शिमला/शैल। पिछले दिनों नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर में सरकार पर यह आरोप लगाया कि कुछ समय से ट्रेजरी ही बन्द चल रही है और सारे ठेकेदारों के बिल लंबित पड़े हुये हैं। इसी के साथ यह आरोप लगाया था कि केंद्रीय स्कीमों के तहत आये पैसे से कर्मचारियों के वेतन का भुगतान किया जा रहा है। इसके लिये समग्र शिक्षा के लिये आये पैसे से अध्यापकों का वेतन दिये जाने के लिये सरकार द्वारा इस संबंध में लिखे पत्र का हवाला भी दिया गया था। केंद्रीय योजनाओं के पैसे को डाइवर्ट करके कर्मचारियों के वेतन देने के लिये इस्तेमाल करना अपने में एक बड़ी वित्तीय अनियमितता है। इसका संज्ञान लेकर केंद्र इन योजनाओं के लिये पैसे भेजने पर रोक भी लगा सकता है। नेता प्रतिपक्ष के इस आरोप का जवाब देते हुये मुख्यमंत्री ने कहा कि पैसे की कोई कमी नहीं है। पैसा सही इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है लूटने के लिये नहीं। इसी के साथ मुख्यमंत्री ने कहा की व्यवस्था बदलने के लिये नियम बदले जा रहे हैं और इसी का प्रभाव ट्रेजरी पर पड़ा है। शीघ्र ठेकेदारों के बिलों का भुगतान कर दिया जायेगा। मुख्यमंत्री के इस ब्यान की स्पोर्ट में विधायकों मलिन्द्र राजन और अजय सोलंकी ने एक संयुक्त ब्यान में वित्तीय संकट के लिये पूर्व की जयराम सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुये आरोप लगाया कि पूर्व सरकार ने अन्तिम छः माह में कर्ज लेकर रेवड़ियां बांटते हुये साधन संपन्न लोगों को भी सब्सिडी के दायरे में रखा। विधायकों ने आरोप लगाया है कि पिछली सरकार 75000 करोड़ का कर्ज और दस हजार करोड़ की कर्मचारियों की देनदारियां विरासत में छोड़ गयी है। जबकि इस सरकार ने एक्साईज, टूरिज्म, पावर और माइनिंग पॉलिसी में बदलाव करके तीन हजार करोड़ की आय अर्जित की है।
सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 में प्रदेश की सत्ता संभाली थी और सत्ता संभालते ही यह चेतावनी दी थी कि प्रदेश की हालत कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। यह चेतावनी देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश की कठिन वित्तीय स्थिति का इस सरकार को पता था। इससे यह सवाल उठता है कि जब वित्तीय स्थिति का पता था तो किस आधार पर गारन्टीयां देने और उन्हें पूरा करने का उपक्रम किया गया? जब वित्तीय स्थिति ठीक नहीं थी तो फिर मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां क्यों की गयी? कठिन वित्तीय स्थिति के बावजूद प्रदेश पर कैबिनेट का दर्जा देकर सलाहकारों और ओ.एस.डी. का भार क्यों डाला गया? क्योंकि कठिन वित्तीय स्थिति में यदि सरकार अपने अनावश्यक खर्चों पर रोक नहीं लगाती है तो उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं।
इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि सरकार के सत्ता में दो वर्ष हो गये हैं। इन दो वर्षों में सरकार ने दो कर मुक्त बजट पेश किये हैं। पांच गारन्टियां पूरी करने का दावा किया है। इन दो वर्षों में सरकार ने कर्मचारियों के दस हजार की विरासत में मिली देनदारी में से इस सरकार ने कितना अदा कर दिया है इसका कोई आंकड़ा अब तक जारी नहीं हो सका है। पिछली सरकार द्वारा लिये गये कर्ज में से कितने की आदायगी इस सरकार द्वारा की गयी है इसका भी कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। जबकि सरकार के कर्ज लेने की सीमा में कटौती राष्ट्रीय नीति के तहत हुई है। कोविड काल में जो सीमा साढ़े पांच प्रतिशत थी वह कोविड काल के बाद फिर साढे़ तीन प्रतिशत कर दी गयी है। इस तरह यह सवाल अनुतरित बना हुआ है कि पिछली सरकार द्वारा लिये गये कर्ज और छोड़ी गयी देनदारी का सरकार पर व्यवहारिक असर क्या पड़ा है। जब सरकार ने कर और शुल्क बढ़ाकर तीन हजार करोड़ अर्जित किये हैं तो फिर कर मुक्त बजट पेश करने के दावों का औचित्य क्या है। सरकार के इन दोनों बजटों में सरकार कि कुल आय और व्यय में बीस हजार करोड़ से कम का अन्तर रहा है। लेकिन इस अन्तर को पाटने के लिये तीस हजार करोड़ से अधिक का कर्ज क्यों ले लिया गया और उसका निवेश कहां हुआ है यह सवाल भी लगातार अनुतरित रहा है। जबकि नियमों के अनुसार सरकार अपने प्रतिबद्ध खर्चों के लिये कर्ज नहीं ले सकती है। कर्ज उसी कार्य के लिये लिया जा सकता है जिससे सरकार के खजाने को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचे। इसलिए सरकार को अब तक लिये गये कुल एक लाख पांच हजार करोड़ के कर्ज का यह श्वेत पत्र जारी करना चाहिये कि किस कार्य के लिये कितना कर्ज लिया गया और उससे राजस्व में कितनी बढ़ौतरी हुई। मुफ्ती के वायदों को पूरा करने के लिये नियमों में कर्ज लेने का कोई प्रावधान नहीं है। यह तथ्य विधायकों और जनता दोनों को समझना होगा। अन्यथा केंद्रीय योजनाओं के पैसे को राज्य सरकार के कर्मचारियों के वेतन के लिये इस्तेमाल करने के परिणाम घातक हो सकते हैं।