क्या सरकार की साख नयी कार्यकारिणी के गठन में समस्या है?
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Created on Tuesday, 13 May 2025 16:46
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Written by Shail Samachar
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस ब्लॉक स्तर से लेकर प्रदेश तक की कार्यकारिणीयां पिछले नवम्बर से भंग है। केवल प्रदेश अध्यक्षा ही सारा काम देख रही हैं। कार्यकारिणीयां भंग करने के लिये तर्क दिया गया था कि निष्क्रिय पदाधिकारीयों के स्थान पर सक्रिय कार्यकर्ताओं को पदभार दिये जाएंगे। फिर सक्रिय कार्यकर्ताओं का पता लगाने के लिये हाईकमान द्वारा पर्यवेक्षकों की टीम भेजी गयी थी। इस टीम की रिपोर्ट गये हुये भी काफी समय हो गया है। इसी बीच प्रदेश प्रभारी को भी बदल दिया गया। अब प्रदेश अध्यक्षा का भी कार्यकाल पूरा हो गया है और उनके स्थान पर नया अध्यक्ष बनाने की भी चर्चाएं चल पड़ी हैं। यह कहा जा रहा है कि नया अध्यक्ष प्रदेश के जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुये अनुसूचित जाति के किसी विधायक को बनाया जा सकता है। लेकिन जिस तरह की वस्तुस्थिति प्रदेश सरकार की चल रही है उसको सामने रखते हुये यह नहीं लगता कि संगठन की कार्यकारिणीयां बनाना इतना आसान होगा। क्योंकि पिछले दिनों जिस तरह से उपमुख्यमंत्री की सोशल मीडिया पर डाली गयी पोस्ट और उसका लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह द्वारा समर्थन किया जाना सामने आया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार और संगठन में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद जो कुछ घटा है उसका यदि संज्ञान किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार और संगठन में कोई तालमेल नहीं बैठ पाया है। यह एक स्थापित सत्य है कि कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों में सरकार बनने के बाद संगठन का स्थान दूसरे दर्जे पर आ जाता है क्योंकि संगठन का सरकार पर कोई दबाव नहीं रह जाता है। प्रदेश में कांग्रेस का संगठन इसी नीयत और नीति का शिकार रहा है। क्योंकि सरकार व्यवस्था परिवर्तन के ऐसे अपरिभाषित सूत्र को अपना नीति वाक्य बनाकर चली जिसमें सरकार में भी धीरे-धीरे सारा कुछ मुख्यमंत्री में ही केंद्रित होकर रह गया। इसका परिणाम यह हुआ कि मुख्यमंत्री पर शीर्ष अफसरशाही का एक सीमित सा वर्ग हावी होकर रह गया। परिणामस्वरूप प्रशासन में शीर्ष से लेकर नीचे तक अधिकारी-कर्मचारी अपने-अपने स्थानों पर यथास्थिति बने रहंे जिनकी कारगुजारियों से भाजपा चुनाव हारी थी। इससे फील्ड में बैठा हुआ कांग्रेस का कार्यकर्ता और दूसरा समर्थक अपने को पार्टी और सरकार से जोड़ने की बजाये पहले तो तटस्थ रहा और फिर धीरे-धीरे छिटककर किनारे बैठ गया। कार्यकर्ताओं को सरकार में समायोजित करने के सारे प्रयास जब असफल हो गये तो पार्टी के छः विधायकों को संगठन से बाहर जाने पर विवश होना पड़ा। इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल पूरी तरह से टूट गया। दूसरी ओर सरकार ऐसे अन्तःविरोधी फैसले लेते चली गयी जिससे सरकार की अपनी साख गिरनी शुरू हो गयी। प्रदेश की कठिन वित्तीय स्थिति पर प्रदेश को श्रीलंका जैसे हालात हो जाने की चेतावनी देते हुये स्वयं अपने खर्चों पर कंट्रोल करना भूल गयी। मुख्यमंत्री अपने मित्रों को सरकार में स्थापित करने में इस हद तक चले गये कि मित्रों की सरकार होने का तमगा ले बैठे। वितीय संकट के कारण आज सभी वर्गों को एक साथ वेतन और पैन्शन नहीं मिल पा रही है। जो गारंटियां चुनाव के दौरान जनता को देकर आये थे उन पर अमल भाषणों में ही है जमीन पर नहीं। राजस्व बढ़ाने के लिये प्रदेश के हर वर्ग पर परोक्ष/अपरोक्ष इतना टैक्स भार लाद दिया है कि आम आदमी परेशान हो उठा है। सरकार से आम आदमी कितना खुश है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री को अपनी धर्मपत्नी को विधानसभा का उपचुनाव जितवाने के लिये कांगड़ा सहकारी बैंक और जिला समाज कल्याण अधिकारी के माध्यम से 78 लाख कैश चुनाव क्षेत्र में चुनाव आचार संहिता के दौरान बंटवाना पड़ा है। ऐसे में आगे आने वाले विधानसभा चुनावों में कितने चुनाव क्षेत्रों में ऐसे पैसा बांटा जा सकेगा? जिस कार्यकर्ता के सामने सरकार की इस तरह की कारगुजारी होगी वह क्या कह कर सरकार और संगठन की जनता में वकालत कर पायेगा? इस समय सरकार अपने फैसलों के लिये जरूरत से ज्यादा विवादित हो गयी है। रेरा में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियां और उपभोक्ता संरक्षण परिषद की प्रस्तावित नियुक्तियां बहुत अरसे से प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित हो चुकी है लेकिन सरकार ने उन्हें अधिमान नहीं दिया है। एक तरह से न्यायालय की निष्पक्षता पर यह स्थिति अपरोक्ष में प्रश्न चिन्ह लगाने वाली हो जाती है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। कुल मिलाकर सरकार किसी एक मानक पर भी खरी नहीं उतर रही है। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि हिमाचल सरकार के फैसले राष्ट्रीय स्तर पर समस्याएं पैदा करेंगे। इस वस्तुस्थिति में संगठन के लिये नया अध्यक्ष और कार्यकारिणी का चयन एक चुनौती बनता जा रहा है।
क्या सरकार की साख नयी कार्यकारिणी के गठन में समस्या है?
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस ब्लॉक स्तर से लेकर प्रदेश तक की कार्यकारिणीयां पिछले नवम्बर से भंग है। केवल प्रदेश अध्यक्षा ही सारा काम देख रही हैं। कार्यकारिणीयां भंग करने के लिये तर्क दिया गया था कि निष्क्रिय पदाधिकारीयों के स्थान पर सक्रिय कार्यकर्ताओं को पदभार दिये जाएंगे। फिर सक्रिय कार्यकर्ताओं का पता लगाने के लिये हाईकमान द्वारा पर्यवेक्षकों की टीम भेजी गयी थी। इस टीम की रिपोर्ट गये हुये भी काफी समय हो गया है। इसी बीच प्रदेश प्रभारी को भी बदल दिया गया। अब प्रदेश अध्यक्षा का भी कार्यकाल पूरा हो गया है और उनके स्थान पर नया अध्यक्ष बनाने की भी चर्चाएं चल पड़ी हैं। यह कहा जा रहा है कि नया अध्यक्ष प्रदेश के जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुये अनुसूचित जाति के किसी विधायक को बनाया जा सकता है। लेकिन जिस तरह की वस्तुस्थिति प्रदेश सरकार की चल रही है उसको सामने रखते हुये यह नहीं लगता कि संगठन की कार्यकारिणीयां बनाना इतना आसान होगा। क्योंकि पिछले दिनों जिस तरह से उपमुख्यमंत्री की सोशल मीडिया पर डाली गयी पोस्ट और उसका लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह द्वारा समर्थन किया जाना सामने आया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार और संगठन में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद जो कुछ घटा है उसका यदि संज्ञान किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार और संगठन में कोई तालमेल नहीं बैठ पाया है। यह एक स्थापित सत्य है कि कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों में सरकार बनने के बाद संगठन का स्थान दूसरे दर्जे पर आ जाता है क्योंकि संगठन का सरकार पर कोई दबाव नहीं रह जाता है। प्रदेश में कांग्रेस का संगठन इसी नीयत और नीति का शिकार रहा है। क्योंकि सरकार व्यवस्था परिवर्तन के ऐसे अपरिभाषित सूत्र को अपना नीति वाक्य बनाकर चली जिसमें सरकार में भी धीरे-धीरे सारा कुछ मुख्यमंत्री में ही केंद्रित होकर रह गया। इसका परिणाम यह हुआ कि मुख्यमंत्री पर शीर्ष अफसरशाही का एक सीमित सा वर्ग हावी होकर रह गया। परिणामस्वरूप प्रशासन में शीर्ष से लेकर नीचे तक अधिकारी-कर्मचारी अपने-अपने स्थानों पर यथास्थिति बने रहंे जिनकी कारगुजारियों से भाजपा चुनाव हारी थी। इससे फील्ड में बैठा हुआ कांग्रेस का कार्यकर्ता और दूसरा समर्थक अपने को पार्टी और सरकार से जोड़ने की बजाये पहले तो तटस्थ रहा और फिर धीरे-धीरे छिटककर किनारे बैठ गया। कार्यकर्ताओं को सरकार में समायोजित करने के सारे प्रयास जब असफल हो गये तो पार्टी के छः विधायकों को संगठन से बाहर जाने पर विवश होना पड़ा। इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल पूरी तरह से टूट गया। दूसरी ओर सरकार ऐसे अन्तःविरोधी फैसले लेते चली गयी जिससे सरकार की अपनी साख गिरनी शुरू हो गयी। प्रदेश की कठिन वित्तीय स्थिति पर प्रदेश को श्रीलंका जैसे हालात हो जाने की चेतावनी देते हुये स्वयं अपने खर्चों पर कंट्रोल करना भूल गयी। मुख्यमंत्री अपने मित्रों को सरकार में स्थापित करने में इस हद तक चले गये कि मित्रों की सरकार होने का तमगा ले बैठे। वितीय संकट के कारण आज सभी वर्गों को एक साथ वेतन और पैन्शन नहीं मिल पा रही है। जो गारंटियां चुनाव के दौरान जनता को देकर आये थे उन पर अमल भाषणों में ही है जमीन पर नहीं। राजस्व बढ़ाने के लिये प्रदेश के हर वर्ग पर परोक्ष/अपरोक्ष इतना टैक्स भार लाद दिया है कि आम आदमी परेशान हो उठा है। सरकार से आम आदमी कितना खुश है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री को अपनी धर्मपत्नी को विधानसभा का उपचुनाव जितवाने के लिये कांगड़ा सहकारी बैंक और जिला समाज कल्याण अधिकारी के माध्यम से 78 लाख कैश चुनाव क्षेत्र में चुनाव आचार संहिता के दौरान बंटवाना पड़ा है। ऐसे में आगे आने वाले विधानसभा चुनावों में कितने चुनाव क्षेत्रों में ऐसे पैसा बांटा जा सकेगा? जिस कार्यकर्ता के सामने सरकार की इस तरह की कारगुजारी होगी वह क्या कह कर सरकार और संगठन की जनता में वकालत कर पायेगा? इस समय सरकार अपने फैसलों के लिये जरूरत से ज्यादा विवादित हो गयी है। रेरा में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियां और उपभोक्ता संरक्षण परिषद की प्रस्तावित नियुक्तियां बहुत अरसे से प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित हो चुकी है लेकिन सरकार ने उन्हें अधिमान नहीं दिया है। एक तरह से न्यायालय की निष्पक्षता पर यह स्थिति अपरोक्ष में प्रश्न चिन्ह लगाने वाली हो जाती है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। कुल मिलाकर सरकार किसी एक मानक पर भी खरी नहीं उतर रही है। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि हिमाचल सरकार के फैसले राष्ट्रीय स्तर पर समस्याएं पैदा करेंगे। इस वस्तुस्थिति में संगठन के लिये नया अध्यक्ष और कार्यकारिणी का चयन एक चुनौती बनता जा रहा है।
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