चुनाव आयोग की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर जिस तरह के प्रमाणिक आरोप राहुल गांधी अपनी पत्रकार वार्ताओं पर लगाते जा रहे हैं और इन आरोपों की विधिवत जांच करवाये जाने की बजाये जिस तरह का रुख चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार इस मुद्दे पर अपनाती जा रही है वह अब चिंताजनक होता जा रहा है। क्योंकि चुनाव आयोग के रुख के बाद जब यह मुद्दा सर्वाेच्च न्यायालय में इस मांग के साथ पहुंचा कि राहुल गांधी के आरोपों की जांच के लिये एक एसआईटी गठित की जाये और शीर्ष अदालत ने इस मांग को अस्वीकारते हुये इसे आयोग के समक्ष ही उठाने का निर्देश दिया तब केन्द्र सरकार चुनाव आयोग और सर्वाेच्च न्यायालय सब एक साथ सवालों के दायरे में आ जाते हैं। क्योंकि देश में लोकतांत्रिक सरकार के गठन की जिम्मेदारी निष्पक्ष चुनाव के माध्यम से चुनाव आयोग को सौंपी गयी है। चुनाव आयोग का गठन एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था के रूप में संविधान के प्रावधानों के तहत किया गया है। चुनाव के दौरान सारा प्रशासनिक तंत्र चुनाव आयोग को जवाब देह होता है। सरकार चुनाव आयोग को हर तरह से सहयोग करने के लिये बाध्य होती है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्था के होते हुये भी यदि चुनाव आयोग पर वोट चोरी के आरोप लग जायें और सर्वाेच्च न्यायालय भी इसकी निष्पक्ष जांच करवाये जाने से पीछे हट जाये तो यह स्वीकारना ही होगा कि देश किसी अप्रत्याशित की ओर बढ़ता जा रहा है। वोट चोरी के आरोप जिस तरह के दस्तावेजी प्रमाणों के साथ लगाये जा रहे हैं उन पर देश का बहुसंख्यक वर्ग विश्वास करता जा रहा है। क्योंकि केन्द्र सरकार इस मुद्दे पर जिस तरह से पीछे हट गयी है उससे यह स्पष्ट संदेश गया है कि यह वोट चोरी सत्तारूढ़ सरकार के लिये ही की जा रही है। इसका सबसे निराशाजनक पक्ष तो यह है कि शीर्ष अदालत भी अपरोक्ष में संविधान की रक्षक होने की बजाये सरकार की रक्षक होती जा रही है। ऐसे में जब केन्द्र सरकार चुनाव आयोग और देश का सर्वाेच्च न्यायालय भी एक ही स्वर में गायन करना शुरू कर दे तो आम आदमी कहां और किसके पास जाये यह बड़ा सवाल हो जाता है। आज जो स्थितियां निर्मित होती जा रही हैं उनमें अनायास ही आम आदमी पिछले ग्यारह वर्षों में जो कुछ घटा है उस पर नजर दौड़ना शुरू कर देता है। आम आदमी के सामने जब यह आता है कि जिस भी दल के किसी भी नेता पर अपराध और भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उसने अपने दल को छोड़कर भाजपा में शरण ले ली तो उसके खिलाफ सारी जांच बन्द हो गयी। आज भाजपा में दूसरे दलों से आये नेताओं की संख्या मूल भाजपाइयों से ज्यादा बढ़ गयी है। आज भाजपा का राजनीतिक चरित्र सत्ता में बने रहने के लिये कुछ भी करने वालों की श्रेणी में आ गया है। भाजपा के इस सता मोह ने भाजपा को अपने ही आकलन में बहुत नीचे ला खड़ा कर दिया है। जिस पच्चहतर वर्ष की आयु सीमा के स्वघोषित सिद्धांत से लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा आदि को मार्गदर्शक मण्डल में भेज दिया गया था वह नियम आज अपने लिये अप्रसांगिक हो गया है। जिस तरह की परिस्थितियों निर्मित होती जा रही है उससे हर चुनाव में किया गया वायदा अब जवाब मांगने लग गया है। हर एक के खाते में पन्द्रह लाख आने, हर साल दो करोड़ नौकरियां उपलब्ध करवाने का वायदा हर जुबान पर आ गया है। महंगाई पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ गयी है। रुपया डॉलर के मुकाबले सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। जो लोग बैंकों का हजारों करोड़ लेकर विदेश भाग गये थे उनमें से एक भी आज तक वापस नहीं आया है। किसानों की आय दोगुनी नहीं हो पायी है। सबका साथ सबका विश्वास और सबका विकास के नाम पर देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या मुस्लमानों में से भाजपा के कितने सांसद और विधायक हैं? क्या इसका जवाब आ पायेगा। कोविड काल में जो संविधान डॉ.भागवत के नाम से वायरल हुआ था उसमें महिलाओं और अनुसूचित जातियों के लोगों को किस तरह के अधिकार दिये गये थे उसकी झलक देश के मुख्य न्यायाधीश पर भरी अदालत में जूता उछाले जाने से सामने आ चुकी है। आज पूरा दलित समाज इस पर चर्चाओं में जुट गया है। यह जूता कांड देश के दूसरे भागों में भी फैलने लग गया है। क्योंकि इसकी निंदा करने की बजाये जिस तरह से इसे जायज ठहराया जा रहा है वह अपने में चिंता जनक है। कुल मिलाकर देश में बड़े स्तर पर अराजकता का वातावरण पैदा किया जा रहा है जिसके परिणाम घातक होंगे। वोट चोरी के आरोपों की जांच निश्चित रूप से होनी चाहिये। इस जांच से बचने का जितना प्रयास किया जायेगा वह घातक होगा। इससे अराजकता ही फैलेगी।