Friday, 19 September 2025
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सरकारी तन्त्र केे उत्पीडन से न्याय के लिये अनशन पर बैठने के कगार पर पहुंचे सुरेश तोमर

शिमला/शैल। पावंटा साहिब के ग्राम भैला के सुरेश तोमर ने देश के प्रधानमंत्री, मानवाधिकार आयोग, सर्वोच्च न्यायालय, मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह, मुख्य सचिव और प्रदेश उच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाकर सभी जगह न्याय के लिये गुहार लगाते हुए यह हताशा व्यक्त की है कि यदि अब भी उसे न्याय न मिला तो उसके पास अनशन पर बैठने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही रह जायेगा। सुरेश तोमर इस स्थिति तक क्यों और कैसे पहुंचे हैं इसके लिये उनके पूरे मामले को समझने के साथ ही सारे संबद्ध तन्त्र की नीयत और नीति को समझना भी आवश्यक है।
तोमर की कहानी हिमाचल सरकार द्वारा कुमार हट्टी-सराहन -नाहन रोड़ को चैड़ा करने के लिये दिल्ली के सोमदत्त बिल्डरज़ प्रा.लि. को 14.10.2009 को 142 करोड़ का ठेका देेने से शुरू होती है। तोमर ने इस कंपनी के पास बतौर Sub contractor काम किया। तोमर को कंपनी ने 28 फरवरी को ही काम की साईट दे दी और उसने उसी दिन काम शुरू कर दिया। लेकिन लिखित में कान्ट्रैक्ट 16 अप्रैल को हस्ताक्षिरत किया। इस काॅन्ट्रेक्ट के मुताबिक तोमर को करीब आठ माह मे काम पूरा करके कपंनी को देना था। कान्ट्रैक्ट की शर्तों के मुताबिक जितना काम होता जायेगा उसको नाप कर हर माह की दस तारीख को पेमैन्ट कर दी जायेगी। कपंनी नियमित रूप से उसके काम को नापती रही लेकिन उसकी उसे पेमैन्ट नियमित नही दी गयी। केवल 24.5.2012 को उसे 3,65,662 रूपये की अदायगी की गयी। कपंनी से पेमैन्ट न मिलने के कारण तोमर को अपनी लेबर को पेमैन्ट करना कठिन होता गया। कंपनी से जब भी पेमैन्ट मांगी गयी तो कंपनी यह बहाना करती रही कि उसका काम measurable नही है और इस कारण इस समय तक तोमर ने करीब 70 से 80% काम भी पूरा कर दिया था। लेकिन पेमैन्ट न मिलने से उसे काम जारी रखना कठिन हो गया। पेमैन्ट के लिये कंपनी के अधिकारियों से लेकर संबद्ध विभाग के अधिकारियों तक सबको संपर्क किया गया। कंपनी वही बहाना काम के measurable न होने का करती रही और एचपीआरआईडीसी ने यह कहकर दखल देने से मना कर दिया कि तोमर कपंनी की ओर से नीमित सब कान्ट्रैक्टर नहीं है। सरकारी तन्त्र और कपंनी की बदनीयत से तोमर का करीब 80 लाख रूपया कपंनी के पास फंसा है। तोमर ने इस काम पर निवेश करने के लिये जो पैसा जुटाया था वह आज उसकी देनदारी बनकर उसके सिर पर खड़ा और परिवार का भरण-पोषण तथा बच्चों की पढ़ाई को चलाये रखना कठिन हो गया है। स्थिति के यहां तक पहुंचने के कारण ही तोमर को आमरण अनशन का कदम उठाने की नौबत आ गयी है।
तोमर को इस स्थिति तक धकेलने में एचपीआरआईडीसी कंपनी और पुलिस तक ने कैसे आपराधिक षडयंत्र रचा इसका खुलासा कंपनी को दिये कान्ट्रैक्ट की शर्तों को देखने से हो जाता है। सरकार ने एचपीआर आईडीसी के माध्यम से कंपनी को 142 करोड़ का ठेका दिया था जोकि 186 करोड़ में पूरा हुआ है। यह एक मैगा प्रौजैक्ट था। जिसे पूरा करने के लिये कंपनी को सब कान्ट्रैक्टर नियुक्त करने का भी अधिकार था लेकिन ऐसे उप ठेकेदारों के माध्यम से केवल 25% तक का ही काम करवाया जा सकता था। ऐसे उप ठेकेदारों को एचपीआरआईडी के पास नौमिनेट करना भी आवश्यक था। इस काम के लिये विभाग की ओर से एक कन्सलटैन्ट लूईस बर्जर भी नियुक्त थे जिन्हे सरकार ने लाखों रूपये दिये हैं। कन्सलटैन्ट का काम कंपनी के काम पर हर समय नजर रखना और उसकी गुणवता सुनिश्चित करना था। HPRIDC को कान्ट्रैक्ट की शर्तों के मुताबिक यह अधिकार हासिल था कि यदि कंपनी किसी भी शर्त की उल्लंघना करती है। तो यह कान्ट्रैक्ट रद्द किया जा सकता था।
जब तोमर और कंपनी में पेमैन्ट का विवाद आता है और उसकी शिकायत HPRIDC से ही जाती है तो यह जवाब दिया जाता है कि कंपनी ने आपको विभाग के पास उप ठेकेदार नामित नही किया है। तोमर और कंपनी के बीच उप- ठेकेदार का हस्ताक्षिरत कान्टैक्ट है कंपनी इसे अदालत में भी मान चुकी है। आरटीआई के तहत मिली जानकारी के मुताबिक कंपनी ने एक भी Sub contractor विभाग के पास nominate नहीं किया है। जबकि कंपनी में दो सौ से अधिक उप ठेकेदारों ने काम किया है और सबके हस्ताक्षरित कान्टैªक्ट हैं। 25% कार्य की शर्त के मुताबिक इतनेे उप ठेकेदार हो ही नही सकते थे यह शर्तों का उल्लंघन था और इसी पर यह कान्ट्रैक्ट रद्द हो जाना चाहिए था। जब अदालत में कंपनी तोमर को कान्टैक्ट देना स्वीकार कर चुकी है तो विभाग इस तथ्य को स्वीकार क्यों नहीं कर रहा है। जब उप-ठेकेदार होने का प्रमाण सामने है तो फिर विभाग ने कंपनी के खिलाफ कोई कारवाई क्यों नही की? क्या विभाग के अधिकारियों का कंपनी के साथ कोई बड़ा हित जुड़ा हुआ था। विभाग के प्रमुख सचिव तक सबके संज्ञान में यह ममाला था। लेकिन किसी ने भी तोमर को न्याय देना तो दूर उसे ठीक से सुना तक नही। कंपनी ने तोमर को जो काम अलाॅट किया था आरटीआई में मिली जानकारी के मुताबिक उसकी 1.18 करोड़ पेमैन्ट विभाग कर चुका है। कंपनी ने अदालत में स्वीकारा है कि तोमर के काम छोड़ देने के बाद उसके शेष बचे काम को एक अन्य से 18 लाख में पूरा करवाया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि करीब एक करोड़ का काम तोमर ने किया था। जिसकी पैमेन्ट विभाग ने कंपनी को की है। जबकि कंपनी तोमर को पेमैन्ट न देने के लिये उसका काम measurable न होने का बहाना करती रही है। ऐसे में यदि तोमर का काम नापने योग्य था ही नही तो फिर विभाग ने एक करोड़ की पेमैन्ट कैसे कर दी? क्या यह पेमैन्ट बिना काम के की गयी और इसमें विभाग की कुछ मिलीभगत थी? आरटीआई में सामने आयी जानकारियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जितना बड़ा यह काम था कपंनी की नीयत भी उसी अनुपात में सही नही थी और इस सबमें विभाग के अधिकारियों की मिली भगत भी उतनी ही थी।
क्योंकि इसमें सवाल उठता है कि जब कंपनी Sub contractors से काम ले रही थी तो यह विभाग के संज्ञान में क्यों नही आया? विभाग का कन्सलटैन्ट क्या जिम्मेदारी निभा रहा था? जब पेमैन्ट का विवाद विभाग के संज्ञान में भी आ गया तो विभाग ने उसे सुलझाने का प्रयास क्यों नहीं किया? कंपनी जब नियमों का उल्लंघन कर रही थी तो उसके खिलाफ कारवाई क्यों नहीं की गयी? 142 करोड़ का ठेका बढ़कर 186 करोड़ कैसे हो गया? क्या यह सब विजिलैन्स जांच का विषय नहीं बनता है।

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