रिर्जव बैंक आॅॅफइण्डिया ने दावा किया है कि नोटबंदी के तहत बैन किये गये 500 और 1000 के 99% नोट वापिस आ गये हैं केवल 1% पुराने नोट वापिस नही आये हैं। नोटबंदी में 500 और 1000 के नोट बंद किये गये थे और इसके लिये एक तर्क दिया गया था कि बडे़ नोटों से काला धन जमा रखने में आसानी होती है। यह भी तर्क दिया गया था कि इससे आंतकी गतिविधियों में कमी आयेगी। नोटबंदी के दौरान जो आम आदमी को असुविधा हुई है उसके कारण उस समय 100 से अधिक लोगों की जान गयी है। यह सच भी सबके सामने है। नोटबंदी के बाद आंतकी हमलों में भी कोई कमी नही आयी है। प्रायः हर दिन कहीं न कहीं कोई वारदात होती ही रही है। नोटबंदी के बाद मंहगाई में भी कोई कमी नहीं आयी है। नोटबंदी के बाद देश के भीतर कितना कालाधन मिला इसको लेकर भी कोई अधिकारिक आंकड़ा आरबीआई की ओर से जारी नही हुआ है बल्कि इसको लेकर वित्त मंत्री अरूण जेटली ने 16 मई को जो आंकडे़ सामने रखे थे अब प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को देश के सामने रखे आंकड़ो में इन्हे आधा कर दिया है। नोटबंदी के बाद नये नोट छापने के लिये आरबीआई ने करीब आठ हजार करोड़ खर्च किये हैं यह दावा भी आरबीआई ने ही किया है।
इस परिदृश्य में यदि नोटबंदी के फैसले का आकंलन किया जाये तो सरकार के अपने ही कृत्य से यह फैसला तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरता है क्योंकि नोटबंदी के बाद भी सरकार/आरबीआई 500 और 2000 के नये नोट लेकर सामने आयी है। यदि बड़े मूल्य के नोटों के माध्यम से कालाधन जमा करना आसान होता है तो अब दो हजार मूल्य का नोट आने से तो यह और आसान हो जायेगा। तो क्या माना जाये कि सरकार ने कालेधन वालों को और सुविधा देने के लिये नोटबंदी का कदम उठाया। जाली नोट जिस तरह से पहले छप रहे थे अब भी वैसे ही यह धंधा चला हुआ है। जाली नोटों के कई मामले पकड़े गये हैं। नोटबंदी सरकार का एक बहुत बड़ा क्रान्तिकारी फैसला करार दिया जा रहा था। इन्ही सुधारों की कड़ी में सरकार ने जनधन योजना के तहत जीरो बैलैन्स पर लोगों के खाते खुलवाये। लेकिन आज भी आधे से ज्यादा जीरो बैलैन्स पर ही चल रहे हैं। इनमें कोई ट्रांजैक्शन हो नही रही है क्योंकि इन लोगों के पास बैंक में जमा करवाने लायक पैसा है ही नही बल्कि यह खाते खोलने के लिये जो बैंको का खर्च आया है वह हर आदमी पर एक अतिरिक्त बोझ पड़ा है। इसी के साथ सरकार ने सारी ट्रांजैक्शन डिजिटल करने पर बल दिया है। ई-समाधान की ओर बढ़ने की आवश्यकता की वकालत की जा रही है। लेकिन इस दिशा का कड़वा सच यह है कि आज भी देश में हर स्थान पर 24 x 7 निर्बाध बिजली की आपूर्ति नही है। राजधानी नगरों तक में यह सुनिश्चितता नही है। जबकि डिजिटल के लिये निर्बाध बिजली बुनियादी आवश्यकता है। जब बिजली की आपूर्ति निर्बाध नही है तो उसका प्रभाव इन्टरनैट सर्विस पर पड़ना स्वभाविक है। इसी कारण सरकार की संचार सेवाएं अक्सर बाधित रहती हैं। इन व्यवहारिक स्थितियों से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार जिस तरह के सुधारों की वकालत कर रही है उसके लिये जमीन तैयार ही नही है।
नोटबंदी को लेकर जो दावा आरबीआई ने 99% पुराने नोट वापिस आने का किया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि देश के भीतर कालेधन के आंकड़ो को लेकर स्वामी रामदेव जैसे जो लोग दावे कर रहे थे या तो वह आंकडे गल्त थे उनकी सूचना और आंकलन गल्त था या फिर सरकार नोटबंदी के बावजूद कालेधन को पकड़ने में पूरी तरह असफल रही है। यदि सरकार असफल नही है तो क्या जो एक प्रतिशत पुराने नोट वापिस नही आये हंै वह कालाधन है। इस पर सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी होगी।
आज सरकार बैंकिंग सुधारों को बैंक युनियनों ने ही जन विरोधी करार दिया है। यूनियनों ने पब्लिक सैक्टर बैंको के निजिकरण और बैंको के विलय का विरोध किया है। आज करीब 6 लाख करोड़ का एनपीए चल रहा है और इसमें 70% से अधिक बड़े काॅरपोरेट घरानो का है। लेकिन इन लोगों के खिलाफ कारवाई करने की बजाये सरकार इन्हे किसी न किसी रूप में पैकेज देकर लाभ पहुंचा रही है। बल्कि नोटबंदी के दौरान हर व्यक्ति को 500 और 1000 के नोटों की शक्ल में रखी अपनी संचित पूंजी को जबरन बैंको में ले जाकर जमा करवना पड़ा और फिर कई दिनों तक उसे उतनी निकासी करने की सुविधा नही मिली तो इस तरह अचानक बैंकों के पास भारी भरकम पैसा आ गया तो क्या इस पैसे का अपरोक्ष में लाभ इन काॅरपोरेट घरानों को नही मिला? क्योंकि बैंकों ने इस पैसे का निवेश इन घरानों के अतिरिक्त और कहीं तो किया नही। बल्कि बैंकों के पास इतना डिपोजिट आ जाने के बाद तो बैंको ने बचत पर ब्याज दरें तक कम कर दी। इस तरह सरकार के नोटबंदी से लेकर बैंकिंग सुधारों तक के सारे फैसलों से आम आदमी को कोई लाभ नही मिल पा रहा है। क्योंकि आम आदमी के लिये यह सारे सुधारवादी फैसले तभी लाभदायक सिद्ध होंगे जब मंहगाई और बेरोजगारी पर लगाम लगेगी और इसकी कोई संभावना नजर नही आ रही है।