शिमला/शैल। कन्नड के एक साप्ताहिक समाचार गौरी लंकेश की संपादक गौरी की पिछले मंगलवार को कुछ अज्ञात बन्दूकधारियों ने उनके घर में घुसकर शाम को उस समय हत्या कर दी जब वह दफ्तर से आकर अपनी गाड़ी पार्क कर रही थी। गौरी की हत्या से पूरा पत्रकार जगत स्तब्ध और रोष में है। देश के कई भागों में पत्रकारों ने इस हत्या की निन्दा करते हुए गौरी के हत्यारों को शीघ्र पकड़ने की मांग की है। गौरी की हत्या के लिये हिन्दुत्वादी विचारधारा से लेकर नक्सलवादियों तक को जिम्मेदार माना जा रहा है। इसमें असल में इस हत्या के लिये कौन जिम्मेदार है और यह हत्या क्यों की गयी है इसका पता तो जांच रिपोर्ट आने के बाद ही लगेगा। लेकिन जैसे ही इस हत्या के लिये हिन्दुत्ववादी विचारधारा को जिम्मेदार माना जाने लगा तभी से कुछ हिन्दुत्व विचारधारा से ताल्लुक रखने का दावा करने वाले लोगों की जिस भाषा में प्रतिक्रियाएं आयी हैं उससे पूरी स्थिति ही एकदम बदल गयी है। क्योंकि जिस भाषा में यह प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया में आयी है वह न केवल निन्दनीय है वरन ऐसी भाषा प्रयोग करने वालों के खिलाफ कड़ी कारवाई होनी चाहिये। क्योंकि ऐसी प्रतिक्रियाएं देने वाले अपने को हिन्दुत्व की विचारधारा का समर्थक होने का दावा भी कर रहे हैं। ऐसे दावों से सीधे भाजपा और संघ परिवार की नीयत और नीति दोनो पर ही गंभीर सवाल उठते हैं और कालान्तर में यह सवाल पूरे समाज के लिये कठिनाई पैदा करेंगे।
क्योंकि आज केन्द्र में भाजपा नीत सरकार है बल्कि भाजपा के अपने पास ही इतना प्रचण्ड बहुमत है कि उसे सरकार चलाने के लिये किसी दूसरे की आवश्यकता ही नही है। भाजपा को इतना व्यापक समर्थन क्यों मिला था? कांग्रेस नीत यूपीए सरकार पर किस तरह के आरोप उस समय लग रहे थे? उन आरोपों की पृष्ठभूमि में अन्ना जैसे आन्दोलनांे की भूमिका क्या रही है? इन सवालों पर लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद बहुत कुछ लिखा जा चुका है और सामने भी आ चुका है। फिर भी वर्तमान संद्धर्भ में यह स्मरणीय है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा ने मुस्मिल समुदाय के लोगों को चुनाव टिकट नही दिये थे। लोकसभा की ही परिपाटी यूपी के चुनावों में भी दोहरायी गयी। ऐसा क्यों किया गया? इसके दो ही कारण हो सकते हैं कि या तो भाजपा में कोई मुस्लमान उसका सदस्य ही नही है या फिर भाजपा पूरे मुस्लिम समुदाय को शासन में भागीदारी के योग्य ही नही मानती है। लेकिन केन्द्रिय मन्त्री परिषद और उत्तर प्रदेश के योगी मन्त्री मण्डल में मुस्लमानों को प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व दिया गया है उससे यही समझ आता है कि इस समुदाय को वैचारिक कूटनीति के तहत ही चुनावी प्रक्रिया से बाहर किया गया था। इसका खुलासा चुनावों के दौरान और उसके बाद जिस तरह के ब्यान कुछ भाजपा नेताओं के मुस्लमानो को लेकर आये थे उससे हो जाता है। प्रधानमन्त्री को स्वयं ऐसे ब्यानों की निन्दा करनी पड़ी थी। इसी तरह की भावना गोरक्षा के नाम पर हुई हिंसात्मक घटनाओं में भी सामने आयी है। बल्कि इस हिंसा की प्रधानमन्त्री मोदी ने बार -बार निन्दा की है और अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसका कड़ा संज्ञान लेेते हुए राज्य सरकारों को इससे निपटने के कड़े निर्देश दिये हैं। इस सबसे यह प्रमाणित होता है कि समाज में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। क्योंकि कहीं सरकार की नीयत और नीति को लेकर सन्देह का वातावरण बनता जा रहा हैं। क्योंकि सरकार सबकी एक बराबर होती है किसी एक वर्ग विशेष की नही होती है। इस नाते देश के मुस्लिम समुदाय की भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पूरी भागीदारी बनती है जो सत्तारूढ़ दल की ओर से उन्हें नही मिल पायी है।
ऐसे में जहां सामाजिक सौहार्द के नाम पर सत्तारूढ़ दल की नीयत और नीति पर सन्देह के सवाल उठने शुरू हो गये हैं वहीं पर सरकार के नीतिगत फैलसों पर भी अब सवाल खड़े हो गये हैं। नोटबंदी सरकार की अब तक सबसे बड़ा नीतिगत फैसला रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि आर्थिक संद्धर्भ में किसी भी देश के लिये इससे बड़ा कोई फैसला हो ही नही सकता है। लेकिन यह फैेसला लाभ की अपेक्षा नुकसानदेह साबित हुआ है। क्योंकि इस फैसले के तहत जब पुराने 500 और 1000 के नोटों का चलन कानूनी रूप से बन्द हो गया तब उसके बाद वह नोट चाहे बैंक में थे या किसी व्यक्ति के पास थे वह उसके लिये एकदम अर्थहीन हो गये। किसी के पास भी अधिकतम कितना पैसा किस शक्ल में हो -चाहे कैश हो या संपत्ति के रूप में -इसकी कोई न्यूनतम या अधिकतम की सीमा नही है। यह भी कोई बंदिश नही है कि कोई व्यक्ति कितना कैश घर में रख सकता है। इसके लिये केवल एक ही शर्त है कि व्यक्ति के पास पैसे का वैध स्त्रोत हो। जब नोटबंदी के पुराने नोटों का 99% वापिस आरबीआई के पास पहुंच गया है तो इसका सीधा अर्थ है कि यह सारा पैसा वैध था। इस नाते यह सारा पुराना पैसा नये नोटों की शक्ल मेें धारकों को वापिस करना पड़ा है। इससे सरकार के अतिरिक्त और किसी का नुकासान हुआ नही है। इस नोटबंदी से जो विकास दर में कमी आयी है उसको पूरा होने में बहुत समय लग जायेगा।
इसी के साथ अब मन्त्रीमण्डल विस्तार में दो ऐसे लोगों को मंत्री बनाना पड़ गया जो इस समय किसी भी सदन के सदस्य नही हैं। इससे पार्टी के चुने हुए लोगों में यह संदेश जाता है कि या तो प्रधानमन्त्री को इन चुने हुए लोगों पर भरोसा नही रह गया है या फिर उनकी नजर में इन लोगों में से कोई भी इस लायक है ही नही कि उसे मन्त्री बनाया जा सकता। इनमें से जो भी स्थिति रही हो वह सरकार और देश के लिये सुखद नही कही जा सकती। आज तीन वर्ष बाद भी मंहगाई में कोई कमी नही आयी है यूपीए के जिस भ्रष्टाचार के मुद्दा बनने से यह सरकार बनी थी उसके खिलाफ अभी तक कोई ठोस कारवाई सामने नही आयी है। बल्कि सरकार के सारे प्रचार को आज फेक न्यूज की संज्ञा दी जाने लग पड़ी है और यह फेक न्यूज गौरी लंकेश की हत्या के बाद अब जन चर्चा का विषय बनती जा रही है।