Friday, 19 September 2025
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नड्डा की असफल जनसभाएं और निगम चुनावों का टलना सरकार के लिये खतरे के संकेत

क्या जयराम सरकार की हालत 2014 में दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार जैसी होती जा रही है
शिमला/शैल। आप ने जब से हिमाचल में विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान किया है उसके बाद जयराम सरकार और भाजपा ने जो भी परोक्ष/ अपरोक्ष प्रतिक्रियाएं दी हैं तथा राजनीतिक कदम उठायें हैं उन्हें आप की घोषणा के परिदृश्य में देखना समझना अवश्य हो जाता है। क्योंकि आप पंजाब की जीत के बाद दिल्ली से हिमाचल तक के पूरे क्षेत्र में भाजपा के लिये एक सीधी चुनौती बन चुका है। इस चुनौती को सार्वजनिक मंचों से नकारना भाजपा और उसके भक्तों की राजनीतिक आवश्यकता और विवशता बन चुका है। लेकिन इस नकार से स्थितियां नहीं बदल जाती हैं और किसी भी विश्लेषन और आकलन के लिये इन्हें संज्ञान में रखना इमानदारी की मांग हो जाता है। इस परिपेक्ष में यदि राष्ट्रीय स्तर पर नजर डाले तो पांच राज्यों में हुये चुनावों में चार में जीत दर्ज करने के बाद हुये चार राज्यों के उपचुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा है। क्योंकि जीत का उपहार लोगों को महंगाई के रूप में मिला। यह महंगाई हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनाव में भी सिर चढ़कर बोलेगी यह तय है।
हिमाचल में जब चारों उपचुनाव में भाजपा को हार मिली थी तब प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर चर्चायें उठी थी। इन चर्चाओं को भाजपा की विस्तारित कार्यकारिणी में उठे सवालों से भी अधिमान मिला था। लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का हिमाचल से ताल्लुक रखना नेतृत्व परिवर्तन के सवालों पर भारी पड़ा। राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नडडा का प्रदेश के नेतृत्व को कितना और कैसा संरक्षण हासिल है इसका खुलासा उस ब्यान से बाहर आ गया है जब नड्डा ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि वह दिल्ली में जयराम ठाकुर के वकील हैं। बल्कि नड्डा वहीं नहीं रुके और धूमल को लेकर भी यह कह दिया कि पार्टी गुण दोष के आधार पर फैसले लेती है। नड्डा के इस ब्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिमाचल में पार्टी को सत्ता में वापसी लाने की जिम्मेदारी सीधे नड्डा और जयराम के कंधो पर आ गयी है। इस जिम्मेदारी में धूमल और शान्ता की क्या और कितनी भूमिका रह गयी है इसका अंदाजा भी नड्डा की कांगड़ा रैली के लिए छपे पोस्टों में शान्ता-धूमल के चित्रों के गायब रहने से लग जाता है। इस परिदृश्य में जयराम सरकार के अब तक के कार्यकाल का आकलन और उसमें नड्डा के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाम पर देश को उनके योगदान की भूमिका की चर्चा किया जाना आवश्यक हो जाता है। स्मरणीय है कि केंद्र द्वारा हिमाचल से 69 राष्ट्रीय राजमार्गों का तोहफा दिये जाने की पहली सूचना नड्डा के पत्र से प्रदेश की जनता को मिली थी। इन राष्ट्रीय राजमार्गों की व्यवहारिक स्थिति क्या है यह पूरा प्रदेश जानता है। नड्डा प्रदेश में दो बार मंत्री रहे चुके हैं। स्वस्थ और वन जैसे विभागों का प्रभार उनके पास रहा है। उन्हीं के काल में स्वस्थ विभाग में घोटाला हुआ था और निदेशक की गिरफ्तारी तक हुई थी। बतौर मंत्री नड्डा कितने सफल तथा विश्वसनीय रहे हैं यह प्रदेश की जनता अच्छे से जानती है। ऐसे में आज जब सरकार को रिपीट करवाने की पूरी जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली है तो यह स्वभाविक है कि जय राम सरकार की कारगुजारीयों के साथ ही उनके अपने समय में घट चुके महत्वपूर्ण घटनाक्रम तुरंत से जनता के जहन और जुबान पर आ जायेंगे। आज यह सर्वविदित है कि नड्डा की पीटरहॉफ में हुई सभा में भी कुर्सियां खाली रही हैं। कांगड़ा की रैली में भी यही परिदृश्य रहा है। लोग सभा से उठकर चले गये। जय राम ठाकुर ने मुफ्ती की घोषणा केजरीवाल के एलान के बाद की है। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की स्थिति दिल्ली शीला दिक्षित की सरकार जैसी बनती जा रही है।
यही नहीं शिमला नगर निगम के चुनाव जिस तरह से अनिश्चितता में चले गये हैं उसका संदेश भी सरकार की सेहत के लिये नुकसान देह होने जा रहे है। क्योंकि इन चुनाव से पहले लायी गयी शिमला डवैलप्मैंट प्लान पर जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रियाएं उभरी है उससे सरकार की नियत और नीति दोनों सन्देह के घेरे में आ खड़ी हुई है। सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर एक बार फिर प्रदेश उच्च न्यायालय में गंभीर सवाल उठे हैं। मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त के मामलों पर भी मुख्यमंत्री आगे कुआं और पीछे खाई जैसी स्थिति में पहुंच गये हैं। जैसे जैसे चुनाव निकट आते जायेंगे उसी अनुपात में सरकार सवालों के घेरे में फसती चली जायेगी। क्योंकि आज तक जयराम सरकार एक ही सिद्धांत पर चली है कि न तो अदालती फैसलों को अधिमान दो और न ही कठिन सवालों वाले पत्रों का जवाब दो। लेकिन चुनावी वक्त में यही नीति गले की फांस बन जाती है।

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