शिमला। भ्रष्टाचार सबसे बडी समस्या है और जब यह सत्ता के उच्चतम शिखरों तक पंहुच चुका है तो इससे निपटने के लिये भी दण्ड संहिता के प्रावधानों के अतिरिक्त कुछ और प्रावधान भी चाहिये। इस सत्य और स्थिति को स्वीकारने के बाद लोकायुक्त संस्थानों की स्थापना हुई। मुख्यमन्त्री तक सारे राजनेताओं को इसके दायरे में लाकर खड़ा कर दिया गया। आज देश के कई राज्यों में लोकायुक्त स्थापित है और प्रभावी रूप से अपने दायित्वों को निभा रहे हंै। लेकिन कई राज्यों ऐसे है जहां लोकायुक्त के होने से व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। हिमाचल में लोकायुक्त
लेकिन क्या लोकायुक्त इन अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं? क्या लोकायुक्त ने किसी राजनेता के खिलाफ आयी शिकायत की जांच में कोई निष्पक्ष और प्रभावी परिणाम दिये हंै। जिस संस्थान पर सरकारी कोष से आम आदमी का करोड़ों रूपया खर्च हो रहा उसके बारे में यह सवाल उठाना और इनका जवाब लेना आम आदमी का अधिकार है। प्रदेश के लोकायुक्त अधिनियम को लेकर इन सवालों की पड़ताल से पहले यह जानना भी आवश्यक है कि लोकायुक्त अधिनियम में प्रदत्त स्वास्यताः और स्वतन्त्रता के प्रति राज्य सरकार का व्यवहारिक पक्ष क्या रहा है लोकायुक्त सचिवालय में सारे अधिकारी कर्मचारी सरकार द्वारा तैनात किये जाते हैं और इनमें सरकार लगभग उन लोगों को भेजती हैं जिन्हें एक तरह से साईड लाईन करना होता है। स्टाफ की यही तैनाती लोकायुक्त को पूरी तरह निष्प्रभावी बना कर रख देती है। प्रदेश के लोकायुक्त सचिवालय में आज तक जितनी भी शिकायतें आयी हैं उनमें किसी भी राजनेता के खिलाफ का कभी कोई मामला दर्ज किये जाने और उससे उसे सजा मिलने जैसी स्थिति नही आयी है। प्रदेश के दो मुख्य मन्त्रीयों वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल के खिलाफ लोकायुक्त के पास शिकायतें आयी हैं। वीरभद्र सिंह के खिलाफ वन कटान को लेकर शिकायत आयी थी। इस शिकायत की जांच रिपोर्ट पढ़ने से पूरी रिर्पोट की विश्वनीयता पर स्वतः ही सवाल लग जाता है। क्योंकि रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस स्थान पर अवैध कटान होने का आरोप था उसके निरीक्षण के लिये जब लोकायुक्त गये तो वह उस स्थल तक पहुंच ही नहीं पाये। बहुत दूर से दूरबीन के साथ स्थल का निरीक्षण किया गया। इस निरीक्षण में कहा गया है कि उस स्थल पर कुछ झाडियां देखी गयी जिनसे उस स्थान पर बडे़ पेड़ांे के होने की संभावना हो ही नही सकती इस निरीक्षण के लिये पुलिस और वन विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों को स्थल पर जाकर देखने के लिये भेजा गया लोकायुक्त की इस रिपोर्ट से मामले में क्लीन चिट मिल गया था और इसको लेकर उस समय भी सवाल उठे थे।
प्रेम कुमार धूमल के खिलाफ आय से अधिक संपति की शिकायत पुलिस के ए डी जी पी स्व. बी एस थिंड ने की थी। थिंड ने अपने शपथ पत्र के साथ काफी दस्तावेजी प्रमाण भी लगाये थे। लेकिन लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में पहले तो यह कहा है कि यह शिकायतें पंाच वर्ष की समयावधि से पहले की है इसलिये उसके अधिकार क्षेत्र में नही आती हंै। फिर आगे इसी रिपोर्ट में यह भी कह दिया कि इस दौरान धूमल ने ज्यादा कमाया होगा और ज्यादा बचाया होगा इसलिये इसमें कुछ भी आपतिजनक नही है। यह रिपोर्ट भी थिंड की मौत के बाद सामने आयी है और इसे क्लीन चिट करार दिया गया है। जबकि यदि यह शिकायत अधिकार क्षेत्र से बाहर भी थी तो फिर इसमें ज्यादा कमाने और ज्यादा बचाने का उल्लेख क्यों और कैसे? इस तरह वीरभद्र और धूमल दोनों को लेकर लोकायुक्त की जो रिपोर्टें आयी हैं उनकी विश्वसनीयता पर स्वतः ही सवाल खडे़ हो जाते हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ खडे़ किये गये इस अदारे की प्रसांगिकता पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह रिपोर्ट आम आदमी के सामने पूरी तरह से नही आ पायी है। लेकिन इन रिपोर्टो की व्यवहारिकता पर एक सर्वाजनिक बहस बहुत आवश्यक है यदि बड़े स्तर पर पनप रहे बड़े भ्रष्टाचार पर रोक लगानी है। यदि लोकायुक्तों की कार्य प्रणाली ऐसी ही रहनी है तो ऐसी व्यवस्था पर आम आदमी का करोड़ो रूपया खर्च करने का औचित्य क्या है? उम्मीद है कि पाठक इस पर गंभीरता से मंथन करके कुछ नया करने और सोचने की ओर बढेगें।