गोवंश की राजनीति

Created on Saturday, 03 June 2017 11:08
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल।  गोवंश रक्षा इन दिनो राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बनाता जा रहा है। गोरक्षा के नाम पर पिछले कुछ अरसे में देश के विभिन्न भागों में गोरक्षकों के अति उत्साह के हिंसक तक हो जाने के कई प्रकरण सामने आ चुके हैं। गो रक्षकों के हिंसक उत्साह का शिकार कई स्थानों पर मुस्लिम और दलित समाज के लोग हुए हैं। गोरक्षकों के हिंसक होने का तर्क रहा है कि यह लोग गोवंश को मारने के लिये बूचड़खानों में ले जा रहे थे और उन्हे ऐसा करने से रोकने के प्रयास में यह दुर्घटनाएं हुई हैं। उत्तर प्रदेश में तो योगी सरकार बनने के बाद बूचड़खानों को बन्द करवाने की जो मुहिम चली थी उसका अन्त उच्च न्यायालय के आदेशों के बाद हुआ। उच्च न्यायालय ने बन्द करवायेे गये कई बूचड़खानों को फिर से खुलवाया क्योंकि यह कारवाई कानून की नजर में अवैध थी। गोरक्षा के नाम पर उठे इस उत्साह को केन्द्र सरकार से लेकर राज्यों की भाजपा सरकारों का परोक्ष/अपरोक्ष समर्थन रहा है यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है। गोरक्षा आन्दोलन आज जिस तरह से शक्ल ले रहा है वैसा ही आन्दोलन साठ के दशक में भी देश देख चुका है। उस समय इसकी अगुवाई देश का साधू समाज कर रहा था और इसके लिये स्व. गुलजारी लाल नन्दा को अपना पद तक त्यागना पड़ा था। इसी आन्दोलन का परिणाम था कि सरकार को उस समय पशु क्रुरता प्रतिबन्ध अधिनियम 1960 लाना पड़ा था। उस दौरान गोरक्षा आन्दोलन को कोई राजनीतिक अर्थ नहीं दिया गया था। लेकिन आज गोरक्षकों की कार्यशैली से राजनीति की गन्ध आ रही है और यही सबसे अधिक नुकसान देह है।
1960 में जो पशु क्रुरता प्रतिबन्ध अधिनियम आया था उसके तहत पशुओं पर होने वाली हिंसा को रोका जा सकता है लेकिन अभी जो पशु बाजारों मे गोवंश व अन्य पशुओं की खरीद-बेच पर प्रतिबन्ध का जो नया अधिनियम केन्द्र सरकार लायी है उसके मुताबिक इन बाजारों/मेलों से कटाने के लिये पशुओं को नहीं खरीदा जा सकता। इस नये कानूनों के मुताबिक राज्य की सीमा के 25 किमी और अन्र्तराष्ट्रीय सीमा के 50 किमी के भीतर पशु बाजार नही लगाया जा सकता। इस नये कानून पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग -अलग प्रतिक्रियाएं उभरी है। मद्रास और केरल में इसका विरोध हुआ है। मद्रास हाईकोर्ट ने केन्द्र के इस कानून पर रोक लगाते हुए राज्य सरकार और केन्द्र सरकार से चार सप्ताह के भीतर जबाव मांगा है। दूसरी और राजस्थान हाईकोर्ट ने केन्द्र से भी दो कदम आगे जाते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का निर्देश दिया है। गोहत्या के अपराधियों को आजीवन कारावास का आदेश दिया है। केरल के मुख्यमन्त्री विजयन ने इसे लोकतन्त्र विरोधी करार दिया है तो बंगाल में ममता बेनर्जी ने इसे मानने से इन्कार कर दिया है क्योंकि यह राज्य सरकार का विषय है। मेघालय के सांसद  और पूर्व मन्त्री पाला ने मोदी सरकार को पत्र लिखकर इस नये कानून को वापिस लेने का आग्रह किया है। देश के दो हाईकोर्टों की इस संद्धर्भ में जब अलग-अलग राय है तो निश्चित रूप से यह विषय इतना सरल नही है और न ही इस पर उठे विरोध को आसानी से नजर अन्दाज किया जा सकता है।
इस परिदृश्य में पूरे मुद्दे को निष्पक्षता से परखने की आवश्यकता है। गाय दूध देने वाला पशु है। गाय के साथ ही भैंस और बकरी भी दूध देते हैं। इसमें कई और पशु भी आ जाते हैं। दूध हर जीवधारी की आवश्यकता है इसमें कोई दो राय नहीे है। इन जीवधारियों में मानव की सबसे ऊपर है इसलिये सारा सरोकार इसी मानव के गिर्द केन्द्रित हो जाता है। मानव जीवन के लिये दूध के अतिरिक्त रोटी और अन्य खाद्य पदार्थ भी बहुत आवश्यक हैं लेकिन दूध की आवश्यकता जन्म लेते ही शुरू हो जाती है। मां के दूध के बाद सबसे ज्यादा पोषक तत्व गाय के दूध में होते हैं संभवतः इसी कारण से गाय को धर्म का प्रतीक बनाकर हमारे ऋषियों ने उनकी रक्षा का विधान खड़ा किया है। गो हत्या को पाप की संज्ञा देेना इसी रक्षा के प्रयास का गणित है। इसीलिये हर गृहस्थ को गो पालन आवश्यक था। गाय का दूध अन्य पशुओं की अपेक्षा ज्यादा श्रेष्ठ है और उसके गोबर तथा गोमूत्रा में भी गुण हैं इसलिये गोरक्षा की आवश्यकता बड़ी बन जाती है। लेकिन क्या आज हर गृहस्थ गो पालन का धर्म निभा पा रहा है? बल्कि जो लोग गो रक्षक बनकर सामने आ रहे हैं उनके अपने घरों में भी शायद गो पालन नही हो रहा है। आज आवारा पशुओं में भी गाय सबसे अधिक देखने को मिलती है जिसका अर्थ है कि जब दूध नही है तो गाय को आवारा छोड़ दिया जाता है। इन आवारा पशुओं का गो सदन में भी पूरा प्रबन्ध नही हो पा रहा है। जिस राजस्थान के हाईकोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का आदेश दिया है उसी राजस्थान की सरकारी गोशाला का हाल देश के सामने आ चुका है।
इस परिदृश्य में आज यह आवश्यक है कि कोई भी पशु आवारा/अनुपयोगी होकर सड़क पर न छोड़ा जाये। सारे पशुओं के पालन की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये। जब यह व्यवस्था सुनिश्चित हो जायेगी तभी हर तरह के पशुओं पर क्रूरता रोकी जा सकेगी। आज पशु व्यापार को ऐसे प्रतिबन्धों सेे रोकने के प्रयास से केवल राजनीतिक मुद्दे ही बनेंगे। बल्कि इसे धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण के प्रयास की संज्ञा दे दी जायेगी। इसलिये आज पशु व्यापार पर इस तरह के नियम थोपने की बजाये पशुओं के पालन की व्यवस्था सुनिश्चित करने और इसके लिये एक मानसिकता तैयार करने की आवश्यकता है। इस व्यवस्था के बाद ही यह सुनिश्चित करना आसान होगा कि किस पशु की कब क्या उपयोगिता है और उसके बाद उसका क्या प्रबन्ध किया जाना चाहिये।