्ति के तहत ऐसा किया गया यह अपने में एक महत्वपूर्ण पहल साबित होगा। इसी साथ जिस सरकारी वकील ने इसका विरोध करने की जगह मौन रहकर इसको स्वीकृति दे दी उसके खिलाफ जांच के आदेश देना पूरी वकील बरादरी को एक बड़ा सन्देश माना जायेगा क्योंकि प्रायः यह देखा जा रहा है कि बरसों तक अदालत में बिना किसी कारवाई के वकील केवल पेशीयां लेकर ही समय निकाल देते है। इस समय इस तरह की प्रवृतियों पर रोक लगाने की आवश्यकता है और वह जस्टिस चैहान जैसे साहसिक फैसलों से ही लगेगी।