Friday, 19 September 2025
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हर विरोध राष्ट्रद्रोह नहीं होता

 

नागरिकता संशोधन अधिनियम पर उभरा विरोध लगातार बढ़ता जा रहा है और गृहमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि कोई चाहे कितना भी विरोध कर ले परन्तु यह अधिनियम वापिस नही होगा। गृहमन्त्री के ब्यान से यह विरोध सरकार बनाम जनता की शक्ल लेता नजर आ रहा है क्योंकि शाहीनबाग में विरोध में धरना प्रदर्शन पर बैठी महिलाओं से संवाद का रास्ता अपनाने की बजाये इन्हे अपमानित करने की नीति अपनाई जाने लगी है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ से लेकर नीचे भाजपा के सोशल मीडिया सैल तक के ब्यानों और पोस्टों से यह स्पष्ट हो जाता है। ऐसे में यह समझना बहुत आवश्यक हो जाता है कि यदि यह अधिनियम लागू हो जाता है तो इसका परिणाम क्या होगा। अधिनियम के मुताबिक 31 दिसम्बर 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से वैध/अवैध रूप से भारत आये हिन्दुओं, सिखों, बौद्ध, ईसाई, पारसी तथा जैन लोगों को यहां की नागरिकता प्रदान कर दी जायेगी। संसद में आये आंकड़ो के मुताबिक ऐसे आये कुल 31 हजार लोगों ने ही ऐसी नागरिकता के लिये आवदेन कर रखा है। यदि  सही में यह आंकड़ा 31-32 हजार तक ही सीमित रहता है तो 120 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में इससे कोई बड़ा अन्तर नहीं पड़ेगा और तब यह विरोध कोई अर्थ नही रखता।
लेकिन क्या सही में इतनी सी ही बात है? नहीं यह सब कुछ इससे कहीं ज्यादा बड़ा है। यह मसला असम में एनआरसी लागू होने से शुरू हुआ। असम में 1971 में पाकिस्तान विभाजन से बने बंग्लादेश से लाखों की संख्या में आये बंगलादेशी शरणार्थीयों से शुरू होता है। क्योंकि बहुत सारे लोग वापिस बंगलादेश जाने की बजाये यहीं रह गये थे। इन लोगों के यहीं रह जाने से असम के मूल लोग प्रभावित हुए और इन लोगों को वापिस बंगलादेश भेजने के लिये असम के युवाओं और छात्रों ने बड़ा आन्दोलन किया। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन केन्द्र सरकार ने इन आन्दोलनरत छात्रों के साथ समझौता किया कि 24 मार्च 1971 के बाद आये बंगलादेशीयों को वापिस भेजा जायेगा। असम गण परिषद की सरकार इसी आन्दोलन के परिणामस्वरूप बनी थी। इस समझौते को लागू करवाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका तक दायर हुई। इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने असम में ऐसे लोगों की सूची तैयार करने के निर्देश दिये। इन निर्देशों पर अमल करते हुए जो सूची तैयार की गयी उसमें करीब 20 लाख लोग गैर नागरिक पाये गये। असम में जब एनआरसी की यह प्रक्रिया चल रही थी तभी गृहमन्त्री ने संसद में यह कह दिया कि एनआरसी पूरे देश में लागू होगा। असम मे जो बीस लाख लोग गैर नागरिकों की सूची में आये उनमें ज्यादा जनसंख्या हिन्दुओं की है। हिन्दुओं की संख्या ज्यादा होने और एनआरसी के विरोध के चलते असम के सवाल को यहीं पर खड़ा कर दिया गया है।
असम की समस्या का कोई हल निकालने के स्थान पर नागरिकता संशोधन अधिनियम ला दिया गया और इसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बंगलादेश से आये गैर मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान कर दिया गया। इस नागरिकता के लिये आधार तैयार करने का काम एनपीआर से शुरू कर दिया गया। एनपीआर हर उस व्यक्ति की गणना करेगा जो किसी स्थान पर छः माह  से रह रहा है या रहना चाह रहा है। यह जनसंख्या का रजिस्टर है नागरिकों का नहीं। इसमें हर व्यक्ति गिनती में आयेगा चाहे वह नागरिक है या नही। जो व्यक्ति यहां का नागरिक है उसे अपनी नागरिकता के प्रमाण में दस्तावेज देने होंगे। उसे अपने पैरेन्टस और ग्रैन्ड पैरेन्टस का प्रमाण देना होगा। इसमें गलत सूचना देने पर दण्ड का भी प्रावधान है। यह भी प्रावधान है कि कोई भी आपके ऊपर सन्देह जता सकता है। सन्देह जताने से आप सन्देहशील की सूची में आ जायेंगे। इस सूची में आने से ही समस्याएं खड़ी हो जायेंगी। एनपीआर पर कारवाई शुरू हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय में नागरिकता संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान यह सामने आ चुका है कि उत्तर प्रदेश के उन्नीस जिलों में एनपीआर में 49 लाख सन्देहशील श्रेणी में आ गये हैं। ममता बैनर्जी के अनुसार चैदह लाख दार्जलिंग में प्रभावित हो रहे हैं। इस तरह यह माना जा रहा है कि एनपीआर के माध्यम से करोड़ों लोग सन्देहशील नागरिकों की श्रेणी में आ जायेंगे। अब देखना यह है कि इसमें किस समुदाय के कितने लोग आते हैं और उनकी आर्थिक स्थिति क्या होती है। एनपीआर में आने वाले लोग डाटा के आधार पर ही एनआरसी और नागरिकता संशोधन का काम आगे बढ़ेगा।
 सरकार को संसद में मिले प्रचण्ड बहुमत के आधार पर अपने ऐजैण्डे को आगे बढ़ा रही और उसका ऐजैण्डा भारत को भी धर्म के आधार पर हिन्दु राष्ट्र बनाने का है यह हर रोज सार्वजनिक होता जा रहा है। धर्म की मादकता के आगे तर्क गौण हो चुका है। आज देश लोकतन्त्र के हर स्थापित मानक पर नीचे आता जा रहा है। विश्व समुदाय की नजर मे भारत की साख लगातार गिरती जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय भी महत्वपूर्ण सवालों को लंबित रखने की नीति पर चल रहा है। जम्मू कश्मीर पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है लेकिन वहां के तीनों पूर्व मुख्यमन्त्री अभी तक नजऱबन्द चल रहे हैं। देश के मीडिया का सच कोबरा पोस्ट के स्टिंग आप्रेशन के माध्यम से सामने आ चुका है। जिसमें तीन दर्जन से अधिक बड़े मीडिया संस्थान कैसे बिकने को तैयार और किस हद तक विपक्ष के बडे नेताओं का सुनियोजित चरित्र हनन करने पर सहमत हो जाते हैं इससे देश की स्थिति का पता चल जाता है। आर्थिक तौर पर देश कितना कमजोर हो चुका है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार फिर आरबीआई से पैसे की मांग कर रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि  क्या एनआरसी, एनपीआर और नागरिकता संशोधन पर टकराव बढ़ा कर आर्थिक असफलता को लम्बे अरसे तक छुपाया जा सकेगा? शायद नही। हर विरोध को राष्ट्रद्रोह कहकर चुप नही कराया जा सकता। आज टुकड़े-टुकड़े गैंग के सवाल पर आरटीआई में सूचना के बाद प्रधानमन्त्री और गृहमंत्री का कद बहुत छोटा हो गया है।

 

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