कोरोना काल में
शिमला/शैल। कोरोना के कारण जब 24 मार्च को लाॅकडाऊन लगाकर पूरे देश को घरों में बन्द कर दिया गया था तब ऐसा करने की कोई पूर्व सूचना नही दी गयी थी। लेकिन इस घरबन्दी का किसी ने विरोध नही किया क्योंकि यह प्रधानमन्त्राी का आदेश-निर्देश था और जनता उन पर विश्वास करती थी। इसी विश्वास पर लोगों ने ताली/थाली बजाई, दीपक जलाये और ‘गो कोरोना गो’, के नारे लगाये इन सारे प्रयासों के बाद भी कोरोना समाप्त नही हुआ है। बल्कि आज इतना बढ़ रहा है कि यह कहना संभव नही रह गया है कि इसका अन्तिम आंकड़ा क्या होगा और इससे छुटकारा कब मिलेगा। जब लाॅकडाऊन किया गया था तब इसका आंकड़ा केवल पांच सौ था और जब कई लाखों में पहंुच गया तब अनलाॅक शुरू कर दिया। अब अनलाॅक चार चल रहा है और सारे प्रतिबन्ध हटा लिये गये हैं। लाॅकडाऊन लगाने का तर्क था कि सोशल डिस्टैसिंग की अनुपालना करने से इसके प्रसार को रोका जा सकता है। सोशल डिस्टैन्सिंग एक अचूक हथियार हमारे प्रधानमन्त्री खोज लाये हैं जिस पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत भी प्रंशसक बन गया है ऐसे कई दावे कई विदेशीयों के कथित प्रमाण पत्रों के माध्यम से किये गये थे। देश की जनता ने इस सबको बिना कोई सवाल किये मान लिया। अब अनलाक शुरू करने पर तर्क दिया गया कि आर्थिक गतिविधियों को लम्बे समय तक बन्द नहीं रखा जा सकता। लाकडाऊन का अर्थ व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। सरकार को राजस्व नही मिल रहा है। इन तर्कों को भी जनता ने बिना कोई प्रश्न किये मान लिया। लाकडाऊन में सारे शिक्षण संस्थान और धार्मिक स्थल बन्द कर दिये गये थे। इन्हें अब खोल दिया गया है। धार्मिक स्थलांें में बच्चों और बजुर्गों के जाने पर अभी भी प्रतिबन्ध है।
स्कूलों को खोल दिया गया है। अध्यापक और गैर शिक्षक स्टाफ स्कूल आयेंगे। लेकिन सभी एक साथ नही आयेंगे। आधा स्टाफ एक दिन आयेगा तो आधा दूसरे दिन आयेगा। कोई भी क्लास नियमित नही लगेगी। कक्षा नौंवी से बाहरवीं तक के छात्र स्कूल आयेंगे। यदि वह चाहें और उनके अभिभावक अनुमति दें। अभिभावकों की अनुमति के बिना छात्र स्कूल नहीं आयेंगे। स्कूल आकर वह अध्यापक से केवल मार्ग दर्शन ले सकेंगे रैग्युलर पढ़ाई नही होगी। स्कूलों के लिये जारी इन निर्देशों का अर्थ है कि बच्चों की जिम्मेदारी माता-पिता की ही होगी। सरकार और स्कूल प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। कोरोना का सामुदायिक प्रसार बढ़ रहा है यह लगातार बताया जा रहा है। इस महामारी की कोई दवा अभी तक नहीं बन पायी है और यह भी निश्चित नही है कि कब तक बन पायेगी। ऐसी वस्तुस्थिति में बच्चों को लेकर इस तरह के निर्देश जारी करने का क्या यह अर्थ नही हो जाता है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींच लिये हैं और लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। जब संक्रमण बढ़ रहा है और दवाई कोई है नहीं तब कोई कैसे जोखिम उठाने की बात सोच पायेगा। जनता आज तक सरकार के हर फैसले को स्वीकार ही नहीं बल्कि उस पर विश्वास करती आयी है लेकिन आज जब सरकार जनता को उसके अपने हाल पर छोड़ने पर आ गयी है तब उसकी नीयत और नीति दोंनोे पर सवाल करना आवश्यक हो जाता है।
जब से कोरोना सामने आया है तभी से डाक्टरों का एक वर्ग इसे साधारण फ्लू बता रहा है। इसी वर्ग ने इसे फार्मा कंपनीयों का अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्र कहा है। जब किसी बिमारी को महामारी की संज्ञा दी जाती है तो ऐसा कुछ अध्ययनों के आधार पर किया जाता है। लेकिन कोरोना को लेकर ऐसा कोई अध्ययन सामने नही हैं। कारोना चीन ने फैलाया यह आरोप लगा है लेकिन अमरीका में बिल गेट्स ने ऐसी महामारी की घोषणा तीन साल पहले ही किस आधार पर कर दी थी पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। अमेरिका और चीन एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे और बाकि लोग इसी बहस का हिस्सा बनते रहे। किसी बीमारी का ईलाज खोजने के लिये उस बीमारी की गहन पड़ताल करनी पड़ती है इस पड़ताल के लिये मृतकों का पोस्टमार्टम किया जाता है। लेकिन हमारे यहां ऐसा नही किया गया। हमारे स्वास्थ्य मन्त्री स्वयं एक अच्छे डाक्टर हैं और वह जानते हैं कि पोस्टमार्टम कितना आवश्यक होता है दवाई खोजने के लिये फिर डा. हर्षवर्धन तो स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक पदाधिकारी हैं। क्या देश को यह जानने का हक नही है कि पोस्टमार्टम क्यांे नहीं किये गये। क्या इसके बिना कोई दवाई खोज पाना संभव है? क्या अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर यह सवाल हमने उठाया है शायद नहीं क्या कोरोना को लेकर लिये गये आज तक के सारे फैसले अन्तः विरोधी नही रहे हैं। इसी अन्त विरोध का परिणाम है स्कूलों और बच्चों को लेकर लिया गया फैसला। ऐसा अन्तः विरोध तब आता है जब हम स्वयं स्थिति को लेकर स्पष्ट नही होते हैं। कुछ छिपाना चाहते हैं। कोरोना से पहले प्रतिवर्ष कितनी मौतें देश में होती रही है। यह केन्द्र सरकार के गृह विभाग की रिपोर्ट से सामने आ चुका है। 2015, 16 और 2017 तक के आंकड़े इस रिपोर्ट में जारी किये गये हैं। इसके मुताबिक 2017 में देश में 64 लाख से अधिक मौतें हुई हैं। हिमाचल का आंकड़ा ही चालीस हजार रहा है। क्या इस आंकड़े के साथ कोरोना काल के आकंड़ो की तुलना नही की जानी चाहिये। क्या इससे यह स्वभाविक सवाल नही उठता है कि शायद सच्च कुछ और है। आज अर्थव्यवस्था पूरी तरह तहस नहस हो चुकी है। अनलाक चार में भी बाज़ार 30ः से ज्यादा नही संभल पाया है और इसे सामान्य होने में लंबा समय लगेगा। क्योंकि सरकार का हर फैसला आम आदमी के विश्वास को बढ़ाने की बजाये उसके डर को बढ़ा रहा है। यह स्थिति आज आम आदमी को भगवान भरोसे छोड़ने की हो गयी है। यह विश्वास तब तक बहाल नहीं हो सकेगा जब तक सरकार यह नही मान लेती है कि उसके आकलन सही साबित नहीं हुए हैं।
आज कोरोना पर जब सरकार के निर्देश ही भ्रामकता और डर को बढ़ावा दे रहे हैं तो आम आदमी इस पर स्पष्ट कैसे हो पायेगा। जब बिना दवाई के ही इसके मरीज़ ठीक भी हो रहे हैं और इससे संक्रमित डाक्टरों की मौत भी हो रही है तब ऐसी व्यवहारिक सच्चाई के सामने आम आदमी एक सही राय कैसे बना पायेगा। क्योंकि यह भी सच है कि अकेले कोरोना से ही मरने वालों का आंकड़ा तो नहीं के बराबर है। ऐसे में यही उभरता है कि जब किसी अन्य बिमारी से ग्रसित व्यक्ति कोरोना से भी संक्रमित हो जाता है तब उसका बच पाना कठिन हो जाता है। यहां यह भी कड़वा सच है कि लाकडाऊन शुरू होते ही अस्पतालों में अन्य बिमारीयों के ईलाज पर विराम लग गया था। इस विराम का अर्थ था कि इन मरीजों को भगवान और उनके अपने हाल पर छोड़ दिया गया था। आज ठीक उसी बिन्दु पर सरकार और प्रशासन आ खड़ा हुुआ है जब उसने बच्चों का स्कूल आना माता-पिता की स्वेच्छा पर छोड़ दिया है। इस स्वेच्छा के निर्देश से पूरी व्यवस्था की विश्वनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। ऐसे में यह ज्यादा व्यवहारिक होगा कि सरकार कोरोना को एक सामान्य फ्लू मानकर जनता में विश्वास बहाली का प्रयास करे।