तेल कीमतों से फिर उठे नीयत ओर नीति पर सवाल

Created on Tuesday, 19 September 2017 11:45
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ने से केन्द्र सरकार के फैसलों को लेकर एक बार फिर वैसी ही बहस छिड़ गयी है जो नोटबंदी के फैसले के बाद उभरी थी। यह बहस इसलिये उठी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों की तुलना में यह कीमतें अपने उच्चतम स्तर तक पहुच गयी हैं। जबकि 2014 में जब मोदी ने देश की बागडोर संभाली थी और उस समय अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की जो कीमत थी उसके मुकाबले में आज 2017 में इस कीमत में 58% की कमी आयी है। अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों को सामने रखते हुए तो पेट्रोल-डीजल की कीमत आधी रह जानी चाहिये थी लेकिन ऐसा न होकर यह अपने उच्चतम पर पहुंच गयी। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि सरकार ने एक्साईज डयूटी बढ़ा दी। 2014 में डीजल पर 3.56 रूपये डयूटी थी जो अब 17.33 रूपये हो गयी है। पेट्रोल पर यह एक्साईज डूयटी 9.48 रूपये थी जो आज 21.48 रूपये कर दी गयी है। इन तीन वर्षों में यह डूयटी 11 बार बढ़ी है और स्वभाविक है कि जब एक्साईज डयूटी बढे़गी तो कीमतें बढ़ेगी ही। लेकिन ईंधन का सबसे बड़ा स्त्रोत तेल है और माल ढुलाई का सबसे बड़ा कारक है। इसलिये जब तेल की कीमत बढ़ेगी तो परिणामस्वरूप हर चीज की कीमत बढ़ जायेगी। इसी कारण से इन तीन वर्षों में सारे आंकड़ों और दावों के वाबजूद मंहगाई लगातार बढ़ती ही गयी है। यह तेल की कीमतें बढ़ने का जो तर्क सरकार दे रही है कि एक्साईज डयूटी से मिलने वाला पैसा जन कल्याण की योजनाओं पर खर्च होता है और हर चीज पर जन संख्या के एक बड़े वर्ग को जो सब्सिडी दी जा रही है। उसके लिये भी पैसा कहीं से तो आना है। इस परिदृश्य में सरकार के कीमतें बढ़ाने के फैसले को गल्त नही ठहराया जा सकता।
लेकिन जब इसी के साथ जुड़े दूसरे यह पक्ष सामने आते हैं कि सरकार के इन फैसलों का लाभ आम आदमी की बजाये कुछ उद्योग घरानों को ज्यादा हो रहा है तो सरकार की नीयत और नीति दोनों पर संदेह होने लगता है। क्योंकि जब सरकार के बड़े फैसलों पर नजर जाती है तब सबसे पहले डिजिटल इण्डिया का नारा सामने आता हैं परन्तु डिजिटल इण्डिया का अगुआ सरकार के उपक्रम बीएसएनएल या एमटीएनएल न बनकर रिलांयस ‘जियो’ बना। कैशलैस इकोनाॅमी का लीडर एनपीसीआई के ‘‘रूपये ’’ की जगह ’’पेटीएम’’ हो गया। फ्रांस के राफेल जेट का भागीदार हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स के स्थान पर रिलांयस का ‘‘पिपावा डिफैंस’’ हो गया। भारतीय रेल को डीजल की सप्लाई का ठेका इण्यिन आॅयल कारपोरेशन की जगह रिलांयस पैट्रोकेमिकल्स को मिल गया। आस्ट्रेलिया की खानों का टैण्डर सरकार चाहती तो सरकारी उपक्रम एमएमटीसी को एसबीआई की बैंक गांरटी पर मिल सकता था। लेकिन यह अदानी ग्रुप को मिला। इन कुछ फैसलों से यह गंध आती है कि क्या जानबूझकर सरकारी उपक्रमों को एक योजनाबद्ध तरीके से निज़िक्षेत्र का पिछलगू बनाया जा रहा है । क्योंकि जब निजिक्षेत्र केा इस तरह के लाभ पहुंचाये जाते है तो उनसे बदले में पार्टीयों को चुनावी चंदा मिल जाता है जो सरकारी उपक्रमों से संभव नही हो सकता। और इससे आम आदमी तथा सरकार दोनों का नुकसान होता है। यदि निजिक्षेत्र की जगह सरकारी उपक्रमों को आगे बढ़ाया जायेगा तो इससे सीधा लाभ सरकार को होगा। जो लाभ रिलांयस और अदानी ग्रुप को दे दिये गये हैं यदि यही लाभ सरकारी क्षेत्र को मिलते तो एक्साईज डूयटी बढ़ाकर तेल की कीमतें बढ़ाने की आवश्यकता नही पड़ती।
आज आम आदमी काफी जागरूक हो चुका है वह सरकार के फैसलों को समझने लगा है। उसे जो अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था वह अब पूरी तरह टूट गया है क्योंकि उसके लिये अच्छे दिनों का एक ही व्यहारिक मानक है कि मंहगाई कितनी कम हुई है। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आज हर चीज को आधार से लिंक कर दिया गया है। उसे क्या खाना और पहनना चाहिये यह तय करना सरकार का काम नही है। सरकार का काम है एक सुचारू व्यवस्था स्थापित करना और वह अभी तक हो नही पायी है। क्योंकि हर फैंसला कहीं-ना कहीं आकर विवादित होता जा रहा है। जिस आधार लिंककिंग पर इतना जोर दिया गया उस आधार को लेकर सर्वोच्च अदालत ने जो प्रश्न उठाये है उससे पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। नोटबंदी के फैसले से लाभ होने की बजाये नुकसान हुआ है क्योंकि जब पुराने नोट वापिस लेकर उनके बदले में नये नोट वापिस देने पड़े हे तो इस फैसले का सारा घोषित आधार ही धराशायी हो जाता है। नोटबंदी के बाद अब जीएसटी लाया गया। ‘‘एक देश एक टैक्स’’ का नारा दिया गया लेकिन इस फैसले के बाद चीजो की कीमतों में कमी आने की बजाये और बढ़ी है क्योंकि टैक्स की दर बढ़ा दी गयी जो पहले अधिकतम 15% प्रस्तावित थी उसे 28% कर दिया गया। यह टैक्स कहां किस चीज पर कितना है इसको लेकर न तो दुकानदार को और न ही उपभोक्ता को पूरी जानकारी दी गयी है क्योंकि इसे लागू करने वाला तन्त्र स्वयं ही इस पर स्पष्ट नही है। सरकार के सारे महत्वपूर्ण फैसलों पर यही धारणा बनती जा रही है कि जिस तेजी से यह फैसले लाये जा रहे हैं उनके लिये उसी अनुपात में वातावरण तैयार नही किया जा रहा है। यह नही देखा जा रहा है कि इनका व्यवहारिक पक्ष क्या है। बल्कि यह गंध आ रही है कि यह फैसले कुछ उन उद्योग घरानों को सामने रखकर लिये जा रहे हैं जिन्होने पिछले चुनावों के प्रचार अभियान में मोदी जी को विशेष सहयोग प्रदान किया था। लेकिन देश केवल कुछ उद्योग घराने ही नही है और आम आदमी इसे अब समझने लगा है।