सम्पादकीयShail Samachar Newspaperhttps://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-562025-09-18T19:44:53+00:00Joomla! - Open Source Content Managementउपराष्ट्रपति चुनाव के बाद उभरते राजनीतिक सवाल2025-09-17T17:06:35+00:002025-09-17T17:06:35+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2927-2025-09-17-17-06-35Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" /></span></p>
<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;">उपराष्ट्रपति के चुनाव में एन.डी.ए. के उम्मीदवार सी.पी.राधाकृष्णन को बड़ी जीत हुई उन्हें इण्डिया गठबंधन के उम्मीदवार के मुकाबले 452 मत मिले हैं जबकि इण्डिया गठबंधन के जस्टिस रेड्डी को 300 मत मिले हैं। इस चुनाव में पन्द्रह मत अवैध पाये गये हैं और तेरह सांसदों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया। एन.डी.ए. के उम्मीदवार की जीत को गृह मंत्री अमित शाह के कुशल राजनीतिक प्रबंधन का कमाल मान जा रहा है। गृह मंत्री के पास ई.डी. और सी.बी.आई. जैसे हथियार हैं और इन हथियारों का भी परोक्ष/अपरोक्ष में इस्तेमाल होने की चर्चाएं भी सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से उठ खड़ी हुई हैं। इन चर्चाओं को इसलिये अधिमान देना पड़ रहा है क्योंकि देश की राजनीति में इन हथियारों का इस्तेमाल 2014 के चुनावों के बाद से एक बड़ी चर्चा का विषय बन चुका है। उपराष्ट्रपति का यह चुनाव जिस तरह के राजनीतिक वातावरण में हुआ है उसमें इन चर्चाओं को नकारा भी नहीं जा सकता। चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर एक लंबे अरसे से सवाल उठते आ रहे हैं। आज यह सवाल कांग्रेस नेता राहुल गांधी के प्रमाणिक खुलासे के बाद ‘‘वोट चोरी’’ के एक बड़े अभियान तक पहुंच गये हैं। बिहार में एस.आई.आर को लेकर चुनाव आयोग और सर्वाेच्च न्यायालय में बहस जिस मोड़ तक जा पहुंची है वह अपने में ही बहुत कुछ कह जाती है। </span><br /><span style="font-size: small;">इस पृष्ठभूमि में उपराष्ट्रपति चुनाव के आंकड़े अपने में बहुत बड़ी बहस को अंजाम दे जाते हैं। इण्डिया गठबंधन की एकता पर पहला सवाल खड़ा होता है। क्योंकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस चुनाव का परिणाम आने से पहले ही यह दावा किया था कि इण्डिया ब्लॉक के सभी तीन सौ पन्द्रह सांसदों ने मतदान किया है। परिणाम आने पर इंडिया ब्लॉक को तीन सौ वोट मिले पन्द्रह वोट अवैध घोषित हुये। इन अवैध मतों पर चर्चा कांग्रेस नेता शशि थरूर और मनीष तिवारी के ब्यानों के बाद ज्यादा गंभीर हो जाती है। इसी कड़ी में तेरह सांसदों का मतदान में भाग ही न लेना और भी गंभीर सवाल खड़े कर देता है। क्योंकि मतदान से पहले किसी भी सांसद ने उपराष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों को लेकर कुछ नहीं कहा था। जबकि इस चुनाव में कोई भी दल अपने सांसदों को सचेतक जारी नहीं किये हुये था। क्योंकि इसका प्रावधान ही नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आज भी हमारे सांसद राष्ट्रीय महत्व के राजनीतिक प्रश्नों पर अपनी राय नहीं रख पा रहे हैं। इसी के साथ पन्द्रह सांसदों के मतों का अवैध पाया जाना यह सवाल खड़ा करता है कि क्या हमारे सांसदों को वोट डालना ही नहीं आता है या यह एक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था। इस पर आने वाले दिनों में खुलासे आने की संभावना है। </span><br /><span style="font-size: small;">जिन राजनीतिक परिस्थितियों में उपराष्ट्रपति का चुनाव आया और मतदान हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया है कि ‘‘वोट चोरी’’ के जनान्दोलन में सरकार के लिये स्थितियां सहज नहीं रही हैं। यदि भारत जोड़ो यात्रा से भाजपा का आंकड़ा दो सौ चालीस पर आकर रुक सकता है तो निश्चित तौर पर वोट चोरी के आरोप का प्रतिफल बहुत बड़ा होगा। क्योंकि यह इसी आरोप का प्रतिफल है कि भाजपा को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलना कठिन होता जा रहा है। इसी आरोप के कारण प्रधानमंत्री का पच्चहत्तर वर्ष की आयु सीमा का सिद्धांत भी अभी अमल से दूर रखना पड़ रहा है। इन परिस्थितियों में इण्डिया गठबंधन को कमजोर करने के लिये नरेंद्र मोदी और अमित शाह किसी भी हद तक जा सकते हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी को अक्षम प्रमाणित करने के लिये कांग्रेस की राज्य सरकारों को अस्थिर करके उन्हें भाजपा में शामिल होने की परिस्थितियों बनाई जा सकती हैं। जब राहुल गांधी ने पार्टी के भीतर भाजपा के स्लीपर सैल होने की बात की थी उसके बाद कांग्रेस के भीतर भी असहजता की स्थिति पैदा हुई है। हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने जब राहुल गांधी पर कांग्रेस को कमजोर करने का आरोप लगाया तो प्रदेश के एक भी कांग्रेस नेता ने इसका जवाब नहीं दिया। क्या इसे महज एक संयोग माना जा सकता है या यह एक प्रयोग था।</span></p>
<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"> </span></p></div><div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" /></span></p>
<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;">उपराष्ट्रपति के चुनाव में एन.डी.ए. के उम्मीदवार सी.पी.राधाकृष्णन को बड़ी जीत हुई उन्हें इण्डिया गठबंधन के उम्मीदवार के मुकाबले 452 मत मिले हैं जबकि इण्डिया गठबंधन के जस्टिस रेड्डी को 300 मत मिले हैं। इस चुनाव में पन्द्रह मत अवैध पाये गये हैं और तेरह सांसदों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया। एन.डी.ए. के उम्मीदवार की जीत को गृह मंत्री अमित शाह के कुशल राजनीतिक प्रबंधन का कमाल मान जा रहा है। गृह मंत्री के पास ई.डी. और सी.बी.आई. जैसे हथियार हैं और इन हथियारों का भी परोक्ष/अपरोक्ष में इस्तेमाल होने की चर्चाएं भी सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से उठ खड़ी हुई हैं। इन चर्चाओं को इसलिये अधिमान देना पड़ रहा है क्योंकि देश की राजनीति में इन हथियारों का इस्तेमाल 2014 के चुनावों के बाद से एक बड़ी चर्चा का विषय बन चुका है। उपराष्ट्रपति का यह चुनाव जिस तरह के राजनीतिक वातावरण में हुआ है उसमें इन चर्चाओं को नकारा भी नहीं जा सकता। चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर एक लंबे अरसे से सवाल उठते आ रहे हैं। आज यह सवाल कांग्रेस नेता राहुल गांधी के प्रमाणिक खुलासे के बाद ‘‘वोट चोरी’’ के एक बड़े अभियान तक पहुंच गये हैं। बिहार में एस.आई.आर को लेकर चुनाव आयोग और सर्वाेच्च न्यायालय में बहस जिस मोड़ तक जा पहुंची है वह अपने में ही बहुत कुछ कह जाती है। </span><br /><span style="font-size: small;">इस पृष्ठभूमि में उपराष्ट्रपति चुनाव के आंकड़े अपने में बहुत बड़ी बहस को अंजाम दे जाते हैं। इण्डिया गठबंधन की एकता पर पहला सवाल खड़ा होता है। क्योंकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस चुनाव का परिणाम आने से पहले ही यह दावा किया था कि इण्डिया ब्लॉक के सभी तीन सौ पन्द्रह सांसदों ने मतदान किया है। परिणाम आने पर इंडिया ब्लॉक को तीन सौ वोट मिले पन्द्रह वोट अवैध घोषित हुये। इन अवैध मतों पर चर्चा कांग्रेस नेता शशि थरूर और मनीष तिवारी के ब्यानों के बाद ज्यादा गंभीर हो जाती है। इसी कड़ी में तेरह सांसदों का मतदान में भाग ही न लेना और भी गंभीर सवाल खड़े कर देता है। क्योंकि मतदान से पहले किसी भी सांसद ने उपराष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों को लेकर कुछ नहीं कहा था। जबकि इस चुनाव में कोई भी दल अपने सांसदों को सचेतक जारी नहीं किये हुये था। क्योंकि इसका प्रावधान ही नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आज भी हमारे सांसद राष्ट्रीय महत्व के राजनीतिक प्रश्नों पर अपनी राय नहीं रख पा रहे हैं। इसी के साथ पन्द्रह सांसदों के मतों का अवैध पाया जाना यह सवाल खड़ा करता है कि क्या हमारे सांसदों को वोट डालना ही नहीं आता है या यह एक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था। इस पर आने वाले दिनों में खुलासे आने की संभावना है। </span><br /><span style="font-size: small;">जिन राजनीतिक परिस्थितियों में उपराष्ट्रपति का चुनाव आया और मतदान हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया है कि ‘‘वोट चोरी’’ के जनान्दोलन में सरकार के लिये स्थितियां सहज नहीं रही हैं। यदि भारत जोड़ो यात्रा से भाजपा का आंकड़ा दो सौ चालीस पर आकर रुक सकता है तो निश्चित तौर पर वोट चोरी के आरोप का प्रतिफल बहुत बड़ा होगा। क्योंकि यह इसी आरोप का प्रतिफल है कि भाजपा को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलना कठिन होता जा रहा है। इसी आरोप के कारण प्रधानमंत्री का पच्चहत्तर वर्ष की आयु सीमा का सिद्धांत भी अभी अमल से दूर रखना पड़ रहा है। इन परिस्थितियों में इण्डिया गठबंधन को कमजोर करने के लिये नरेंद्र मोदी और अमित शाह किसी भी हद तक जा सकते हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी को अक्षम प्रमाणित करने के लिये कांग्रेस की राज्य सरकारों को अस्थिर करके उन्हें भाजपा में शामिल होने की परिस्थितियों बनाई जा सकती हैं। जब राहुल गांधी ने पार्टी के भीतर भाजपा के स्लीपर सैल होने की बात की थी उसके बाद कांग्रेस के भीतर भी असहजता की स्थिति पैदा हुई है। हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने जब राहुल गांधी पर कांग्रेस को कमजोर करने का आरोप लगाया तो प्रदेश के एक भी कांग्रेस नेता ने इसका जवाब नहीं दिया। क्या इसे महज एक संयोग माना जा सकता है या यह एक प्रयोग था।</span></p>
<p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"> </span></p></div>वोट चोरी के आरोपों से राजनीतिक संकट बढ़ा2025-09-09T04:21:58+00:002025-09-09T04:21:58+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2925-2025-09-09-04-21-58Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><br /><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />राहुल गांधी ने वोट चोरी का जिस प्रामाणिकता के साथ खुलासा देश की जनता के सामने रखा है उससे पूरे देश में चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार की विश्वसनीयता पर बहुत ही गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। क्योंकि इन आरोपों पर चुनाव आयोग अपना प्रमाणिक रिकॉर्ड जनता में जारी करके अपना स्पष्टीकरण देने की बजाये राहुल गांधी से ही शपथ पत्र की मांग करके और भी प्रश्नित हो गया है। वोट चोरी का आरोप एक जन मुद्दा बन चुका है और आम आदमी को यह समझ आ गया है कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल का ही पक्षधर बनकर रह गया है। वोट चोरी के आरोप पर जिस तरह का जन समर्थन राहुल गांधी को मिला है उससे स्पष्ट हो गया है की आने वाले समय में यह मुद्दा देश की राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदल देगा। क्योंकि इस जन मुद्दे पर से ध्यान भटकाने के लिये जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी की स्वर्गवासी मां को मंच से गाली देने का खेल खेला गया और गाली देने वाला एक भाजपा का ही कार्यकर्ता निकला उससे सत्ता पक्ष की हताशा ही जनता के सामने आयी है। </span><br /><span style="font-size: small;">इस समय इस गाली वाले मुद्दे पर जिस तरह से भाजपा ने कांग्रेस नेतृत्व से सार्वजनिक क्षमा याचना की मांग की है उससे वह पुराने सारे दृश्य जिनमें प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक भाजपा नेताओं द्वारा स्वयं सोनिया गांधी और शशि थरूर की पत्नी पर जिस तरह की भाषाओं का इस्तेमाल करते हुये उन्हें संबोधित किया गया था एकदम नए सिरे से चर्चा में आ गये हैं। भाजपा के एक भी नेता द्वारा उन अपशब्दों पर एक बार भी खेद व्यक्त नहीं किया गया। बल्कि इसी दौरान भाजपा सांसद कंगना रनौत को लेकर भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने जिस तरह के आरोप प्रधानमंत्री पर लगाये हैं और पूरी भाजपा डॉ. स्वामी को लेकर एकदम मौन साधकर बैठ गयी है उससे स्थिति और भी गंभीर हो गयी है। इन्हीं आरोपों के दौरान प्रधानमंत्री की डिग्री को लेकर जो सवाल उठे हैं उन पर भी भाजपा नेताओं की ओर से कोई प्रतिक्रियाएं नहीं आयी हैं। प्रधानमंत्री मोदी और गौतम अडानी को लेकर जिस तरह का विवाद अमेरिकी अदालत के माध्यम से सामने आया है उससे भी प्रधानमंत्री की छवि पर कई गंभीर प्रश्न चिन्ह स्वतः ही लग गये हैं। भाजपा का पर्याय बन चुके प्रधानमंत्री पर जिस तरह के सवाल खड़े हो गये हैं उनका परिणाम गंभीर होगा यह तय है। </span><br /><span style="font-size: small;">पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के पद त्याग पर उठी चर्चाओं ने भाजपा और मोदी के राजनीतिक चरित्र पर जिस तरह के सवाल खड़े किये हैं उससे स्थिति और भी सन्देहास्पद हो गयी है। भाजपा के इस राजनीतिक चरित्र पर भी सवाल उठने लग पड़े हैं कि भाजपा का साथ देने वाले दलों का राजनीतिक भविष्य कितना सुरक्षित रह पाता है। पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा के इस चरित्र का प्रमाण है। कुल मिलाकर जिस तरह से राहुल गांधी ने वोट चोरी का आरोप लगाने से पूर्व इस संद्धर्भ में पुख्ता दस्तावेजी प्रमाण जूटा कर चुनाव आयोग और इससे लाभान्वित होती रही भाजपा की राजनीति पर हमला बोला है उससे पूरे देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर जो प्रश्न चिन्ह खड़े हुए हैं उसका जवाब चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार से नहीं आ पा रहा है। बल्कि प्रधानमंत्री व्यक्तिगत तौर पर जिस तरह के सवालों से घिर गये हैं उसके परिणाम भाजपा की राजनीतिक सेहत के लिए नुकसानदेह प्रमाणित होंगे। क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय ने बिहार की एस.आई.आर. पर जिस तरह से चुनाव आयोग को घेरा है उससे सारा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया है। ऐसी स्थितियां बन गयी हैं जिनसे केंद्र की सरकार पर संकट आता नजर आ रहा है। इस राजनीतिक परिदृश्य में यदि राहुल गांधी कांग्रेस के भीतर बैठे भाजपा के स्लीपर सैलों को चिन्हित करके बाहर का रास्ता न दिखा पाये तो इससे राहुल को कांग्रेस के अन्दर भी एक बड़ी लड़ाई छेड़नी पड़ेगी। क्योंकि देश की राजनीति इस समय जिस मोड़ पर पहुंच गयी है उसमें इस तरह के भीतरघात का सबसे अधिक डर रहता है। क्योंकि आसानी से कोई सत्ता नहीं छोड़ता है। </span></p></div><div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><br /><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />राहुल गांधी ने वोट चोरी का जिस प्रामाणिकता के साथ खुलासा देश की जनता के सामने रखा है उससे पूरे देश में चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार की विश्वसनीयता पर बहुत ही गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। क्योंकि इन आरोपों पर चुनाव आयोग अपना प्रमाणिक रिकॉर्ड जनता में जारी करके अपना स्पष्टीकरण देने की बजाये राहुल गांधी से ही शपथ पत्र की मांग करके और भी प्रश्नित हो गया है। वोट चोरी का आरोप एक जन मुद्दा बन चुका है और आम आदमी को यह समझ आ गया है कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल का ही पक्षधर बनकर रह गया है। वोट चोरी के आरोप पर जिस तरह का जन समर्थन राहुल गांधी को मिला है उससे स्पष्ट हो गया है की आने वाले समय में यह मुद्दा देश की राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदल देगा। क्योंकि इस जन मुद्दे पर से ध्यान भटकाने के लिये जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी की स्वर्गवासी मां को मंच से गाली देने का खेल खेला गया और गाली देने वाला एक भाजपा का ही कार्यकर्ता निकला उससे सत्ता पक्ष की हताशा ही जनता के सामने आयी है। </span><br /><span style="font-size: small;">इस समय इस गाली वाले मुद्दे पर जिस तरह से भाजपा ने कांग्रेस नेतृत्व से सार्वजनिक क्षमा याचना की मांग की है उससे वह पुराने सारे दृश्य जिनमें प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक भाजपा नेताओं द्वारा स्वयं सोनिया गांधी और शशि थरूर की पत्नी पर जिस तरह की भाषाओं का इस्तेमाल करते हुये उन्हें संबोधित किया गया था एकदम नए सिरे से चर्चा में आ गये हैं। भाजपा के एक भी नेता द्वारा उन अपशब्दों पर एक बार भी खेद व्यक्त नहीं किया गया। बल्कि इसी दौरान भाजपा सांसद कंगना रनौत को लेकर भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने जिस तरह के आरोप प्रधानमंत्री पर लगाये हैं और पूरी भाजपा डॉ. स्वामी को लेकर एकदम मौन साधकर बैठ गयी है उससे स्थिति और भी गंभीर हो गयी है। इन्हीं आरोपों के दौरान प्रधानमंत्री की डिग्री को लेकर जो सवाल उठे हैं उन पर भी भाजपा नेताओं की ओर से कोई प्रतिक्रियाएं नहीं आयी हैं। प्रधानमंत्री मोदी और गौतम अडानी को लेकर जिस तरह का विवाद अमेरिकी अदालत के माध्यम से सामने आया है उससे भी प्रधानमंत्री की छवि पर कई गंभीर प्रश्न चिन्ह स्वतः ही लग गये हैं। भाजपा का पर्याय बन चुके प्रधानमंत्री पर जिस तरह के सवाल खड़े हो गये हैं उनका परिणाम गंभीर होगा यह तय है। </span><br /><span style="font-size: small;">पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के पद त्याग पर उठी चर्चाओं ने भाजपा और मोदी के राजनीतिक चरित्र पर जिस तरह के सवाल खड़े किये हैं उससे स्थिति और भी सन्देहास्पद हो गयी है। भाजपा के इस राजनीतिक चरित्र पर भी सवाल उठने लग पड़े हैं कि भाजपा का साथ देने वाले दलों का राजनीतिक भविष्य कितना सुरक्षित रह पाता है। पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा के इस चरित्र का प्रमाण है। कुल मिलाकर जिस तरह से राहुल गांधी ने वोट चोरी का आरोप लगाने से पूर्व इस संद्धर्भ में पुख्ता दस्तावेजी प्रमाण जूटा कर चुनाव आयोग और इससे लाभान्वित होती रही भाजपा की राजनीति पर हमला बोला है उससे पूरे देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर जो प्रश्न चिन्ह खड़े हुए हैं उसका जवाब चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार से नहीं आ पा रहा है। बल्कि प्रधानमंत्री व्यक्तिगत तौर पर जिस तरह के सवालों से घिर गये हैं उसके परिणाम भाजपा की राजनीतिक सेहत के लिए नुकसानदेह प्रमाणित होंगे। क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय ने बिहार की एस.आई.आर. पर जिस तरह से चुनाव आयोग को घेरा है उससे सारा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया है। ऐसी स्थितियां बन गयी हैं जिनसे केंद्र की सरकार पर संकट आता नजर आ रहा है। इस राजनीतिक परिदृश्य में यदि राहुल गांधी कांग्रेस के भीतर बैठे भाजपा के स्लीपर सैलों को चिन्हित करके बाहर का रास्ता न दिखा पाये तो इससे राहुल को कांग्रेस के अन्दर भी एक बड़ी लड़ाई छेड़नी पड़ेगी। क्योंकि देश की राजनीति इस समय जिस मोड़ पर पहुंच गयी है उसमें इस तरह के भीतरघात का सबसे अधिक डर रहता है। क्योंकि आसानी से कोई सत्ता नहीं छोड़ता है। </span></p></div>जिम्मेदार तन्त्र की जवाबदेही तय होनी चाहिये2025-08-31T16:21:19+00:002025-08-31T16:21:19+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2920-2025-08-31-16-21-19Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />इस बार हिमाचल में बरसात ने जिस तरह का कर बरपाया है और उससे जो बुनियादी सवाल खड़े हुये हैं उन पर समय रहते गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। अन्यथा सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणियां को घटते समय नहीं लगेगा। सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि यदि समय रहते सही कदम नहीं उठाये गये तो प्रदेश देश के मानचित्र से गायब हो जायेगा। सर्वाेच्च न्यायालय की इस चिन्ता के बाद एन.जी.टी. ने भी एक समाचार का संज्ञान लेते हुये टी.सी.पी., शहरी विकास, पर्यावरण विज्ञान एवं तकनीकी और क्लाइमेट चेंज, राज्य प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड तथा देहरादून स्थित पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को नोटिस जारी करके अनियन्त्रित निर्माणों पर उनके जवाब तलब किये हैं। यह चिन्ता और संज्ञान अपने में बहुत गंभीर है। सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद यह लगा था कि विधानसभा सत्र में समूचा सदन इस भविष्य के सवाल पर गंभीरता से चिन्तन करेगा। परन्तु ऐसा हो नहीं सका है। हमारे माननीय केवल केन्द्र से प्रदेश को आपदा ग्रस्त क्षेत्र घोषित करने के प्रस्ताव तक ही सीमित रहे हैं। एन.जी.टी. ने जिस तरह से सारे संबद्ध विभागों से जवाब तलब किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारे विभाग कहीं न कहीं अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहे हैं। यह विभाग अपनी जिम्मेदारियां क्यों नहीं निभा पायें हैं? राजनीतिक दबाव कितना हावी रहा है यह स्थितियां अब स्पष्ट होने का वक्त आ गया है। </span><br /><span style="font-size: small;">स्मरणीय है कि 1971 में किन्नौर में आये भूकंप का असर शिमला के लक्कड़ बाजार और रिज तक पड़ा था। लक्कड़ बाजार कितना धंस गया था यह आज भी देखा जा सकता है। रिज को संभालने का काम तब से आज तक चल रहा है और आज रिवाली मार्केट को खतरा पैदा हो गया है क्योंकि जिस तरह का निर्माण उस क्षेत्रा में चल रहा है यह उसका प्रभाव है। शिमला में अवैध निर्माणों को बहाल करने के लिये नौ बार रिटेंशन पॉलिसीयां लायी गयी। एन.जी.टी. में मामला गया था और एन.जी.टी. ने स्पष्ट निर्देश दिये थे की अढ़ाई मंजिल से ज्यादा का निर्माण नहीं किया जायेगा? यदि आज एन.जी.टी. के फैसले के बाद हुये निर्माणों की ही सही जानकारी ली जाये तो पता चल जायेगा कि इस फैसले का कितना पालन हुआ है। चंबा में रवि अपने मूल बहाव से 65 किलोमीटर गायब हो गयी है यह रिपोर्ट प्रदेश के तत्कालिक वरिष्ठ नौकरशाह अभय शुक्ला की है। प्रदेश उच्च न्यायालय को भी यह रिपोर्ट सौंपी गयी थी। लेकिन इस रिपोर्ट पर कितना अमल हुआ है? शायद कोई अमल नहीं हुआ है और आज चंबा में रवि के कारण हुआ नुकसान सबके सामने है। </span><br /><span style="font-size: small;">इस बार जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई दशकों तक नहीं हो पायेगी। सरकार पहले ही कर्ज के आसरे चल रही हैं। बादल फटने की जितनी घटनाएं इस बार हुई है इतनी पहले कभी नहीं हुई हैं। यह घटनाएं उन क्षेत्रों में ज्यादा हुई हैं जो जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभाव क्षेत्र में आते हैं। बहुत सारी परियोजनाएं स्वयं खतरे की जद़ में आ गयी हैं। इसलिये यह चिन्तन का विषय हो जाता है की क्या इस तरह की बड़ी परियोजनाएं प्रदेश हित में हैं। जल विद्युत परियोजनाएं, फोरलेन सड़कों का निर्माण और धार्मिक पर्यटन की अवधारणा क्या इस प्रदेश के लिये आवश्यक है? क्या यह प्रदेश बड़े उद्योगों के लिए सही है। जितना जान माल का नुकसान इस बार हुआ है उससे यह चर्चा उठ गयी है कि इस देवभूमि से देवता अब रूष्ट हो गई हैं। इस चर्चा को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। क्योंकि देव स्थलों को पर्यटन स्थल नहीं बनाया जा सकता। </span><br /><span style="font-size: small;">एन.जी.टी. ने जितने विभागों से रिपोर्ट तलब की है उन सारे विभागों के अधिकारियों और कर्मचारियों से यह शपत पत्र लिये जाने चाहिये कि उन्होंने स्वयं निर्माण मानकों की अवहेलना तो नहीं की है। इसी के साथ शीर्ष प्रशासन और राजनेताओं से भी यह शपथ पत्र लिये जाने चाहिये कि उन्होंने मानकों की कितनी अवहेलना की है। क्योंकि जब तक जिम्मेदार लोगों को जवाब देह नहीं बनाया जायेगा तब तक यह विनाश नहीं रुकेगा।</span></p></div><div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />इस बार हिमाचल में बरसात ने जिस तरह का कर बरपाया है और उससे जो बुनियादी सवाल खड़े हुये हैं उन पर समय रहते गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। अन्यथा सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणियां को घटते समय नहीं लगेगा। सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि यदि समय रहते सही कदम नहीं उठाये गये तो प्रदेश देश के मानचित्र से गायब हो जायेगा। सर्वाेच्च न्यायालय की इस चिन्ता के बाद एन.जी.टी. ने भी एक समाचार का संज्ञान लेते हुये टी.सी.पी., शहरी विकास, पर्यावरण विज्ञान एवं तकनीकी और क्लाइमेट चेंज, राज्य प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड तथा देहरादून स्थित पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को नोटिस जारी करके अनियन्त्रित निर्माणों पर उनके जवाब तलब किये हैं। यह चिन्ता और संज्ञान अपने में बहुत गंभीर है। सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद यह लगा था कि विधानसभा सत्र में समूचा सदन इस भविष्य के सवाल पर गंभीरता से चिन्तन करेगा। परन्तु ऐसा हो नहीं सका है। हमारे माननीय केवल केन्द्र से प्रदेश को आपदा ग्रस्त क्षेत्र घोषित करने के प्रस्ताव तक ही सीमित रहे हैं। एन.जी.टी. ने जिस तरह से सारे संबद्ध विभागों से जवाब तलब किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारे विभाग कहीं न कहीं अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहे हैं। यह विभाग अपनी जिम्मेदारियां क्यों नहीं निभा पायें हैं? राजनीतिक दबाव कितना हावी रहा है यह स्थितियां अब स्पष्ट होने का वक्त आ गया है। </span><br /><span style="font-size: small;">स्मरणीय है कि 1971 में किन्नौर में आये भूकंप का असर शिमला के लक्कड़ बाजार और रिज तक पड़ा था। लक्कड़ बाजार कितना धंस गया था यह आज भी देखा जा सकता है। रिज को संभालने का काम तब से आज तक चल रहा है और आज रिवाली मार्केट को खतरा पैदा हो गया है क्योंकि जिस तरह का निर्माण उस क्षेत्रा में चल रहा है यह उसका प्रभाव है। शिमला में अवैध निर्माणों को बहाल करने के लिये नौ बार रिटेंशन पॉलिसीयां लायी गयी। एन.जी.टी. में मामला गया था और एन.जी.टी. ने स्पष्ट निर्देश दिये थे की अढ़ाई मंजिल से ज्यादा का निर्माण नहीं किया जायेगा? यदि आज एन.जी.टी. के फैसले के बाद हुये निर्माणों की ही सही जानकारी ली जाये तो पता चल जायेगा कि इस फैसले का कितना पालन हुआ है। चंबा में रवि अपने मूल बहाव से 65 किलोमीटर गायब हो गयी है यह रिपोर्ट प्रदेश के तत्कालिक वरिष्ठ नौकरशाह अभय शुक्ला की है। प्रदेश उच्च न्यायालय को भी यह रिपोर्ट सौंपी गयी थी। लेकिन इस रिपोर्ट पर कितना अमल हुआ है? शायद कोई अमल नहीं हुआ है और आज चंबा में रवि के कारण हुआ नुकसान सबके सामने है। </span><br /><span style="font-size: small;">इस बार जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई दशकों तक नहीं हो पायेगी। सरकार पहले ही कर्ज के आसरे चल रही हैं। बादल फटने की जितनी घटनाएं इस बार हुई है इतनी पहले कभी नहीं हुई हैं। यह घटनाएं उन क्षेत्रों में ज्यादा हुई हैं जो जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभाव क्षेत्र में आते हैं। बहुत सारी परियोजनाएं स्वयं खतरे की जद़ में आ गयी हैं। इसलिये यह चिन्तन का विषय हो जाता है की क्या इस तरह की बड़ी परियोजनाएं प्रदेश हित में हैं। जल विद्युत परियोजनाएं, फोरलेन सड़कों का निर्माण और धार्मिक पर्यटन की अवधारणा क्या इस प्रदेश के लिये आवश्यक है? क्या यह प्रदेश बड़े उद्योगों के लिए सही है। जितना जान माल का नुकसान इस बार हुआ है उससे यह चर्चा उठ गयी है कि इस देवभूमि से देवता अब रूष्ट हो गई हैं। इस चर्चा को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। क्योंकि देव स्थलों को पर्यटन स्थल नहीं बनाया जा सकता। </span><br /><span style="font-size: small;">एन.जी.टी. ने जितने विभागों से रिपोर्ट तलब की है उन सारे विभागों के अधिकारियों और कर्मचारियों से यह शपत पत्र लिये जाने चाहिये कि उन्होंने स्वयं निर्माण मानकों की अवहेलना तो नहीं की है। इसी के साथ शीर्ष प्रशासन और राजनेताओं से भी यह शपथ पत्र लिये जाने चाहिये कि उन्होंने मानकों की कितनी अवहेलना की है। क्योंकि जब तक जिम्मेदार लोगों को जवाब देह नहीं बनाया जायेगा तब तक यह विनाश नहीं रुकेगा।</span></p></div>अब जेल से सरकार नहीं चलेगी-कुछ सवाल2025-08-24T16:52:25+00:002025-08-24T16:52:25+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2915-2025-08-24-16-52-25Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />अब सरकार जेल से नहीं चलेगी। मोदी सरकार ने इस आश्य का संविधान संशोधन विधेयक इस मानसून सत्र में लाने का प्रयास किया है। जैसे ही यह विधेयक गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में रखा तो उस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया विपक्ष की सामने आयी उससे यह विधेयक प्रवर समिति को सौंपना पड़ गया। प्रवर समिति इस पर विचार विमर्श करके पुनः सरकार को सौंपेगी और तब संभव है कि यह विधेयक पारित हो जाये। प्रधानमंत्री मोदी इस प्रस्तावित विधेयक को जिस तरह से जनता में रख रहे हैं उससे सरकार की नीयत और नीति दोनों पर ही कई गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। इसलिए इस पर एक व्यापक बहस की आवश्यकता हो जाती है। स्मरणीय है कि 2014 में जब नरेन्द्र मोदी ने अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल के रूप में सत्ता संभाली थी तब उस आन्दोलन के मुख्य बिन्दु ही भ्रष्टाचार और काला धन थे। इन्हीं की जांच के लिये लोकपाल की मांग इस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा बन गया था। भ्रष्टाचार के आरोप का आधार सी.ए.जी. विनोद राय की 2G स्पेक्ट्रम पर आयी रिपोर्ट थी। लाखों करोड़ का भ्रष्टाचार होने का आंकड़ा इस रिपोर्ट में परोसा गया था। काले धन पर बाबा रामदेव के ब्यानों के आंकड़े थे। आरोप गंभीर थे और देश ने इन्हें सच मानकर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि लोकपाल का मसौदा डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ही पारित कर गयी थी। तब मोदी भाजपा ने देश से वायदा किया था कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करेंगे। उस वातावरण में कांग्रेस और अन्य दलों से कई नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया था।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">उस परिदृश्य में सरकार बदल गयी। विनोद राय की रिपोर्ट पर जांच चली और विनोद राय ने अदालत में शपथ पत्र देकर ब्यान दिया कि उन्हें गणना करने में चूक लगी थी और ऐसा कोई घपला हुआ ही नहीं था। इस ब्यान के बाद विनोद राय को बी.सी.सी.आई. में एक बड़ा पद दे दिया गया और जनता भ्रष्टाचार के इस सनसनीखेज आरोप को भूल गयी। यह मोदी सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी कारवाई थी। काले धन के आंकड़ों पर बाबा रामदेव चुप्पी साध गये। स्वयं सुप्रीम कोर्ट की प्रताड़ना का एक मामले में शिकार हुये। आज काले धन का आंकड़ा नोटबंदी के बावजूद पहले से दो गुना हो चुका है। विपक्ष के जितने भी नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे ई.डी और सी.बी.आई. ने कारवाई की वह सब भाजपा में जाकर पाक साफ हो गये हैं। आज शायद दल बदल कर भाजपा में आये नेताओं का आंकड़ा संसद में मूल भाजपाइयों से बड़ा है। ई.डी. आयकर और सी.बी.आई. प्रताड़ना के हथियार मात्र बनकर रह गये हैं। ई.डी. की शक्तियों का किसी समय अनुमोदन करने वाला सुप्रीम कोर्ट ही आज उस पर सबसे गंभीर सवाल उठाने लग गया है। संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने के वायदे का प्रतिफल आज यह है कि भाजपा में ही अपराधियों की संख्या सबसे ज्यादा हो गई है। इस परिदृश्य में यह आशंका एकदम जायज हो जाती है कि किसी भी मंत्री/मुख्यमंत्री के पीछे सी.बी.आई./ई.डी. लगाकर उसे गिरफ्तार करवा दो और तीस दिन तक जमानत न होने दो अपने आप सत्ता से व्यक्ति बाहर हो जायेगा। अरविन्द केजरीवाल और सत्येंद्र जैन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि इस संशोधन से तीन माह के भीतर ही देश विपक्ष रहित हो जायेगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">आज केंद्र सरकार और चुनाव आयोग जिस तरह से वोट चोरी के पुख्ता दस्तावेजी प्रमाणों के साथ आरोपों में घिर चुके हैं उससे बाहर निकलने क लियेे यह प्रस्तावित संशोधन एक बड़ा सहज हथियार प्रमाणित होगा। लेकिन आज वोट चोरी का आरोप जिस प्रामाणिकता के साथ जन आन्दोलन की शक्ल लेता जा रहा है उसके परिदृश्य में आज हर आदमी इस पर गंभीरता से विचार करने लग गया है। क्योंकि 2014 और 2019 में जो वायदे देश के साथ किये गये थे आज उनकी प्रतिपूर्ति एक जन सवाल बनती जा रही है। तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था का यह सबसे बड़ा कड़वा सच है कि देश में अस्सी करोड़ लोग अपने लिये दो वक्त की रोटी के लिये भी सरकार पर निर्भर बना दिये गये हैं। आज अमेरिका, रूस और चीन के साथ हमारे आयात-निर्यात के आंकड़े ही इसका प्रमाण है कि हम उत्पादन में कहां खड़े हैं। सभी जगह व्यापार असन्तुलन है। इस परिदृश्य में इस तरह के संशोधनों से विपक्ष की आवाज को बन्द करने के प्रयासों का प्रतिफल सरकार के अपने लिये घातक होगा।</span></div></div><div class="feed-description"><div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />अब सरकार जेल से नहीं चलेगी। मोदी सरकार ने इस आश्य का संविधान संशोधन विधेयक इस मानसून सत्र में लाने का प्रयास किया है। जैसे ही यह विधेयक गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में रखा तो उस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया विपक्ष की सामने आयी उससे यह विधेयक प्रवर समिति को सौंपना पड़ गया। प्रवर समिति इस पर विचार विमर्श करके पुनः सरकार को सौंपेगी और तब संभव है कि यह विधेयक पारित हो जाये। प्रधानमंत्री मोदी इस प्रस्तावित विधेयक को जिस तरह से जनता में रख रहे हैं उससे सरकार की नीयत और नीति दोनों पर ही कई गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। इसलिए इस पर एक व्यापक बहस की आवश्यकता हो जाती है। स्मरणीय है कि 2014 में जब नरेन्द्र मोदी ने अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल के रूप में सत्ता संभाली थी तब उस आन्दोलन के मुख्य बिन्दु ही भ्रष्टाचार और काला धन थे। इन्हीं की जांच के लिये लोकपाल की मांग इस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा बन गया था। भ्रष्टाचार के आरोप का आधार सी.ए.जी. विनोद राय की 2G स्पेक्ट्रम पर आयी रिपोर्ट थी। लाखों करोड़ का भ्रष्टाचार होने का आंकड़ा इस रिपोर्ट में परोसा गया था। काले धन पर बाबा रामदेव के ब्यानों के आंकड़े थे। आरोप गंभीर थे और देश ने इन्हें सच मानकर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि लोकपाल का मसौदा डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ही पारित कर गयी थी। तब मोदी भाजपा ने देश से वायदा किया था कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करेंगे। उस वातावरण में कांग्रेस और अन्य दलों से कई नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया था।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">उस परिदृश्य में सरकार बदल गयी। विनोद राय की रिपोर्ट पर जांच चली और विनोद राय ने अदालत में शपथ पत्र देकर ब्यान दिया कि उन्हें गणना करने में चूक लगी थी और ऐसा कोई घपला हुआ ही नहीं था। इस ब्यान के बाद विनोद राय को बी.सी.सी.आई. में एक बड़ा पद दे दिया गया और जनता भ्रष्टाचार के इस सनसनीखेज आरोप को भूल गयी। यह मोदी सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी कारवाई थी। काले धन के आंकड़ों पर बाबा रामदेव चुप्पी साध गये। स्वयं सुप्रीम कोर्ट की प्रताड़ना का एक मामले में शिकार हुये। आज काले धन का आंकड़ा नोटबंदी के बावजूद पहले से दो गुना हो चुका है। विपक्ष के जितने भी नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे ई.डी और सी.बी.आई. ने कारवाई की वह सब भाजपा में जाकर पाक साफ हो गये हैं। आज शायद दल बदल कर भाजपा में आये नेताओं का आंकड़ा संसद में मूल भाजपाइयों से बड़ा है। ई.डी. आयकर और सी.बी.आई. प्रताड़ना के हथियार मात्र बनकर रह गये हैं। ई.डी. की शक्तियों का किसी समय अनुमोदन करने वाला सुप्रीम कोर्ट ही आज उस पर सबसे गंभीर सवाल उठाने लग गया है। संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने के वायदे का प्रतिफल आज यह है कि भाजपा में ही अपराधियों की संख्या सबसे ज्यादा हो गई है। इस परिदृश्य में यह आशंका एकदम जायज हो जाती है कि किसी भी मंत्री/मुख्यमंत्री के पीछे सी.बी.आई./ई.डी. लगाकर उसे गिरफ्तार करवा दो और तीस दिन तक जमानत न होने दो अपने आप सत्ता से व्यक्ति बाहर हो जायेगा। अरविन्द केजरीवाल और सत्येंद्र जैन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि इस संशोधन से तीन माह के भीतर ही देश विपक्ष रहित हो जायेगा।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">आज केंद्र सरकार और चुनाव आयोग जिस तरह से वोट चोरी के पुख्ता दस्तावेजी प्रमाणों के साथ आरोपों में घिर चुके हैं उससे बाहर निकलने क लियेे यह प्रस्तावित संशोधन एक बड़ा सहज हथियार प्रमाणित होगा। लेकिन आज वोट चोरी का आरोप जिस प्रामाणिकता के साथ जन आन्दोलन की शक्ल लेता जा रहा है उसके परिदृश्य में आज हर आदमी इस पर गंभीरता से विचार करने लग गया है। क्योंकि 2014 और 2019 में जो वायदे देश के साथ किये गये थे आज उनकी प्रतिपूर्ति एक जन सवाल बनती जा रही है। तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था का यह सबसे बड़ा कड़वा सच है कि देश में अस्सी करोड़ लोग अपने लिये दो वक्त की रोटी के लिये भी सरकार पर निर्भर बना दिये गये हैं। आज अमेरिका, रूस और चीन के साथ हमारे आयात-निर्यात के आंकड़े ही इसका प्रमाण है कि हम उत्पादन में कहां खड़े हैं। सभी जगह व्यापार असन्तुलन है। इस परिदृश्य में इस तरह के संशोधनों से विपक्ष की आवाज को बन्द करने के प्रयासों का प्रतिफल सरकार के अपने लिये घातक होगा।</span></div></div>क्या वोट चोरी का आरोप जनआन्दोलन की नयी जमीन होगा2025-08-18T05:48:18+00:002025-08-18T05:48:18+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2913-2025-08-18-05-48-18Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की बुनियाद निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव व्यवस्था पर आश्रित है यह एक स्थापित सत्य है। परन्तु जब चुनाव व्यवस्था पर ही वोट चोरी के आरोप लग जायें तो निश्चित रूप से लोकतंत्र खतरे में आ जाता है। यह खतरा उस समय और बढ़ जाता है जब इस वोट चोरी से सत्ता में आये शासक और इस चुनाव व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी संभाल रहा संचालन तंत्र इस वोट चोरी के आरोप को मानने से इन्कार कर दे। संसद में नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिस तरह के आरोप चुनाव आयोग पर लगाये हैं और सत्ता पक्ष की ओर से इन आरोपों का जवाब देने के लिये जिस तरह से पूर्व मंत्री हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर मैदान में उतरे उससे इन वोट चोरी के आरोपों का स्वतः ही सत्यापन हो जाता है। इस समय राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों से जिस तरह का राजनीतिक वातावरण पूरे देश में निर्मित हो गया है उसने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया है। ऐसी संभावना बनती जा रही है कि यह मुद्दा एक जन आन्दोलन की शक्ल लेने जा रहा है। </span><br /><span style="font-size: small;">वैसे तो जब से ईवीएम मशीन के माध्यम से 1998 से वोट डाले जाने लगे हैं तभी से इन मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते आये हैं। 2009-10 में जब लाल कृष्ण आडवाणी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तब इन मशीनों की व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठे थे। भाजपा नेता जी वी एल नरसिम्हा राव ने तब इन आरोपों पर एक पुस्तक तक लिखी थी। आज यह आरोप इन ईवीएम मशीनों से चलकर चुनाव आयोग का संचालन कर रहे तंत्र तक पहुंच गये हैं। भाजपा नीत एनडीए 2014 से केन्द्र की सत्ता पर आसीन है और हर चुनाव में चुनावों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन पहली बार चुनावों में हुई धांधली पर तथ्य परक अध्ययन करके राहुल गांधी सामने आये हैं। स्मरणीय है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने ‘‘अबकी बार चार सौ पार’’ का नारा लगाया था लेकिन यह आंकड़ा दो सौ चालीस पर आकर रुक गया और सरकार बनाने के लिये नीतीश और नायडू का सहारा लेना पड़ा। लोकसभा चुनावों के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में जिस पैमाने की धांधलियां हुई उसकी पराकाष्ठा तब सामने आयी जब हरियाणा में एक विधानसभा चुनाव का डिजिटल रिकॉर्ड लेने के लिये सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद भी यह रिकॉर्ड नहीं मिला और मामला पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय पहुंचा तथा अदालत ने यह रिकॉर्ड देने के आदेश कर दिये। लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश के बाद रात को नियम में संशोधन करके रिकॉर्ड देने से इन्कार कर दिया गया। इससे यह आशंका और बलवती हो गई कि चुनाव आयोग में ऐसा कुछ अवश्य हुआ है जिसे सार्वजनिक होने से रोकने के लिये नियम में ही संशोधन कर दिया गया। </span><br /><span style="font-size: small;">यह स्थितियां बनी जिनसे पूरे अनुसंधान के साथ कर्नाटक की महादेवपुरा सीट का अध्ययन किया गया। इस अनुसंधान के बाद वोट चोरी के पांच रास्ते सामने आये। यह पांच चोर रास्ते इस प्रकार सामने आये (1) डुप्लीकेट वोट (2) फर्जी और अप्रमाणित पते (3) एक छोटे से घर में 80 से अधिक वोट (4) फर्जी फोटो (5) फॉर्म छः का दुरुपयोग । इनके विश्लेषण से सामने आया कि 11965 वोट डुप्लीकेट (2) 10452 वोट एक ही पते पर दर्ज (3) 4509 वोट फर्जी और अप्रमाणित पर दर्ज (4) 4132 वोट अमान्य फोटो के साथ दर्ज (5) 33692 मामले ऐसे हैं जहां व्यक्ति चार-चार अलग पोलिंग पर दर्ज। आदित्य श्री वास्तव कर्नाटक में दो, उत्तर प्रदेश में एक और महाराष्ट्र में एक पोलिंग बूथ पर दर्ज है और सभी जगह वोट डाले हैं। इण्डिया टुडे की टीम ने अपनी जांच में एक ही पते पर 80 वोट दर्ज होने के आरोप को सही पाया है। इस तरह के आरोप कई लोकसभा क्षेत्रों में सामने आये हैं। इन आरोपों पर चुनाव आयोग का जवाब हास्यस्पद रूप से सामने आया है क्योंकि चुनाव आयोग अपना डाटा सार्वजनिक नहीं कर रहा है। जबकि यह आरोप सीधे अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिये कर्नाटक में मामला दर्ज किया जा सकता है। बिहार में चुनाव आयोग ने जिस तरह से 65 लाख मतदाताओं को सूची से निकला था उस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सारी स्थिति को बदल दिया। इन वोट चोरी के आरोपों के साथ जिस तरह के सवाल पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और स्व.राज्यपाल सत्यपाल मलिक के प्रति भारत सरकार के आचरण से उभरें हैं उससे यह स्पष्ट हो गया है की चुनाव आयोग की विश्वसनीयता के साथ केन्द्र सरकार की नीयत और नीति पर भी गंभीर सवाल खड़े होते जा रहे हैं। यदि प्रधानमंत्री इन उठते सवालों पर स्वयं जवाब नहीं देते हैं तो परिस्थितियों बहुत जटिल हो जायेंगी।</span><br /><br /></p></div><div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की बुनियाद निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव व्यवस्था पर आश्रित है यह एक स्थापित सत्य है। परन्तु जब चुनाव व्यवस्था पर ही वोट चोरी के आरोप लग जायें तो निश्चित रूप से लोकतंत्र खतरे में आ जाता है। यह खतरा उस समय और बढ़ जाता है जब इस वोट चोरी से सत्ता में आये शासक और इस चुनाव व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी संभाल रहा संचालन तंत्र इस वोट चोरी के आरोप को मानने से इन्कार कर दे। संसद में नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिस तरह के आरोप चुनाव आयोग पर लगाये हैं और सत्ता पक्ष की ओर से इन आरोपों का जवाब देने के लिये जिस तरह से पूर्व मंत्री हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर मैदान में उतरे उससे इन वोट चोरी के आरोपों का स्वतः ही सत्यापन हो जाता है। इस समय राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों से जिस तरह का राजनीतिक वातावरण पूरे देश में निर्मित हो गया है उसने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया है। ऐसी संभावना बनती जा रही है कि यह मुद्दा एक जन आन्दोलन की शक्ल लेने जा रहा है। </span><br /><span style="font-size: small;">वैसे तो जब से ईवीएम मशीन के माध्यम से 1998 से वोट डाले जाने लगे हैं तभी से इन मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते आये हैं। 2009-10 में जब लाल कृष्ण आडवाणी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तब इन मशीनों की व्यवस्था पर गंभीर सवाल उठे थे। भाजपा नेता जी वी एल नरसिम्हा राव ने तब इन आरोपों पर एक पुस्तक तक लिखी थी। आज यह आरोप इन ईवीएम मशीनों से चलकर चुनाव आयोग का संचालन कर रहे तंत्र तक पहुंच गये हैं। भाजपा नीत एनडीए 2014 से केन्द्र की सत्ता पर आसीन है और हर चुनाव में चुनावों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन पहली बार चुनावों में हुई धांधली पर तथ्य परक अध्ययन करके राहुल गांधी सामने आये हैं। स्मरणीय है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने ‘‘अबकी बार चार सौ पार’’ का नारा लगाया था लेकिन यह आंकड़ा दो सौ चालीस पर आकर रुक गया और सरकार बनाने के लिये नीतीश और नायडू का सहारा लेना पड़ा। लोकसभा चुनावों के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव हुए। इन चुनावों में जिस पैमाने की धांधलियां हुई उसकी पराकाष्ठा तब सामने आयी जब हरियाणा में एक विधानसभा चुनाव का डिजिटल रिकॉर्ड लेने के लिये सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद भी यह रिकॉर्ड नहीं मिला और मामला पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय पहुंचा तथा अदालत ने यह रिकॉर्ड देने के आदेश कर दिये। लेकिन उच्च न्यायालय के आदेश के बाद रात को नियम में संशोधन करके रिकॉर्ड देने से इन्कार कर दिया गया। इससे यह आशंका और बलवती हो गई कि चुनाव आयोग में ऐसा कुछ अवश्य हुआ है जिसे सार्वजनिक होने से रोकने के लिये नियम में ही संशोधन कर दिया गया। </span><br /><span style="font-size: small;">यह स्थितियां बनी जिनसे पूरे अनुसंधान के साथ कर्नाटक की महादेवपुरा सीट का अध्ययन किया गया। इस अनुसंधान के बाद वोट चोरी के पांच रास्ते सामने आये। यह पांच चोर रास्ते इस प्रकार सामने आये (1) डुप्लीकेट वोट (2) फर्जी और अप्रमाणित पते (3) एक छोटे से घर में 80 से अधिक वोट (4) फर्जी फोटो (5) फॉर्म छः का दुरुपयोग । इनके विश्लेषण से सामने आया कि 11965 वोट डुप्लीकेट (2) 10452 वोट एक ही पते पर दर्ज (3) 4509 वोट फर्जी और अप्रमाणित पर दर्ज (4) 4132 वोट अमान्य फोटो के साथ दर्ज (5) 33692 मामले ऐसे हैं जहां व्यक्ति चार-चार अलग पोलिंग पर दर्ज। आदित्य श्री वास्तव कर्नाटक में दो, उत्तर प्रदेश में एक और महाराष्ट्र में एक पोलिंग बूथ पर दर्ज है और सभी जगह वोट डाले हैं। इण्डिया टुडे की टीम ने अपनी जांच में एक ही पते पर 80 वोट दर्ज होने के आरोप को सही पाया है। इस तरह के आरोप कई लोकसभा क्षेत्रों में सामने आये हैं। इन आरोपों पर चुनाव आयोग का जवाब हास्यस्पद रूप से सामने आया है क्योंकि चुनाव आयोग अपना डाटा सार्वजनिक नहीं कर रहा है। जबकि यह आरोप सीधे अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिये कर्नाटक में मामला दर्ज किया जा सकता है। बिहार में चुनाव आयोग ने जिस तरह से 65 लाख मतदाताओं को सूची से निकला था उस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सारी स्थिति को बदल दिया। इन वोट चोरी के आरोपों के साथ जिस तरह के सवाल पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और स्व.राज्यपाल सत्यपाल मलिक के प्रति भारत सरकार के आचरण से उभरें हैं उससे यह स्पष्ट हो गया है की चुनाव आयोग की विश्वसनीयता के साथ केन्द्र सरकार की नीयत और नीति पर भी गंभीर सवाल खड़े होते जा रहे हैं। यदि प्रधानमंत्री इन उठते सवालों पर स्वयं जवाब नहीं देते हैं तो परिस्थितियों बहुत जटिल हो जायेंगी।</span><br /><br /></p></div> चुनाव प्रक्रिया पर बहस जरूरी2025-08-13T14:49:42+00:002025-08-13T14:49:42+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2909-2025-08-13-14-49-42Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />इस समय देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें यह सवाल हर रोज बड़ा होता जा रहा है की आंखिर ऐसा हो क्यों रहा है? यह सब कब तक चलता रहेगा? इससे बाहर निकलने का पहला कदम क्या हो सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का चयन लोगों के वोट से होता है। इसके लिए हर पांच वर्ष बाद पंचायत से लेकर संसद तक सभी चुनाव की प्रक्रिया से गुजरते हैं। सांसदों से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों तक सब को मानदेय दिया जा रहा है। हर सरकार के कार्यकाल में इस मानदेय में बढ़ौतरी हो रही है। लेकिन क्या जिस अनुपात में यह बढ़ौतरी होती है उसी अनुपात में आम आदमी के संसाधन भी बढ़ते हैं शायद नहीं। इन लोक सेवकों का यह मानदेय हर बार इसलिये बढ़ाया जाता है कि जिस चुनावी प्रक्रिया को पार करके यह लोग लोकसेवा तक पहुंचते हैं वह लगातार महंगी होती जा रही है। क्योंकि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों पर किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा ही तय नहीं है। आज जब चुनावी चंदे के लिये चुनावी बॉण्डस का प्रावधान कर दिया गया है तब से सारी चुनावी प्रक्रिया कुछ लखपतियों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी है। इसी कारण से आज हर राजनीतिक दल से चुनावी टिकट पाने के लिये करोड़पति होना और साथ में कुछ आपराधिक मामलों का तगमा होना आवश्यक हो गया है। इसलिये तो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन अभी तक भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा भी जुमला बनकर रह गया है कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाउंगा।<br />पिछले लंबे अरसे से हर चुनाव में ईवीएम को लेकर सवाल उठते आ रहे हैं। इन सवालों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता को शुन्य बनाकर रख दिया है। ईवीएम की निष्पक्षता पर सबसे पहले भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने एक याचिका के माध्यम से सवाल उठाये थे और तब वीवीपैट इसके साथ जोड़ी गयी थी। इस तरह चुनावी प्रक्रिया से लेकर ईवीएम तक सब की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठ चुके हैं। जिन देशों ने ईवीएम के माध्यम से चुनाव करवाने की पहल की थी वह सब इस पर उठते सवालों के चलते इसे बंद कर चुके हैं। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि चुनाव प्रक्रिया पर आम आदमी का विश्वास बहाल करने के लिए ईवीएम का उपयोग बंद करके बैलट पेपर के माध्यम से ही चुनाव करवाने पर आना होगा। फिर विश्व भर में अधिकांश में ईवीएम की जगह मत पत्रों के माध्यम से चुनाव की व्यवस्था कर दी गयी है। इसलिए आज देश की जनता को सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना चाहिये कि चुनाव मतपत्रों से करवाने पर सहमति बनायें। इससे चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने में मदद मिलेगी। इसी के साथ चुनाव को धन से मुक्त करने के लिये प्रचार के वर्तमान माध्यम को खत्म करके ग्राम सभाओं के माध्यम से मतदाताओं तक जाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। सरकारों को अंतिम छः माह में कोई भी राजनीतिक और आर्थिक फैसले लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये। इस काल में सरकार को अपनी कारगुजारीयों पर एक श्वेत पत्र जारी करके उसे ग्राम सभाओं के माध्यम से बहस में लाना चाहिये। ग्राम सभाओं का आयोजन राजनीतिक दलों की जगह प्रशासन द्वारा किया जाना चाहिये।<br />जहां सरकार के कामकाज पर श्वेत पत्र पर बहस हो। उसी तर्ज पर अगले चुनाव के लिये हर दल से उसका एजेण्डा लेकर उस पर इन्हीं ग्राम सभाओं में चर्चाएं करवायी जानी चाहिये। हर दल और चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वह देश-प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर एजेंडे में वक्तव्य जारी करें। उसमें यह बताये कि वह अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए देश-प्रदेश पर न तो कर्ज का भार और न ही नये करों का बोझ डालेगा। मतदाता को चयन तो राजनीतिक दल या व्यक्ति की विचारधारा का करना है। विचारधारा को हर मतदाता तक पहुंचाने का इससे सरल और सहज साधन नहीं हो सकता। इस सुझाव पर बेबाक गंभीरता से विचार करने और इसे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक बढ़ाने-पहुंचाने का आग्रह रहेगा। यह एक प्रयास है ताकि आने वाली पीढ़ियां यह आरोप न लगायें कि हमने सोचने का जोखिम नही उठाया था।</p></div><div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />इस समय देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें यह सवाल हर रोज बड़ा होता जा रहा है की आंखिर ऐसा हो क्यों रहा है? यह सब कब तक चलता रहेगा? इससे बाहर निकलने का पहला कदम क्या हो सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का चयन लोगों के वोट से होता है। इसके लिए हर पांच वर्ष बाद पंचायत से लेकर संसद तक सभी चुनाव की प्रक्रिया से गुजरते हैं। सांसदों से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों तक सब को मानदेय दिया जा रहा है। हर सरकार के कार्यकाल में इस मानदेय में बढ़ौतरी हो रही है। लेकिन क्या जिस अनुपात में यह बढ़ौतरी होती है उसी अनुपात में आम आदमी के संसाधन भी बढ़ते हैं शायद नहीं। इन लोक सेवकों का यह मानदेय हर बार इसलिये बढ़ाया जाता है कि जिस चुनावी प्रक्रिया को पार करके यह लोग लोकसेवा तक पहुंचते हैं वह लगातार महंगी होती जा रही है। क्योंकि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों पर किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा ही तय नहीं है। आज जब चुनावी चंदे के लिये चुनावी बॉण्डस का प्रावधान कर दिया गया है तब से सारी चुनावी प्रक्रिया कुछ लखपतियों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी है। इसी कारण से आज हर राजनीतिक दल से चुनावी टिकट पाने के लिये करोड़पति होना और साथ में कुछ आपराधिक मामलों का तगमा होना आवश्यक हो गया है। इसलिये तो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन अभी तक भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा भी जुमला बनकर रह गया है कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाउंगा।<br />पिछले लंबे अरसे से हर चुनाव में ईवीएम को लेकर सवाल उठते आ रहे हैं। इन सवालों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता को शुन्य बनाकर रख दिया है। ईवीएम की निष्पक्षता पर सबसे पहले भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने एक याचिका के माध्यम से सवाल उठाये थे और तब वीवीपैट इसके साथ जोड़ी गयी थी। इस तरह चुनावी प्रक्रिया से लेकर ईवीएम तक सब की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठ चुके हैं। जिन देशों ने ईवीएम के माध्यम से चुनाव करवाने की पहल की थी वह सब इस पर उठते सवालों के चलते इसे बंद कर चुके हैं। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि चुनाव प्रक्रिया पर आम आदमी का विश्वास बहाल करने के लिए ईवीएम का उपयोग बंद करके बैलट पेपर के माध्यम से ही चुनाव करवाने पर आना होगा। फिर विश्व भर में अधिकांश में ईवीएम की जगह मत पत्रों के माध्यम से चुनाव की व्यवस्था कर दी गयी है। इसलिए आज देश की जनता को सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना चाहिये कि चुनाव मतपत्रों से करवाने पर सहमति बनायें। इससे चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने में मदद मिलेगी। इसी के साथ चुनाव को धन से मुक्त करने के लिये प्रचार के वर्तमान माध्यम को खत्म करके ग्राम सभाओं के माध्यम से मतदाताओं तक जाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। सरकारों को अंतिम छः माह में कोई भी राजनीतिक और आर्थिक फैसले लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये। इस काल में सरकार को अपनी कारगुजारीयों पर एक श्वेत पत्र जारी करके उसे ग्राम सभाओं के माध्यम से बहस में लाना चाहिये। ग्राम सभाओं का आयोजन राजनीतिक दलों की जगह प्रशासन द्वारा किया जाना चाहिये।<br />जहां सरकार के कामकाज पर श्वेत पत्र पर बहस हो। उसी तर्ज पर अगले चुनाव के लिये हर दल से उसका एजेण्डा लेकर उस पर इन्हीं ग्राम सभाओं में चर्चाएं करवायी जानी चाहिये। हर दल और चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वह देश-प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर एजेंडे में वक्तव्य जारी करें। उसमें यह बताये कि वह अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए देश-प्रदेश पर न तो कर्ज का भार और न ही नये करों का बोझ डालेगा। मतदाता को चयन तो राजनीतिक दल या व्यक्ति की विचारधारा का करना है। विचारधारा को हर मतदाता तक पहुंचाने का इससे सरल और सहज साधन नहीं हो सकता। इस सुझाव पर बेबाक गंभीरता से विचार करने और इसे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक बढ़ाने-पहुंचाने का आग्रह रहेगा। यह एक प्रयास है ताकि आने वाली पीढ़ियां यह आरोप न लगायें कि हमने सोचने का जोखिम नही उठाया था।</p></div>क्या सर्वाेच्च न्यायालय की चेतावनी से सबक सीखेगी सरकार2025-08-05T18:50:32+00:002025-08-05T18:50:32+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2906-2025-08-05-18-50-32Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />सर्वाेच्च न्यायालय ने चेतावनी दी है कि यदि हिमाचल की पर्यावरणीय स्थितियों में सुधार नहीं हुआ तो प्रदेश जल्द ही नक्शे से विलुप्त हो जायेगा। यह चेतावनी सरकार द्वारा नोटिफाई ग्रीन बेल्ट एरिया को लेकर आयी है। इस नोटिफिकेशन को चुनौती देने वाली याचिका को अस्वीकार करते हुए शीर्ष अदालत नेे यह चिंता और चेतावनी व्यक्त की है। ऐसी चेतावनियां और चिंताएं प्रदेश उच्च न्यायालय भी पूर्व में रिटैन्शन पॉलिसीयों को लेकर देता रहा है जिन पर कभी अमल नहीं किया गया है। इस बार बरसात में जिस तरह से बादल फटने और लैण्ड स्लाइड्स की घटनाओं में बढ़ौतरी हुई है उससे एक स्थायी डर का माहौल निर्मित हो गया है। जितनी जान माल की हानि इस बार हुई है ऐसी पहले कभी नहीं हुई है। प्रदेश का कोई जिला इस विनाश से अछूता नहीं रहा है। मण्डी जिले में जो त्रासदी घटी है उसने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया है। क्योंकि आज जिस मुहाने पर प्रदेश आ पहुंचा उसके लिए यहां की सरकारें और प्रशासन ही जिम्मेदार रहा है। इसलिए आज आम को अपने स्तर पर इस पर सजग होकर सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ खड़े होना होगा। 1977 से लेकर आज तक आयी हर सरकार ने इस विनाश में योगदान किया है। हिमाचल पहाड़ी राज्य है लेकिन हमारी सरकारें यह भूल कर इसका विकास मैदानों की तर्ज पर करने की नीतियां बनाती चली गई। जिसका परिणाम है कि इस बार बरसात ने करीब दो सौ लोगों की आहुति ले ली है। </span><br /><span style="font-size: small;">हिमाचल निर्माता डॉ. परमार ने भू-सुधार अधिनियम में यह सुनिश्चित किया था कि कोई भी गैर कृषक हिमाचल में सरकार की पूर्व अनुमति के बिना जमीन नहीं खरीद सकता। सरकार की अनुमति के साथ भी केवल मकान बनाने लायक ही जमीन खरीद सकता है। परन्तु हमारी सरकारों ने सबसे ज्यादा लूट और छूट इसी 118 की अनुमति में कर दी। हर सरकार पर हिमाचल ऑन सेल के आरोप लगे हैं। धारा 118 की अनुमतियों को लेकर चार बार तो जांच आयोग गठित हो चुके हैं परन्तु किसी भी जांच का परिणाम ऐसा नहीं रहा है कि यह दुरुपयोग रुक गया हो। आज चलते-चलते हालात प्रदेश में रेरा के गठन तक पहुंच गये हैं। इस धांधली में राजनेताओं से लेकर शीर्ष अफसरशाही सब बराबर के भागीदार रहे हैं। हिमाचल भूकंप रोधी जोन चार में आता है इसलिये यहां पर बहुमंजिलें निर्माणों पर रोक है। प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी तक सब इस पर चिंताएं व्यक्त कर चुके हैं। लेकिन इस चिंता का परिणाम जमीन पर नहीं उत्तर पाया है। शिमला को लेकर तो यहां तक अध्ययन आ चुका है कि एक हल्के भूकंप के झटके में चालीस हजार लोगों की जान जा सकती है। प्रदेश उच्च न्यायालय इसको लेकर कड़ी चेतावनी दे चुका है। लेकिन इस चेतावनी के बावजूद शिमला में नौ बार रिटैन्शन पॉलिसीयां आ गयी। शिमला हरित पट्टिया चिन्हित है परन्तु उनकी अनदेखी शीर्ष पर बैठे लोगों से शुरू हुई है। आज भी वर्तमान सरकार ने बेसमैन्ट और ऐटीक को लेकर जो नियमों में बदलाव किया है क्या उसमें कहीं इस त्रासदी का कोई प्रभाव दिखता है? शायद नहीं। </span><br /><span style="font-size: small;">1977 में प्रदेश में औद्योगिक क्षेत्र और पन विद्युत परियोजनाओं तथा सीमेंट उद्योग की तरफ सरकारों की सोच गई। 1977 के दौर में जो उद्योग सब्सिडी के लिए प्रदेश में स्थापित हुये क्या उनमें से आज एक प्रतिशत भी दिखते हैं। शायद नहीं। पनविद्युत परियोजनाओं सीमेंट उद्योगों के लिए सैकड़ो बीघा जमीने लैण्ड सीलिंग की अवहेलना करके इन उद्योगों को दे दी गयी। चंबा 65 किलोमीटर तक रावी हैडटेल परियोजनाओं की भेंट चढ़ गयी। उच्च न्यायालय में यह रिपोर्ट लगी हुई है। किन्नौर में स्थानीय लोगों ने इन परियोजनाओं का विरोध किया है क्या उसका कोई असर हुआ है। इन परियोजनाओं से जो बचा था उसे फोरलेन परियोजनाओं की भेंट चढ़ा दिया। आज यदि समय रहते प्रदेश के विकास की अवधारणा पर ईमानदारी से विचार करके उसके अनुरूप कदम न उठाए गए तो सर्वाेच्च न्यायालय की चेतावनी को सही साबित होने में बड़ा समय नहीं लगेगा। शिमला और धर्मशाला में जो नुकसान हुआ है क्या उससे स्मार्ट सिटी परियोजनाओं पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता नहीं है?</span></p></div><div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />सर्वाेच्च न्यायालय ने चेतावनी दी है कि यदि हिमाचल की पर्यावरणीय स्थितियों में सुधार नहीं हुआ तो प्रदेश जल्द ही नक्शे से विलुप्त हो जायेगा। यह चेतावनी सरकार द्वारा नोटिफाई ग्रीन बेल्ट एरिया को लेकर आयी है। इस नोटिफिकेशन को चुनौती देने वाली याचिका को अस्वीकार करते हुए शीर्ष अदालत नेे यह चिंता और चेतावनी व्यक्त की है। ऐसी चेतावनियां और चिंताएं प्रदेश उच्च न्यायालय भी पूर्व में रिटैन्शन पॉलिसीयों को लेकर देता रहा है जिन पर कभी अमल नहीं किया गया है। इस बार बरसात में जिस तरह से बादल फटने और लैण्ड स्लाइड्स की घटनाओं में बढ़ौतरी हुई है उससे एक स्थायी डर का माहौल निर्मित हो गया है। जितनी जान माल की हानि इस बार हुई है ऐसी पहले कभी नहीं हुई है। प्रदेश का कोई जिला इस विनाश से अछूता नहीं रहा है। मण्डी जिले में जो त्रासदी घटी है उसने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया है। क्योंकि आज जिस मुहाने पर प्रदेश आ पहुंचा उसके लिए यहां की सरकारें और प्रशासन ही जिम्मेदार रहा है। इसलिए आज आम को अपने स्तर पर इस पर सजग होकर सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ खड़े होना होगा। 1977 से लेकर आज तक आयी हर सरकार ने इस विनाश में योगदान किया है। हिमाचल पहाड़ी राज्य है लेकिन हमारी सरकारें यह भूल कर इसका विकास मैदानों की तर्ज पर करने की नीतियां बनाती चली गई। जिसका परिणाम है कि इस बार बरसात ने करीब दो सौ लोगों की आहुति ले ली है। </span><br /><span style="font-size: small;">हिमाचल निर्माता डॉ. परमार ने भू-सुधार अधिनियम में यह सुनिश्चित किया था कि कोई भी गैर कृषक हिमाचल में सरकार की पूर्व अनुमति के बिना जमीन नहीं खरीद सकता। सरकार की अनुमति के साथ भी केवल मकान बनाने लायक ही जमीन खरीद सकता है। परन्तु हमारी सरकारों ने सबसे ज्यादा लूट और छूट इसी 118 की अनुमति में कर दी। हर सरकार पर हिमाचल ऑन सेल के आरोप लगे हैं। धारा 118 की अनुमतियों को लेकर चार बार तो जांच आयोग गठित हो चुके हैं परन्तु किसी भी जांच का परिणाम ऐसा नहीं रहा है कि यह दुरुपयोग रुक गया हो। आज चलते-चलते हालात प्रदेश में रेरा के गठन तक पहुंच गये हैं। इस धांधली में राजनेताओं से लेकर शीर्ष अफसरशाही सब बराबर के भागीदार रहे हैं। हिमाचल भूकंप रोधी जोन चार में आता है इसलिये यहां पर बहुमंजिलें निर्माणों पर रोक है। प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी तक सब इस पर चिंताएं व्यक्त कर चुके हैं। लेकिन इस चिंता का परिणाम जमीन पर नहीं उत्तर पाया है। शिमला को लेकर तो यहां तक अध्ययन आ चुका है कि एक हल्के भूकंप के झटके में चालीस हजार लोगों की जान जा सकती है। प्रदेश उच्च न्यायालय इसको लेकर कड़ी चेतावनी दे चुका है। लेकिन इस चेतावनी के बावजूद शिमला में नौ बार रिटैन्शन पॉलिसीयां आ गयी। शिमला हरित पट्टिया चिन्हित है परन्तु उनकी अनदेखी शीर्ष पर बैठे लोगों से शुरू हुई है। आज भी वर्तमान सरकार ने बेसमैन्ट और ऐटीक को लेकर जो नियमों में बदलाव किया है क्या उसमें कहीं इस त्रासदी का कोई प्रभाव दिखता है? शायद नहीं। </span><br /><span style="font-size: small;">1977 में प्रदेश में औद्योगिक क्षेत्र और पन विद्युत परियोजनाओं तथा सीमेंट उद्योग की तरफ सरकारों की सोच गई। 1977 के दौर में जो उद्योग सब्सिडी के लिए प्रदेश में स्थापित हुये क्या उनमें से आज एक प्रतिशत भी दिखते हैं। शायद नहीं। पनविद्युत परियोजनाओं सीमेंट उद्योगों के लिए सैकड़ो बीघा जमीने लैण्ड सीलिंग की अवहेलना करके इन उद्योगों को दे दी गयी। चंबा 65 किलोमीटर तक रावी हैडटेल परियोजनाओं की भेंट चढ़ गयी। उच्च न्यायालय में यह रिपोर्ट लगी हुई है। किन्नौर में स्थानीय लोगों ने इन परियोजनाओं का विरोध किया है क्या उसका कोई असर हुआ है। इन परियोजनाओं से जो बचा था उसे फोरलेन परियोजनाओं की भेंट चढ़ा दिया। आज यदि समय रहते प्रदेश के विकास की अवधारणा पर ईमानदारी से विचार करके उसके अनुरूप कदम न उठाए गए तो सर्वाेच्च न्यायालय की चेतावनी को सही साबित होने में बड़ा समय नहीं लगेगा। शिमला और धर्मशाला में जो नुकसान हुआ है क्या उससे स्मार्ट सिटी परियोजनाओं पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता नहीं है?</span></p></div>क्या एक और संवैधानिक पद की हत्या है धनखड़ के साथ हुआ व्यवहार2025-07-26T17:48:10+00:002025-07-26T17:48:10+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2902-2025-07-26-17-48-10Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />संसद सत्र के पहले ही दिन राज्यसभा के सभापति और देश के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुये अपने पद से जैसे ही त्यागपत्र देने की घोषणा की तो सब चौंक गये थे कि अचानक क्या हो गया। लेकिन जैसे ही इस त्यागपत्र की परतंे खुलकर यह सामने आया कि त्यागपत्र दिया नहीं है बल्कि लिया गया है तो सारे देश की नजरें इस पर आ गयी हैं कि आखिर उप-राष्ट्रपति ने ऐसा क्या कर दिया कि उन्हें तुरन्त प्रभाव से अपना पद छोड़ने के लिये बाध्य किया गया। देश की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार उप-राष्ट्रपति का पद प्रधानमंत्री से बड़ा होता है। इस त्यागपत्र के बाद जिस तरह का राजनीतिक व्यवहार जगदीप धनखड़ के साथ हुआ है उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि उन्हें पूरी तरह अपमानित किया गया है। इस अपमान के कारणों का खुलासा प्रधानमंत्री स्वयंम् या उनका कोई प्रतिनिधि अभी तक नहीं कर पाया है। ऐसे में यह देश का हक बनता है कि उसे वास्तविक कारणों की जानकारी दी जाये क्योंकि यह देश से जुड़ा सवाल है। देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति के साथ ऐसा आचरण हो जाये और उसके कारणों की जानकारी देश की जनता को न दी जाये तो इसे लोकतंत्र की कौन सी संज्ञा दी जायेगी? क्या देश में सही में लोकतंत्र खतरे में आ गया है? देश का शासन संविधान के अनुसार चल रहा है या किसी तानाशाह के इशारे पर चल रहा है? यदि प्रधानमंत्री यह देश के सामने स्पष्ट नहीं करते हैं तो इससे आने वाले समय के लिये अच्छे संकेत नहीं जायेंगे। यदि देश का उप-राष्ट्रपति ही सुरक्षित नहीं है तो और कौन हो सकता है? यदि उप-राष्ट्रपति ने देश हित के खिलाफ कोई अपराध कर दिया है तब तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि वह अपराध जल्द से जल्द देश के सामने लाया जाये। यदि ऐसा नहीं होता है तो यह माना जायेगा कि यह कृत्य संवैधानिक पद की सुनियोजित हत्या है। </span><br /><span style="font-size: small;">उप-राष्ट्रपति का पद खाली होने के बाद इसी संसद सत्र में इस पर चुनाव करवाया जायेगा। चुनाव आयोग इस प्रक्रिया में लग गया है। चुनाव आयोग हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनावों में जिस कदर विवादित हो चुका है और बिहार विधान सभा चुनावों की तैयारीयों में जिस तरह से मतदाता सूचियों के विशेष संघन निरीक्षण SIR पर विपक्ष सवाल उठाता जा रहा है और सत्ता पक्ष तथा चुनाव आयोग अपने को सर्वाेच्च न्यायालय से भी बड़ा मानकर चल रहा है वह सही में लोकतंत्र के लिये एक बड़ी चुनौती होगी। चुनाव आयोग और सरकार के रुख को उपराष्ट्रपति पद के साथ हुए आचरण के साथ यदि जोड़कर देखा जाये तो तस्वीर बहुत भयानक हो जाती है। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों को यह सोच कर चलना होगा कि यदि उनका आचरण पद की मर्यादा के अनुसार नहीं होगा तो जनता को स्वयं सड़कों पर उतरना होगा। हम बच्चों को राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों के अधिकार और कर्तव्य पढ़ाते हैं। क्या किसी व्यवस्था में यदि इन पदों की जलालत पढा़नी पड़े तो क्या पढ़ाएंगे। इन पदों पर बैठे हुए लोगों को भी अपनी गरिमा और मर्यादा की स्वयं रक्षा करनी होगी। </span><br /><span style="font-size: small;">इस समय केन्द्र सरकार अकेली भाजपा की नहीं है उसके सहयोगी दल भी हैं। सहयोगी दलों में अपने-अपने वर्चस्व के सवाल उठने लग पड़े हैं। ऐसे में जिस तरह का आचरण जगदीप धनखड़ के साथ सामने आया है वह एन.डी.ए. के घटक दलों के लिये भी एक बड़ी चेतावनी प्रमाणित होगी। यदि बिहार विधानसभा चुनावों में किन्हीं कारणों से एन.डी.ए. की सरकार नहीं बन पाती है तो उसके बाद एन.डी.ए. का बिखरना शुरू हो जायेगा क्योंकि सब धनखड़ के साथ हुए व्यवहार को सामने रखेंगे। </span></p></div><div class="feed-description"><p style="text-align: justify;"><span style="font-size: small;"><img src="images/sampadki.jpg" border="0" width="300" style="float: left; margin-left: 5px; margin-right: 5px; border: 1px solid black;" />संसद सत्र के पहले ही दिन राज्यसभा के सभापति और देश के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुये अपने पद से जैसे ही त्यागपत्र देने की घोषणा की तो सब चौंक गये थे कि अचानक क्या हो गया। लेकिन जैसे ही इस त्यागपत्र की परतंे खुलकर यह सामने आया कि त्यागपत्र दिया नहीं है बल्कि लिया गया है तो सारे देश की नजरें इस पर आ गयी हैं कि आखिर उप-राष्ट्रपति ने ऐसा क्या कर दिया कि उन्हें तुरन्त प्रभाव से अपना पद छोड़ने के लिये बाध्य किया गया। देश की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार उप-राष्ट्रपति का पद प्रधानमंत्री से बड़ा होता है। इस त्यागपत्र के बाद जिस तरह का राजनीतिक व्यवहार जगदीप धनखड़ के साथ हुआ है उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि उन्हें पूरी तरह अपमानित किया गया है। इस अपमान के कारणों का खुलासा प्रधानमंत्री स्वयंम् या उनका कोई प्रतिनिधि अभी तक नहीं कर पाया है। ऐसे में यह देश का हक बनता है कि उसे वास्तविक कारणों की जानकारी दी जाये क्योंकि यह देश से जुड़ा सवाल है। देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति के साथ ऐसा आचरण हो जाये और उसके कारणों की जानकारी देश की जनता को न दी जाये तो इसे लोकतंत्र की कौन सी संज्ञा दी जायेगी? क्या देश में सही में लोकतंत्र खतरे में आ गया है? देश का शासन संविधान के अनुसार चल रहा है या किसी तानाशाह के इशारे पर चल रहा है? यदि प्रधानमंत्री यह देश के सामने स्पष्ट नहीं करते हैं तो इससे आने वाले समय के लिये अच्छे संकेत नहीं जायेंगे। यदि देश का उप-राष्ट्रपति ही सुरक्षित नहीं है तो और कौन हो सकता है? यदि उप-राष्ट्रपति ने देश हित के खिलाफ कोई अपराध कर दिया है तब तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि वह अपराध जल्द से जल्द देश के सामने लाया जाये। यदि ऐसा नहीं होता है तो यह माना जायेगा कि यह कृत्य संवैधानिक पद की सुनियोजित हत्या है। </span><br /><span style="font-size: small;">उप-राष्ट्रपति का पद खाली होने के बाद इसी संसद सत्र में इस पर चुनाव करवाया जायेगा। चुनाव आयोग इस प्रक्रिया में लग गया है। चुनाव आयोग हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनावों में जिस कदर विवादित हो चुका है और बिहार विधान सभा चुनावों की तैयारीयों में जिस तरह से मतदाता सूचियों के विशेष संघन निरीक्षण SIR पर विपक्ष सवाल उठाता जा रहा है और सत्ता पक्ष तथा चुनाव आयोग अपने को सर्वाेच्च न्यायालय से भी बड़ा मानकर चल रहा है वह सही में लोकतंत्र के लिये एक बड़ी चुनौती होगी। चुनाव आयोग और सरकार के रुख को उपराष्ट्रपति पद के साथ हुए आचरण के साथ यदि जोड़कर देखा जाये तो तस्वीर बहुत भयानक हो जाती है। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों को यह सोच कर चलना होगा कि यदि उनका आचरण पद की मर्यादा के अनुसार नहीं होगा तो जनता को स्वयं सड़कों पर उतरना होगा। हम बच्चों को राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों के अधिकार और कर्तव्य पढ़ाते हैं। क्या किसी व्यवस्था में यदि इन पदों की जलालत पढा़नी पड़े तो क्या पढ़ाएंगे। इन पदों पर बैठे हुए लोगों को भी अपनी गरिमा और मर्यादा की स्वयं रक्षा करनी होगी। </span><br /><span style="font-size: small;">इस समय केन्द्र सरकार अकेली भाजपा की नहीं है उसके सहयोगी दल भी हैं। सहयोगी दलों में अपने-अपने वर्चस्व के सवाल उठने लग पड़े हैं। ऐसे में जिस तरह का आचरण जगदीप धनखड़ के साथ सामने आया है वह एन.डी.ए. के घटक दलों के लिये भी एक बड़ी चेतावनी प्रमाणित होगी। यदि बिहार विधानसभा चुनावों में किन्हीं कारणों से एन.डी.ए. की सरकार नहीं बन पाती है तो उसके बाद एन.डी.ए. का बिखरना शुरू हो जायेगा क्योंकि सब धनखड़ के साथ हुए व्यवहार को सामने रखेंगे। </span></p></div>पेड़ काटकर अतिक्रमणों से बेदखली कितनी संभव हो पायेगी?2025-07-14T04:47:02+00:002025-07-14T04:47:02+00:00https://mail.shailsamachar.com/index.php/2013-04-10-03-46-56/2899-2025-07-14-04-47-02Shail Samachar[email protected]<div class="feed-description"><div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;"><strong>शिमला/शैल।</strong> हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेशानुसार वन विभाग ने वन भूमि से अतिक्रमण हटाने की शुरुआत जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्रा से कर दी है। सैंकड़ो सब के पेड़ काट दिये गये हैं। इन पेड़ों को काटने और उस पर होने वाले अन्य खर्चाे की वसूली अतिक्रमणकर्ताओं से वसूलने के भी आदेश अदालत ने पारित किये हैं। अदालत की यह कारवाई भू-राजस्व अधिनियम 1954 की धारा 163 के तहत की जा रही है। मान्य अदालत को यह आदेश इसलिये पारित करने पड़े हैं क्योंकि उसके पास ऐसे अतिक्रमणों को नियमित करने की सरकार की ओर से न तो कोई पॉलिसी रखी गई और न ही ऐसी योजना प्रस्तावित होना सामने आया है। इन पेड़ों को काटे जाने पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं उभर रही हैं। इस मामले का राजनीतिक प्रतिफल अवश्य होगा। इसलिये इस पर व्यापक चर्चा उठाने की आवश्यकता हो जाती है। स्मरणीय है कि आपातकाल के दौरान 1975 में हर भूमिहीन ग्रामीण को दस कनाल/पांच बीघा जमीन दी गयी थी। सरकार की ओर से बाद में ऐसी जमीनों पर उगे पेड़ों का अधिकार भी इन लोगों को दे दिया गया था। इसी के साथ यह भी स्मरणीय है कि वन अधिकार कानून केंद्र सरकार का एक विशेष कानून है जो अन्य कानूनों पर भी प्रभावी होता है। सर्वाेच्च न्यायालय ने 18-4-2013 को उड़ीसा खनन निगम मामले में स्पष्ट कहा है कि जब तक वन अधिकारों का सत्यापन नहीं हो जाता तब तक वन भूमि से बेदखली को अंजाम न दिया जाये। हिमाचल में इन वन अधिकारों की विवेचना शायद अब तक नहीं हो पायी है। हिमाचल के ग्रामीण क्षेत्र के लोग बहुत सारी चीजों के लिये वनों पर आधारित रहते हैं। इसलिये वन अधिकारों की विवेचना और सत्यापन होना आवश्यक है।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">हिमाचल सरकार ने वर्ष 2000 में सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के मामलों को नियमित करने की एक योजना बनाई थी। इस योजना के तहत लोगों ने स्वेच्छा से शपथ पत्रों पर अतिक्रमण की जानकारी दी थी। उसके मुताबिक 1,23,835 बीघे में 57549 मामले विभिन्न अदालतों में लंबित चल रहे थे। वैसे प्रारंभिक जानकारी में तीन लाख मामले संज्ञान में आने की बात कही गयी थी। इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों और सैनिक विधवाओं को विशेष लाभ देने की योजना थी। लेकिन इस योजना को उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गयी और यह लागू नहीं हो पायी। लेकिन जब प्रदेश में इतने स्तर पर अतिक्रमण के मामले सामने आ गये तब राज्य सरकार का दायित्व बनता था कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर वनाधिकार अधिनियम के साये में इसका हल तलाशते। 2014-15 से यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने जनहित याचिकाओं के माध्यम से सामने है। एनजीटी ने भी इसका संज्ञान लिया है। वहां पर पीसीसीएफ ने शपथ पत्र देकर जानकारी दी है कि 2001 से 2023 के बीच 5689 हेक्टेयर वन भूमि पर 80374 अतिक्रमण के मामले पाये गये हैं। इनमें से 3097 हेक्टेयर में 9903 मामलों को सफलता पूर्वक बेदखल कर दिया गया है। अब 1995 के गोदावरमन मामले में मई 2025 में आये फैसले में अतिक्रमणों को चिन्हित करने के लिये हर जिले में डीआरओ और डीएफओ के तहत एसआईटी गठित कर दी गयी है। इनकी रिपोर्ट आने का इंतजार है।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">अतिक्रमण के इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रदेश की एक बहुत बड़ी समस्या है। इतना बड़ा अतिक्रमण राजस्व और वन अधिकारियों तथा राजनीतिक संरक्षण के बिना संभव नहीं है। इसलिये वनाधिकार अधिनियम के साये में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर इसका स्थायी हल खोजना होगा। क्योंकि इतने बड़े स्तर पर पेड़ काटकर बेदखली करने से इसका हल नहीं होगा।</span></div></div><div class="feed-description"><div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;"><strong>शिमला/शैल।</strong> हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेशानुसार वन विभाग ने वन भूमि से अतिक्रमण हटाने की शुरुआत जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्रा से कर दी है। सैंकड़ो सब के पेड़ काट दिये गये हैं। इन पेड़ों को काटने और उस पर होने वाले अन्य खर्चाे की वसूली अतिक्रमणकर्ताओं से वसूलने के भी आदेश अदालत ने पारित किये हैं। अदालत की यह कारवाई भू-राजस्व अधिनियम 1954 की धारा 163 के तहत की जा रही है। मान्य अदालत को यह आदेश इसलिये पारित करने पड़े हैं क्योंकि उसके पास ऐसे अतिक्रमणों को नियमित करने की सरकार की ओर से न तो कोई पॉलिसी रखी गई और न ही ऐसी योजना प्रस्तावित होना सामने आया है। इन पेड़ों को काटे जाने पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं उभर रही हैं। इस मामले का राजनीतिक प्रतिफल अवश्य होगा। इसलिये इस पर व्यापक चर्चा उठाने की आवश्यकता हो जाती है। स्मरणीय है कि आपातकाल के दौरान 1975 में हर भूमिहीन ग्रामीण को दस कनाल/पांच बीघा जमीन दी गयी थी। सरकार की ओर से बाद में ऐसी जमीनों पर उगे पेड़ों का अधिकार भी इन लोगों को दे दिया गया था। इसी के साथ यह भी स्मरणीय है कि वन अधिकार कानून केंद्र सरकार का एक विशेष कानून है जो अन्य कानूनों पर भी प्रभावी होता है। सर्वाेच्च न्यायालय ने 18-4-2013 को उड़ीसा खनन निगम मामले में स्पष्ट कहा है कि जब तक वन अधिकारों का सत्यापन नहीं हो जाता तब तक वन भूमि से बेदखली को अंजाम न दिया जाये। हिमाचल में इन वन अधिकारों की विवेचना शायद अब तक नहीं हो पायी है। हिमाचल के ग्रामीण क्षेत्र के लोग बहुत सारी चीजों के लिये वनों पर आधारित रहते हैं। इसलिये वन अधिकारों की विवेचना और सत्यापन होना आवश्यक है।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">हिमाचल सरकार ने वर्ष 2000 में सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के मामलों को नियमित करने की एक योजना बनाई थी। इस योजना के तहत लोगों ने स्वेच्छा से शपथ पत्रों पर अतिक्रमण की जानकारी दी थी। उसके मुताबिक 1,23,835 बीघे में 57549 मामले विभिन्न अदालतों में लंबित चल रहे थे। वैसे प्रारंभिक जानकारी में तीन लाख मामले संज्ञान में आने की बात कही गयी थी। इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों और सैनिक विधवाओं को विशेष लाभ देने की योजना थी। लेकिन इस योजना को उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गयी और यह लागू नहीं हो पायी। लेकिन जब प्रदेश में इतने स्तर पर अतिक्रमण के मामले सामने आ गये तब राज्य सरकार का दायित्व बनता था कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर वनाधिकार अधिनियम के साये में इसका हल तलाशते। 2014-15 से यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने जनहित याचिकाओं के माध्यम से सामने है। एनजीटी ने भी इसका संज्ञान लिया है। वहां पर पीसीसीएफ ने शपथ पत्र देकर जानकारी दी है कि 2001 से 2023 के बीच 5689 हेक्टेयर वन भूमि पर 80374 अतिक्रमण के मामले पाये गये हैं। इनमें से 3097 हेक्टेयर में 9903 मामलों को सफलता पूर्वक बेदखल कर दिया गया है। अब 1995 के गोदावरमन मामले में मई 2025 में आये फैसले में अतिक्रमणों को चिन्हित करने के लिये हर जिले में डीआरओ और डीएफओ के तहत एसआईटी गठित कर दी गयी है। इनकी रिपोर्ट आने का इंतजार है।</span></div>
<div style="text-align: justify;" dir="auto"><span style="font-size: small;">अतिक्रमण के इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रदेश की एक बहुत बड़ी समस्या है। इतना बड़ा अतिक्रमण राजस्व और वन अधिकारियों तथा राजनीतिक संरक्षण के बिना संभव नहीं है। इसलिये वनाधिकार अधिनियम के साये में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर इसका स्थायी हल खोजना होगा। क्योंकि इतने बड़े स्तर पर पेड़ काटकर बेदखली करने से इसका हल नहीं होगा।</span></div></div>