Friday, 19 September 2025
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राजनीति के बाद पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के संकट में

क्या आज की पत्रकारिता विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही है। यह सवाल राष्ट्रीय प्रैस दिवस के अवसर पर सूचना एवम् जन संपर्क विभाग हिमाचल सरकार द्वारा इस संद्धर्भ में आयोजित एक कार्यक्रम संबोधित करते हुए मुख्यमन्त्री जयराम के संबोधन से उभरा है। मुख्यमन्त्री ने अपने संबोधन में यह स्वीकारा कि आज की राजनीति अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। इस स्वीकार के साथ ही मुख्यमन्त्री ने उसी स्पष्टता के साथ ही पत्रकारों और पत्रकारिता को भी यह नसीहत दी कि वह तो अपनी विश्वसनीयता बचाये रखने का प्रयास करें। मुख्यमन्त्री पिछले पच्चीस वर्षों से सक्रिय राजनीति में है इसलिये उनके इस कथन को एक ईमानदार स्वीकारोक्ति के साथ ही गंभीरता से लेना होगा। राजनीति और पत्रकारिता सामाजिक संद्धर्भों में एक दूसरे के पूरक हैं और इसी नाते एक -दूसरे के ह्रास के लिये भी बराबर के जिम्मेदार हैं। यह सही है कि आज की राजनीति पर ‘‘धूर्तता का अन्तिम पड़ाव’’ होने की कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है और इसी का परिणाम है कि संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक में अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर राजनीतिक दल अपराधियों को ‘‘माननीयों’’ बनवाने में बराबर का भागीदार है। एक तरफ यह भागीदारी हर चुनाव के बाद बढ़ रही है तो दूसरी ओर हर दल अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जीरो टालरैन्स की प्रतिबद्धता भी लगातार दोहराता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी 2014 में यह घोषणा की थी कि वह संसद को अपराधियों से मुक्ति दिलायेंगें प्रधानमंत्री के इस दावे को सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह आदेष पारित करके अपना समर्थन दिया था कि  ‘‘माननीया के मामलों का एक वर्ष के भीतर निपटारा किया जाये’’। लेकिन प्रधान और सर्वोच्च  न्यायालय दोनो ही इस संद्धर्भ में पूरी तरह असफल हुए हैं। जब जब यह सब व्यवहारिक रूप में सामने आयेगा तो हर संवदेनशील ईमानदार व्यक्ति को यह कहना और मानना ही पड़ेगा कि सही में राजनीति अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है।
 अब पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के इसी संकट से गुजर रही है। पत्रकारिता के इस संकट का सबसे बड़ा कारण यह है कि आज अधिकांश समाचार पत्र और न्यूज चैनल अंबानी -अदानी जैसे बड़े उद्योग घरानों की मलकीयत हो गये हैं। पत्रकार इनका नौकर होकर रह गया है क्योंकि उसे मालिक की नीयत और नीति दोनो की ही अनुपालना करने की बाध्यता हो जाती है। और उद्योग के हित सीधे सरकार से जुड़े ही नहीं बल्कि पोषित होते हैं। उद्योग घरानों को सरकार से अपना एनपीए खत्म करवाना होता है। अपनी ईच्छानुसार अपनी कंपनी को दिवालिया घोषित करवाना होता है। पत्रकार यह सब जानकारी रखते हुए इसे मालिक हित में जनता के साथ सांझी नही कर पाता है। यहीं से उसकी विश्वसनीयता का संकट शुरू हो जाता है क्योंकि यदि वह मालिक सरकार और नौकरशाह के नापाक गठजोड़ को जनता के सामने रखने का साहस दिखाता है तो इसके लिये उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। सरकारें भी ऐसे कड़वे सच को स्वीकारने का साहस नही रखती है बल्कि उनका अपना दमनचक्र शुरू हो जाता है। ऐसे में पत्रकार के पास अपनी दशा-दिशा पर चिन्तन मनन करने का अवसर ही नही रह जाता है। इस तरह के चिन्तन मनन का अवसर प्रैस दिवस के माध्यम से मिलता था।  लेकिन आज जब प्रैस दिवस पर इस चिन्तन मनन के स्थान पर क्रिकेट मैच पत्रकारों की प्राथमिकता हो जायेगा तब यह प्रैस दिवस न होकर प्रैसरात्रि बन जायेगी।   
 क्योंकि आज की पत्रकारिता का यह सरोकार ही नही रह गया है कि ‘‘गर तोप मुकाबिल होतो अखबार निकालो’’ राष्ट्रीय प्रैस दिवस का आयोजन राष्ट्रीय प्रैस परिषद राज्य सरकारों के सहयोग से करवाती है और प्रैस की आज़ादी सुनिश्चित करना उसका दायित्व रहता है। लेकिन क्या प्रैस परिषद यह दायित्व निभा पा रही है। अभी जब जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाई गयी और मीडिया पर भी कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये तब इन प्रतिबन्धों को कश्मीर टाईमज़ ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। कश्मीर टाईमज़ की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रैस परिषद से भी जवाब मांगा था। प्रैस परिषद ने अपने जवाब में इन प्रतिबन्धों को जायज़ ठहराया। इस पर जब हंगामा हुआ तब परिषद ने अपना स्टैंड बदला इसी के बाद उत्तर प्रदेश में कुछ घटनाएं सामने आयी जहां पुलिस ने पत्रकारों के खिलाफ कारवाई करते हुए गिरफ्तारीयां तक की। यह मामले भी शीर्ष अदालत तक पहुंचे। हिमाचल में भी कुछ मामले नालागढ आदि में सामने आये थे जहां पुलिस ने कारवाई की थी और उसके खिलाफ प्रदर्शन हुए। इसी कड़ी में हिमाचल का वह मामला जिसमें सोशल मीडिया में किसी गुमनाम कार्यकर्ता का पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार के नाम लिखा पत्र जब वायरल हुआ तब उस पत्र में लगाये गये आरोपों की कोई प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष जांच करवाये बिना ही उसमें पुलिस कारवाई को अजांम दे दिया गया और अभी तक यह जांच चल रही है।
यह सारे मामले ऐसे हैं जहां सरकार और पत्रकार/पत्रकारिता का सीधा रिश्ता संद्धर्भ मे आता है। सरकार और जनता के बीच संबंध और संवाद की भूमिका अदा करता है पत्रकार। कुछ हद तक यही भूमिका सरकार का गुप्तचर विभाग भी अदा करता है। दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि गुप्तचर अपनी सारी जानकारी फाईल में बन्द करके सरकार के सामने रखता है जबकि पत्रकार उसी जानकारी को जनता के सामने रखता है। जब जनता में सीधे रखी गयी जानकारी सरकारी दावों और वायदो से हटकर होती है तो उस पत्रकार को सरकार का विरोधी करार दे दिया जाता है उसकी बेबाक आवाज को दबाने का प्रयास किया जाता है और यहीं से विश्वसनीयता का सरोकार खड़ा हो जाता है। अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनावों में जीत के जो दावे और आंकड़े सत्तापक्ष जनता में रख रहा था उन्हीं आंकडा़े और दावों पर ही मीडिया अपनी मोहर लगाता जा रहा था लेकिन जब चुनाव के परिणाम सामने आये तो यह आंकड़े और दावे सभी हवा-हवाई सिद्ध हुए। इन अनुमानों का गलत साबित होना राजनीतिक दलों से ज्यादा मीडिया की साख पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता अपने आप सवालों में आ जाती है।
आज की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में राजनीति के बाद न्यायपालिका और पत्रकारिता की विश्वसनीता पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गये हैं। यही आने वाले समय का सबसे बड़ा संकट होने वाला है। ऐसे समय में एक मुख्यमन्त्री का बेबाक स्वीकार अपने में प्रशंसनीय है। लेकिन इसी के साथ मुख्यमन्त्री से ही यह उम्मीद भी की जानी चाहिये कि वह अपने राज्य में तो राजनीति और पत्रकारिता दोनों की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिये ईमानदारी से प्रयास करेंगे।

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