Thursday, 18 September 2025
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"एक देश एक चुनाव" की अभी वकालत के मायने

इन दिनों भाजपा का प्रदेश नेतृत्व जिस तर्ज पर एक देश एक चुनाव की वकालत करने लग गया है उससे हर आदमी का ध्यान इस ओर जाना स्वभाविक है। क्योंकि एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर विचार करके अपनी रिपोर्ट देना के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में केंद्र सरकार ने 2 सितम्बर 2023 को एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने 191 दिनों के बाद 14 मार्च 2024 को 18626 पन्नों की रिपोर्ट सौंप दी थी। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस रिपोर्ट को अपनी स्वीकृति देकर लोकसभा में पेश कर दिया था। लोकसभा में इसे संयुक्त संसदीय दल को सौंप दिया गया था। अभी यह रिपोर्ट संसदीय दल से वापस नहीं आयी है। संभव है कि संयुक्त संसदीय दल इस पर विचार करने के लिये और समय की मांग करें। जब तक संसदीय दल की रिपोर्ट नहीं आ जाती है तब तक यह मुद्दा आगे नहीं बढ़ेगा। फिर एक देश एक चुनाव लागू करने से पहले जनगणना किया जाना आवश्यक है और अभी तक इस दिशा में कोई व्यवहारिक कदम नहीं उठाये गये हैं। अभी महिलाओं को जो आरक्षण संसद और राज्य विधान सभाओं में देने का विधेयक पास हो रखा है उसे कब से लागू किया जाना है उसकी तारीख अभी तक घोषित नहीं हो पायी है। ऐसे में एक देश एक चुनाव के लिये अभी समय लगेगा यह तय है। लेकिन जिस तर्ज पर राज्य भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इसके लिये अभी से जमीन तैयार करने में लग गया है वह केंद्रीय निर्देशों के बिना संभव नहीं हो सकता।
इस पृष्ठभूमि में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस समय इस मुद्दे को क्यों परोसा जा रहा है। अभी लोकसभा का अगला चुनाव तो 2029 में होना है। 2029 के चुनाव में भी इसे लागू करने के लिये संविधान की धारा 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करने पड़ेंगे। दो तिहाई राज्य विधान सभाओं से इसे पारित करवाना पड़ेगा। कोविन्द कमेटी ने इस पर राज्यों से कोई विचार विमर्श नहीं किया है। सारे राजनीतिक दलों ने इस पर अपनी राय व्यक्त नहीं की है। एक देश एक चुनाव के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही है कि इससे चुनावों पर होने वाले खर्च में कमी आयेगी। खर्च के साथ ही अन्य संसाधनों में भी बचत होगी। लेकिन क्या संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करवाने से चुनावों की निष्पक्षता पर उठने वाले सवाल स्वतः ही शान्त हो जायेंगे। इस समय चुनावों की निष्पक्षता पर उठते सवालों पर चुनाव आयोग से लेकर शीर्ष अदालत तक घेरे में आती जा रही है। आज आवश्यकता चुनावों पर विश्वसनीयता बढ़ाने की है जो हर चुनाव के बाद घटती जा रही है। वर्तमान चुनाव व्यवस्था पर लगातार विश्वास कम होता जा रहा है। इसी विश्वास घटने का परिणाम है कि 2019 के चुनावों में 303 का आंकड़ा पाने वाली भाजपा इस बार 240 से आगे नहीं बढ़ पायी है। क्योंकि भाजपा की राजनीतिक विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
विश्व गुरु होने का दावा करने वाले देश के साथ इन दिनों जिस तरह का व्यवहार अमेरिका का ट्रंप प्रशासन कर रहा है उससे प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। एक समय अबकी बार ट्रंप सरकार का आहवान कर चुके मोदी को इस बार ट्रंप के शपथ समारोह में शामिल होने के लिये आमंत्रण न मिल पाना पहला सवाल है। दूसरा सवाल अवैध अप्रवासी भारतीयों को हथकड़ियां और बेड़ियां पहना कर अमेरिका से भेजा गया। भारत इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्ज करवा पाया है। तीसरा सवाल यू एस एड के तहत करीब 182 करोड रूपये मिलने को लेकर आये खुलासे हैं। इसी कड़ी में जब नरेंद्र मोदी का यह वक्तव्य सामने आया कि उन्होंने 1994 तक अमेरिका के 29 राज्यों का दौरा कर लिया था जब वह एक सामान्य नेता भी नहीं थे। इस खुलासे से उनके चाय बेचने और अपना गुजारा चलाने के लिये और कुछ करने के दावों पर प्रश्न उठ गये हैं। यह सारे प्रश्न आने वाले समय में और गंभीर तथा विस्तार लेकर सामने आयेंगे। क्योंकि यह सवाल उठने लग गया है कि मोदी सरकार द्वारा लिया गया हर फैसला परोक्ष/अपरोक्ष में अमेरिकी हितों के बढ़ाने वाला रहा है। जिससे कालान्तर में देश अमेरिका की आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ेगा। जैसे-जैसे यह सवाल बढ़ेंगे उसी अनुपात में भाजपा और मोदी की विश्वसनीयता कम होती जायेगी। इस स्थिति से बचने के लिये देश में भाजपा और मोदी के विकल्प पर बहस उठने से पहले ही देश में कुछ ऐसे मुद्दे खड़े कर दिये जायें जहां उनके विकल्प पर ही एक राय न बन सके।

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