शिमला/शैल। आज हिमाचल सरकार पूरी तरह अराजकता का पर्याय बन चुकी है और इसका सबसे ताजा उदाहरण है अभी घटित हुआ कोटखाई का गुड़िया प्रकरण जहां अन्त मे उस सीबीआई को मामला सौंपना पड़ा जिसके खिलाफ मुख्यमन्त्री के अपने ही मामलें में सरकार सन्देह और अविश्वास व्यक्त कर चुकी है। सरकार की इस स्थिति के लिये काफी हद तक कांग्रेस का प्रदेश संगठन भी जिम्मेदार रहा है। क्योंकि सरकार के बनने के साथ ही संगठन और सरकार में वर्चस्व की जो लड़ाई शुरू हुई थी आज वह खुलकर सड़क तक पहुंच गयी है। जब पथ यात्रा के प्रकरण में संगठन के मुखिया सुक्खु ने मुख्यमन्त्री पर भूल जाने का तंज कसा तो वीरभद्र ने उसका पलट कर जवाब देते हुए यहां तक कह दिया कि उसे तो वह दिन भी याद है जब सुक्खु पैदा हुआ था। संगठन और सरकार में यह टकराव सरकार बनने के साथ ही मुख्यमन्त्री द्वारा विभिन्न निगमों/बोर्डों में की गयी ताज़पोशीयों से शुरू हुआ था और वीरभद्र ने उसी वक्त ‘एक व्यक्ति एक पद’ के सिद्धान्त को मानने से इन्कार कर दिया था। सरकार और संगठन का यह टकराव हर मोड़ पर हर मुद्दे पर खुलकर सामने आता रहा है जब संगठन में सचिवों के त्यागपत्र देने की नौबत आयी और सरकार में मुख्य संसदीय सचिवों के त्यागपत्र तथा कार्यालय में न आने तक की स्थिति आ गयी तो यह टकराव की पराकाष्ठा थी।
सरकार और संगठन के इस टकराव में न सुक्खु वीरभद्र को बदलवा सके और न ही वीरभद्र सुक्खु को। इसी टकराव के कारण लोकसभा की चारों सीटों हारी और अब नगर निगम शिमला हारी। इसी टकराव का परिणाम है वीरभद्र समर्थकों द्वारा उनके नाम से ब्रिगेड खड़ा करना तथा संगठन के कड़ा संज्ञान लेने पर उसको भंग करके एनजीओ की शक्ल देना और सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर कर देना जो अब तक चल रहा है। सुक्खु वीरभद्र के इस टकराव को जारी रखवाने में जहां दोनो के स्वार्थी सलाहकरों ने अहम भूमिका निभायी है वहीं पर हाई कमान की प्रतिनिधि रही प्रदेश की प्रभारी अबिंका सोनी ने भी कवेल ‘‘बिल्ली मौसी’’ की ही भूमिका निभाई और सारा दोष हाईकमान पर धृतराष्ट्र होने का लगता रहा। संगठन और सरकार के सूत्रों की माने तो अंबिका सोनी ने कभी भी प्रदेश की सही तस्वीर हाईकमान के सामने रखी ही नही। आज भी जब प्रदेश में यह गुड़िया प्रकरण घटा और पूरे देश में वीरभद्र सरकार के खिलाफ रोष के स्वर उभरे तब भी प्रभारी ने यहां आकर हालात का जायजा लेने की कोशिश तक नही की। जबकि भाजपा का प्रभारी अपनी नियुक्ति के पहले दिन से ही यहां डेरा डालकर बैठ गया है और पूरे प्रदेश का भ्रमण करके पार्टी कार्यकर्ताओं को चुनावी अभियान में व्यस्त कर दिया है। इस संद्धर्भ में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस कहीं देखने को नही मिल रही है। इस समय कांग्रेस की स्थिति तो यह हो गयी है कि उसे सुक्खु और वीरभद्र के अतिरिक्त और किसी दुश्मन की आवश्यकता ही नही रह गयी है। सरकार और संगठन दोनो एक बराबर अराजकता के शिकार हो चुके है। संभवतः इसी सब की आहट पाकर हाईकमान ने यहां के प्रभारी बदले हैं।
आज जहां कांग्रेस से गुजरात में शंकर सिंह बाघेला बाहर चले गये है वहीं पर हिमाचल में मनकोटिया जैसे व्यक्ति को जनहित में पर्यटन विकास वोर्ड के उपाध्यक्ष पद से वर्खास्त करके ऐन चुनाव के वक्त अपने पांव पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। जानबूझकर विपक्ष को एक मुखर प्रवक्ता उपलब्ध करवा दिया है जबकि इस बार चुनाव में मनकोटिया की जीत तो वीरभद्र से भी ज्यादा पक्की मानी जा रही है। कांग्रेस को तो सत्ता में बने रहने के लिये एक-एक सीट पर पूरी एकजुटता के साथ चुनाव लड़ने की आवश्यकता है। उसे तो बाहर से लोग भीतर लाने की आवश्यकता है। क्योंकि इस समय पार्टी पर एक संकट तो इस गुड़िया प्रकरण से आ गया है। इससे जहां जिला शिमला में पहले आठ में छः सीटें पक्की मानकर प्रदेश में इससे आगे गिनती शुरू होती थी वहां अब एक सीट भी पक्की मानकर चलना कठिन लग रहा है। यहां विश्वास बहाल करने के लिये सीबीआई से हटकर स्वयं प्रशासनिक स्तर पर कुछ लोगों के खिलाफ कड़ी कारवाई करके एक सख्त संदेश देना होगा। यदि यह संदेश न हो पाया तो वीरभद्र और विक्रमादित्य की अपनी सीटें भी संकट में होंगी यह तय है। पार्टी का दूसरा संकट स्वयं वीरभद्र सिंह के खिलाफ चल रहे आयकर, सीबीआई और ईडी के मामलें है। वीरभद्र के अपने कार्यालय को तो पहले ही दिन से ही ‘‘रिटायरड और टायरड’’ लोगों का आश्रम प्रचारित किया जाता रहा है और इस प्रचार - प्रसार का प्रभाव पूरे प्रशासन पर जनता बराबर देखती आ रही है। इस पर वीरभद्र और उनके परिवार तथा निकट सलाहकारों की ही आंखे बन्द रही है। जबकि बाकी सभी की खुली है।
वीरभद्र अपने मामलों के लिये तो केन्द्र सरकार पर राजनीतिक द्वेष का आरोप लगाते आ रहे हैं। जनता को यह कहते आये हैं कि एक ही मामले की तीन ऐजैन्सीयां एक साथ जांच कर रही जबकि ऐसा सामान्यतः नही होता। जनता और पार्टी उनके इस तर्क पर सीधे असहमति नही जता पायी है। क्योंकि केन्द्र की यह ऐजैन्सीयां इस मामले में अब तक कोई बड़ा परिणाम भी सामने नही ला पायी है। इसलिये हाईकमान भी उनके साथ खड़ी रही है। लेकिन अब इस बलात्कार और फिर हत्या प्रकरण में पुलिस की जांच पर उठे सवालों ने एकदम सरकार और पार्टी को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। क्योंकि ऐसे संगीन अपराध में भी अलसी दोषीयों को बचाने का आरोप पुलिस पर लगा है। जांच में ऐसे कई गंभीर बिन्दु है जो पुलिस जांच पर सन्देह करने के पुख्ता आधार बनते है। फिर इस प्रकरण पर आये मुख्यमन्त्री के ब्यानों से भी जनता सन्तुष्ट नही रही है क्योंकि सरकार ने संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ प्रशासनिक स्तर पर कोई कारवाई ही नही की है। इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि चुनावों में पार्टी को इससे भारी नुकसान उठाना पडे़गा और इसकी सीधी जिम्मेदारी मुख्यमन्त्री पर आती है। क्योंकि वह ही प्रदेश के गृहमंत्री भी है। ऐसे में सरकार और पार्टी के भीतर उनके विरोधीयों को नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठाने का एक तर्क संगत मौका मिल गया है। जिन लोगों को अपने राजनीतिक भविष्य की चिन्ता है उनका तर्क है कि आज जनता सबसे पहले उनसे यही सवाल पूछेगी की ऐसे अपराध में दोषी को क्यों और किसके ईशारे पर बचाया जा रहा है। फिर भाजपा ने तो इस प्र्रकरण पर 26 जुलाई तक मुख्यमन्त्री को त्यागपत्र देने का अल्टीमेटम दे दिया है। यदि तब तक वीरभद्र नहीं हटतें हैं तो उसके बाद इस मुद्दे को फिर जनता में ले जाने की बात की है। ऐसे में यदि सीबीआई भी अपनी जांच में पुलिस को दोषी पाती है तब तो स्थिति और भी भंयकर हो जायेगी। इसी सबको सामने रखते आधा दर्जन विधायकों ने हाईकमान को पत्र लिखकर स्पष्ट शब्दों में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठा दी है। यह संख्या और भी बढ़ जायेगी क्योंकि ऐसे मुद्दे पर कोई भी राजनेता सीधे मुख्यमन्त्री का पक्ष लेने की हिम्मत नही कर पायेगा। क्योंकि ऐसा करने पर वही जनता के रोष का केन्द्र बन जायेगा। माना जा रहा है कि यदि अब भी हाईकमान ने कोई कारगर कदम न उठाया तो सरकार गिरने तक की नौबत आ जायेगी।
इस परिदृश्य में प्रदेश का प्रभार संभाल रहे शिंदे और उनके सहयोगी रजनी के लिये पार्टी को टूटने से बचाये रखने के लिये हाईकमान होने का कड़ा संदेश देना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में सुक्खु और वीरभद्र सिंह का एक साथ चल पाना संभव नही है। इसलिये पार्टी को सुक्खु-वीरभद्र संकट से बचाने के लिये हाईकमान क्या करती है और प्रभारी इस जमीनी हकीकत का कितना सही आकलन कर पाते हैं इस पर सबकी नजरें रेहेंगी। क्योंकि अब सी बी आई के आने के बाद भी इस प्रकरण को जनचर्चा में बनाये रखने के लिये कुछ तथाकथित सामाजिक संगठनों ने एक गुड़िया न्याय मंच बनाकर इस मामले को आगे बढ़ाते हुये प्रदर्शनों की रणनीति को जारी रखा हुआ है। आज इस प्रकरण में प्रशासन की अब तक की सारी असफलता के लिये मुख्यमन्त्री और उनके कार्यालय को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। ऐसे में स्वभाविक है कि यदि इस परिदृश्य में मुख्यमन्त्री के विरोधी कोई अलग रास्ता चुन लेते हैं तो जनता और हाईकमान उन्हे दोषी नहीं ठहरा सकेगी।