किसान की उपेक्षा क्यों

Created on Tuesday, 20 June 2017 14:44
Written by Baldev sharma

भारत कृषि प्रधान देश है। इसके करीब 70% लोग आज भी गांवों में रहते हैं और खेतीबाड़ी करते हैं। यह आज भी हकीकत है और इसी के साथ जुड़ी एक बड़ी हकीकत है कि खाने की हर चीज खेत से ही निकलती है। इसका कोई विकल्प किसी मशीन से अब तक तैयार नहीं हुआ है। फिर जिस क्षेत्र पर 70% आबादी आश्रित हो उससे बड़ा रोजगार का कोई और साधन हो नही सकता लेकिन क्या शासन और प्रशासन इसे स्वीकार करने के लिये तैयार है। यदि सरकार इस सीधी सच्चाई को स्वीकार कर ले तो बहुत सारी समस्याएं आसानी से समाप्त हो जाती हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज कृषि का स्थान सबसे अन्त में धकेल दिया गया है। एक समय यह माना जाता था कि ‘‘ उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निकृष्ट चाकरी.....।’’ लेकिन आज इस धारणा को एकदम उल्ट दिया गया है और इस उल्टने का ही परिणाम है कि आज देश का किसान आन्दोलन के रास्ते पर निकलने को मजबूर हो गया है। क्योंकि दूसरो का अन्नदाता आज स्वयं आत्महत्या के कगार पर पहुंच गया है। आज आन्दोलन के दौरान पुलिस की गोली से होने वाली मौतें  भी उसके आन्दोलन के संकल्प को हिला नही पा रही है।
इस किसान आन्दोलन को समझने के लिये थोड़ा इसकी पृष्ठभूमि में जाने की जरूरत है। शासन का खर्च लगान से चलता है और इस लगान का मुख्य स्त्रोत किसान और उसका खेत होता है यह एक स्वीकृत सच्चाई है। आज इस लगान का पर्याय टैक्स है। एक समय था जब यह लगान सीधे पैदा हुए अन्न के रूप में ही उगाहया जाता था। लेकिन अंग्रेज शासन के दौरान यह लगान अन्न से हटकर सीधे नकद के रूप मे बसूला जाने लगा । इस नकद बसूली के कारण किसान को साहूकार से कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ी और जब इस नकद कर्ज को वह समय पर नही लौटा सका तो उसके खेत निलाम होने लग गये। 1861 के आसपास किसान और साहूकार के रिश्ते इस मोड़ पर आ गये कि किसानों ने साहूकारों का घेराव करना शुरू कर दिया। साहूकारों के घर में घुसकर उनसे कर्ज के कागजात छीन कर उनको जला दिया जाने लगा। इस स्थिति को देख कर अंग्रेज शासन साहूकार की सहायता के लिये आगे आ गये और उस जमाने में करीब तीन हजार किसानों की गिरफ्तारी हुई थी। किसानों की गरीबी पर बासुदेव बलवंत फड़के और ज्योतिवा फुले ने सबसे पहले बड़े विस्तार से चर्चाएं उठायी थी और इन्हीं चर्चाओं के परिणामस्वरूप आजादी के बाद सहकारिता और किसान आन्दोलन के लिये वैचारिक धरातल तैयार हुआ।
1980-81 में पूना के निंपाणी में तम्बाकू उत्पादक किसानों का आन्दोलन किसान आन्दोलनों के इतिहास में पहला सफल आन्दोलन रहा है जब मार्च 81 में चालीस हजार किसानों ने अपनी बैलगाड़ीयां लेकर पूना-बंगलौर राजमार्ग को पूरी तरह जाम कर दिया था। 23 दिन चले इस आन्दोलन पर पुलिस ने आंसू गैस और गोली चलाई जिसके कारण 12 किसान इसमें शहीद हुए लेकिन इस आन्दोलन से देश के हर हिस्से में बैठा किसान अपनी स्थिति के प्रति जागरूक हुआ और उसने अपनी उपज के उचित मूल्य की मांग समाज और सरकार के सामने रखी। 1981 के पूना के इस आन्दोलन का ही प्रभाव है उसके बाद पंजाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान भी अपने उत्पाद के उचित मूल्य की मांग करने लगे है। आज किसान आन्दोलन महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राज्यस्थान से निकलकर पंजाब हरियाणा में अपनी दस्तक देने वाला है। किसान गरीब है और कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है क्योंकि उसे बाजार में उसकी उपज का उचित मूल्य नही मिल पा रहा है। इसके लिये किसान इस कर्जे से मुक्ति के लिये कर्ज माफी और उसकी उपज के लिये मूल्य निर्धारण की मांग कर रहा है। आज उत्पादक किसान और उपभोक्ता के बीच मूल्य को लेकर इतना बड़ा अन्तर है जिसके कारण दोनों ही अपने-अपने स्थान पर हताश और पीड़ित हैं। उत्पादक किसान आत्महत्या के कगार पर है और उपभोक्ता बढ़ती कीमतों से पेरशान होकर उनका उपयोग-उपभोग छोड़ने को विवश है। लेकिन दोनों के बीच का जो अन्तराल है इसे समझने और पाटने में शासन और प्रशासन पूरी तरह आॅंख बन्द करके बैठा है। आज कुछ राज्य सरकारों ने किसान का कर्जा माफ करने की घोषणाएं की है लेकिन इन घोषणाओं के साथ ही केन्द्र के वित्त मन्त्राी अरूण जेटली ने राज्य सरकारों को स्पष्ट कर दिया है कि किसानों की कर्ज माफी की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को अपने संसधनों से उठानी होगी। केन्द्र इसमें कोई सहायता नही करेगा। लेकिन हर राज्य सरकार भारी भरकम कर्ज के बोझ तले है। यह कर्जभार जीडीपी के 3% की सीमा से कहीं अधिक हो चुका है। लेकिन इस कर्ज पर नजर दौडाई जाये तो यह कर्ज विभिन्न उद्योगों की स्थापना और फिर उनको राहत की शक्ल में दिये गये पैकेजो का परिणाम है। उद्योग पैकेजों के बाद इस कर्ज से समाज के कुछ वर्गों को सस्ता राशन , वृद्धावस्था, विधवा बेरोजागारी आदि के लिये दी जाने वाली पैन्शन दी जा रही है। लेकिन सरकारों के इस बढ़ते कर्ज से किसान को कुछ नही मिला है यह स्पष्ट है। फिर जिस अनुपात में उद्योगों को पैकेज दिये जा रहे हैं उस अनुपात में यह उद्योग रोजगार के अवसर पैदा नही कर पाये हैं।
इस परिदृश्य में आज किसान और उद्योग आमने-सामने खड़े होने के कगार पर पहुंच गये हैं। कारखाने को कच्चा माल तो किसान के खेत से जा रहा है या उसके खेत के नीचे दबे खनिज से। लेकिन सरकार इन उद्योगपतियों का तो कई लाख करोड़ का कर्ज माफ करने को तैयार बैठी है लेकिन किसान के लिये नही। आज किसान सरकारों की इस नीयत और नीति को समझ चुका है इसलिये उसे अब और अधिक नजर अन्दाज कर पाना संभव नही होगा।