Thursday, 18 September 2025
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लालबत्ती से आगे क्या

केन्द्र सरकार ने वीआईपी कल्चर समाप्त करने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय के 2013 में दिये गये फैसले पर अमल करते हुए लालबत्ती के प्रयोग को बन्द करने का फैसला लिया है। मोदी से पहले यह फैसला पंजाब के मुख्यमन्त्री अमरेन्द्र सिंह ने लिया। उसके बाद यू पी में योगी सरकार ने लिया। हिमाचल में परिवहन मन्त्री जी एस बाली ने 15 अप्रैल को हिमाचल दिवस के अवसर पर लालबत्ती त्यागने की घोषणा की। स्वभाविक है कि जब दो मुख्यमन्त्री और एक मन्त्री यह फैसला सार्वजनिक कर चुके थे तो मोदी जैसे व्यक्तित्व को ऐसा फैसला लेना आवश्यक था। हां मोदी के फैसले का पूरे देश पर प्रभाव पडे़गा क्योंकि सबको इस पर अमल करना पडे़गा। इसके लिये मोदी की पीठ थपथपायी जा सकती है।
लेकिन क्या अकेले लालबत्ती का प्रयोग बन्द करने मात्र से ही वीआईपी कल्चर समाप्त हो जायेगा? यह एक बड़ा सवाल है और अब इसके सारे संभव पक्षों पर विस्तार से विचार करने और फैसले लेने का वक्त आ गया है। किसी वाहन पर लालबत्ती लगी होने का अर्थ होता था कि उसे सड़क पर लगे लम्बे जाम मे भी अलग से रास्ता दे दिया जाता था। अब उसे सामान्य रूप से ही जाना होगा। लेकिन वीआईपी गाड़ी से आगे पीछे जो पुलिस की सुरक्षा गाड़ी चला करती थी जिसके कारण उसे अलग से रास्ता दे दिया जाता था यदि वह सुरक्षा गाड़ी अब भी वैसे ही साथ रहती है तो लालबत्ती न होने का कोई ज्यादा लाभ नहीं होगा। गाड़़ी पर लालबत्ती के बाद यह लालबत्ती दफ्रतर के दरवाजे पर भी रहती है। जब तक दरवाजे पर लालबत्ती जल रही है आम आदमी दफतर के भीतर बैठे नेता/मंत्री/ अधिकारी से नहीं मिल सकता। दरअसल वीआईपी कल्चर आज दफतर की प्रशासनिक संस्कृति से निकल कर एक संस्कार बन चुका है और इसका प्रयोग सामान्य नियमों/कानूनों को अगूंठा दिखाने के रूप में किया जाता है। वीआईपी का अर्थ हर समय, हर स्थान पर प्रमुखता मिलना रह गया है। यह प्रमुखता पद से जोड़ दी गयी है और लालबत्ती आदि इसके कुछ प्रत्यक्ष प्रतीक बन चुके हैं जिनका प्रयोग मात्र ही आपकी विशिष्ठता की पहचान बन जाता है और इसी कारण वीआईपी एक रक्षा संस्कार और मानसिकता बन गयी है जिसके कारण वीआईपी और आम आदमी में एक लम्बी दूरी बन गयी है। वीआईपी कल्चर के कारण ही मन्त्री अधिकारी और उनके अधीनस्थ कर्मचारी के आवास में भी दिन रात का अन्तर देखने को मिलता है जबकि आवास परिवार की आवश्यकता के अनुरूप होना चाहिए। इसी तरह वेतन भी आवश्यकता पर आधारित रहना चाहिए। पद की वरियता के कारण इन आवश्यकताओं में दिन रात का अन्तर नहीं रहना चाहिए।
आज जब लालबत्ती का प्रयोग करने की बात हो रही है तो इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि इन वीआईपी लोगों को जो सुरक्षा व्यवस्था प्रदान की गयी है उसकी भी समीक्षा की जानी चाहिए। जब हमारे मन्त्री/अधिकारी अपने को जन सेवक कहते हैं तो उन्हे उसी जनता से खतरा क्यों है। जन सेवक तो जनता के हित के लिये काम करता है तो उसे खतरा तो तभी हो सकता है जब वो आम आदमी के हित में काम नहीं कर रहा है और उसे डर रहता है कि इसका पता आम आदमी को चल जायेगा। जब कानून की नजर में सब बराबर है तो फिर उस पर अमल भी उसी तरह का दिखना चाहिए। आज राज्यों की विधान सभाओं से लेकर संसद तक ऐसे माननीय आ चुके हैं जिन पर गंभीर अपराधिक मामले चल रहें है। कई-कई वर्षो से पहले यह मामले चल रहे है। जेलों में बैठ कर चुनाव लडे़ और जीते जा रहे हैं क्योंकि अदालतों से उनके मामलों के फैसले नही आ रहे है। जन प्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का निपटारा एक वर्ष के भीतर करने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय कब का दे चुका है। आज बाबरी मस्जिद के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को दो वर्षांे के भीतर निपटाने के निर्देश दिये हैं बल्कि सुनवाई करने वाले जज को मामले के बीच तबादला न किया जाये यह भी निर्देश दिया है। क्या ऐसी ही समयबद्धता सभी के मामलों में नही होनी चाहिये? आपराधिक मामलें झेल रहे जिन माननीयों के फैसले सालों तक नही आ रहे है क्या वह सब वीआईपी होने के कारण नही हो रहा है?
आज सर्वोच्च न्यायालय ने आडवानी, जोशी, उमा भारती आदि के खिलाफ बाबरी मामले में आपराधिक साजिश रचने के लिये मामला चलाने के निर्देश दिये हैं लेकिन इस पर उमा भारती और विनय कटियार जैसे नेताओं की प्रतिक्रिया क्या आयी है, क्या इस तरह की प्रतिक्रिया के बाद भी इन लोगों को अपने पदों पर बने रहना चाहिए? क्या यह प्रतिक्रियाएं इनके वीआईपी होने के कारण ही नहीं आ रही है? इसलिये वीआईपी कल्चर को समाप्त करने के लिये लालबत्ती से आगे भी कदम उठाने होंगे। इस संद्धर्भ में केवल मोदी से ही ऐसे कदमों की अपेक्षा है क्योंकि मोदी ही महाजनो मेन गतः स पन्था की कहावत को चरितार्थ कर सकते हैं।

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