इस बार प्रदेश विधानसभा के लिये देहरा और जोगिन्द्रनगर से दो निर्दलीय विधायक जीत कर आये हैं। इन दोनों विधायकों ने विधायक के तौर पर शपथ ग्रहण से पहले ही भाजपा का सहयोगी सदस्य बनने के प्रयास शुरू कर दिये हैं। इनके इन प्रयासों का देहरा और जोगिन्द्रनगर के भाजपा मण्डलों ने तो विरोध किया है लेकिन भाजपा विधायक दल और पार्टी के अध्यक्ष या अन्य पदाधिकारियों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नही दी है। इनके इस प्रयास पर कांग्रेस की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। यह प्रतिक्रिया का सवाल मैं इसलिये उठा रहा हूं क्योंकि पिछले सदन में भी कुछ निर्दलीय चुनकर आये थे। सरकार कांग्रेस ने बनाई थी और यह सभी लोग कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन गये थे। इनके सहयोगी सदस्य बनने को भाजपा ने अपने मुख्य सचेतक अब शिक्षा मन्त्री सुरेश भारद्वाज के माध्यम से विधानसभा अध्यक्ष के पास दलबदल कानून के तहत चुनौती दी थी । इनकी सदस्यता रद्द करने की गुहार लगायी थी। क्योंकि दलबदल कानून के तहत एक निर्दलीय विधायक भी इस तरह से किसी दल की सदस्यता ग्रहण नही कर सकता। ऐसा करने के लिये उसे अपनी सदस्यता छोड़नी होती है यह कानूनी बाध्यता है।
पिछली बार जो याचिका दायर हुई थी उसका फैसला चुनावों से कुछ समय पूर्व ही आया था। बल्कि उस समय तक दो विधायक बलवीर वर्मा और मनोहर धीमान तो औपचारिक रूप से ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो चुके थे लेकिन हमारे विधानसभा अध्यक्ष ने यह याचिका रद्द कर दी थी। उन्होने अपने फैसले में साफ कहा है कि याचिकाकर्ता अपनी याचिका को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य नही दे पाये हैं। इस बार भी यदि यह निर्दलीय विधायक ऐसा करते हैं और कांग्रेस इसको चुनौती देती है तो तय है कि उस याचिका का फैसला भी पहले जैसा ही आयेगा क्योंकि न तो अध्यक्ष इतना नैतिक साहस दिखा पायेंगे कि वह इनके खिलाफ फैसला देकर इनकी सदस्यता को रद्द कर दें और न ही यह विधायक इतनी नैतिकता दिखा पायेंगे कि अपनी-अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर दोबारा भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत कर आयें।
राजनीति में नैतिकता की नेताओं से उम्मीद करना शायद स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री के बाद से समाप्त ही हो गया है। आज राजनीति में सविधानुसार इस तरह से सहायक सदस्य बनना और मन्त्रीयों के अतिरिक्त संसदीय सविच या मुख्य संसदीय नियुक्त किया जाना एक सामान्य राजनीतिक आचरण बन गया है। भले ही इस सबके खिलाफ संसद कानून बना चुकी है और वह लागू भी हो चुके हैं। जिन सांसदो/विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं उन मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय बहुत पहले दे चुका है। इस बार तो इन्हे पुनः दोहरा कर मार्च में इस संद्धर्भ में विशेष अदालतें गठित करके ऐसे मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने की बात की गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के अब के निर्देश पर व्यवहारिक तौर पर कितना अमल हो पायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। इस बार हमारे सदन में ही करीब एक दर्जन विधायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामलें दर्ज हैं। यदि वास्तव में ही इनके मामलों पर एक वर्ष के भीतर फैसले आ जाते हैं तो निश्चित तौर पर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जायेगा। इसलिये आज मीडिया से लेकर आम आदमी तक को यह भूमिका निभानी होगी कि वह इस संद्धर्भ में जन दबाव बनाये रखे ताकि अदालत में तय समय सीमा के भीतर यह मामले अपने अंजाम तक पहुंच जायें।
इसी संद्धर्भ में इन निर्दलीय विधायकों से भी यह अनुरोध और अपेक्षा है कि जब आप भाजपा और कांग्रेस दोनों को हराकर आये हैं तो स्पष्ट है कि आपके क्षेत्र की जनता ने इन दलों की बजाये आपके ऊपर भरोसा करके आपको समर्थन दिया है। इस समर्थन के लिये आपने अपनी जनता से जो भी वायदा किया होगा जनता ने उस पर विश्वास किया है, क्या आपने उस समय जनता से यह वायदा किया था कि चुनाव जीतने के बाद आप भाजपा या कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन जायेंगें क्या आज आप विधित रूप से सदस्यता फार्म भरकर भाजपा की सदस्यता लेने के लिये तैयार है और इसके लिये नये सिरे से चुनाव लड़ने को तैयार है। यदि आप में यह करने का साहस है तो यह करके दिखायें आपका स्वागत होगा। यदि यह नहीं कर सकते हैं तो जनता के विश्वास को ऐसे आघात मत पहुंचायें। आप अपने साधनों से चुनाव जीतकर आये हैं। भाजपा का सहयोगी सदस्य बनकर भी आप मन्त्री या अन्य कोई पद पा नही सकेंगे। ऐसे में यदि आज आप प्रदेश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का सही अध्ययन करके एक राजनीतिक विकल्प बनने का प्रयास करोगे तो शायद जनता आपको उचित समर्थन देगी। क्योंकि प्रदेश में एक तीसरे विकल्प की बहुत आवश्यकता है और इसके लिये आपके पास समय और सामर्थय दोनों ही है। जब आप सक्रिय राजनीति में आ ही गये हैं तो इस राजनीति को ईमानदारी से अध्ययन करने का प्रयास तो करें। अन्यथा आप भी राजनीतिक भीड़ का एक हिस्सा बनकर ही रह जाओगे।