दिल्लीे विधानसभा के चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर जो इतिहास रचा था आज वहीं एक उपचुनाव में जमानत भी न बचाकर फिर एक इतिहास रचा है। क्योंकि यह उपचुनाव भी उन्ही के विधायक द्वारा सीट खाली करने के कारण हुआ था। इससे पहले पार्टी ने पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव हारे। इन राज्यों में भी पार्टी बड़े दावों के साथ चुनाव में उत्तरी थी। दिल्ली में पिछले चुनावों में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पायी थी। उस गणित से आप की यह हार कोई बड़ा अर्थ नहीं रखती है। लेकिन यह गणित ‘आप’ पर लागू नही होता। क्योंकि आम आदमी पार्टी कांग्रेस और भाजपा के राजनीतिक विकल्प की उम्मीद बनकर सामने आयी थी। जनता नेे आप पर उस समय विश्वास जताया था जब
भाजपा केन्द्र में लगभग आप जैसा ही इतिहास रचकर सत्ता में आयी थी। भाजपा को मात्र तीन सीटें ही मिल पायी थी ‘आप’ की इतने कम समय में ऐसी हालत क्यों हो गयी यह पार्टी के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये एक गंभीर चिन्ता का विषय है। क्योंकि यह केवल ‘आप’ के ही राजनीतिक भविष्य का प्रश्न नही हैं बल्कि देश के लिये राजनीतिक विकल्प की तलाश के प्रयासों की हत्था जैसी स्थिति बन गयी है। ऐसा क्यों हुआ और इसके लिये कौन जिम्मेदार है इस पर खुले मन से विश्लेषण की आवश्यकता है।
इसको समझने के लिये थोड़ा पीछे झंाकने की आवश्यकता है। जब 1947 में देश आजाद हुआ और 1952 के आम चुनावों से पहले केन्द्र में एक प्रतिनिधि सरकार बनी थी उसी दौरान 1948 और 1949 में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और हिन्दुस्तान समाचार न्यूज ऐजैन्सी का गठन कर लिया था। यह गठन इसका संकेत करते हैं कि संघ ने उस समय भांप लिया था कि आने वाले भविष्य में युवाशक्ति और समाचार माध्यमों की भूमिका कितनी व्यापक होने जा रही है। 1952 में हुए पहले आम चुनावों से लेकर 1962 के चुनावों तक जनसंघ को बड़ी सफलता नही मिल पायी थी लेकिन 1967 में जब कुछ राज्यों में संयुक्त विधायक दल सरकारें बनी थी तब जन संघ को सत्ता में भागीदारी मिली थी। हमारे पड़ोसी राज्य पंजाब में अकाली दल और जन संघ ने मिलकर सरकार बनायी थी। उसके बाद जब 1975 में स्व. जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में समग्र क्रांति का नारा बुलन्द हुआ और देश में आपातकाल लागू कर दिया गया था। तब उस आन्दोलन के बाद जब 1977 में आपातकाल हटते ही आम चुनाव हुए और यह चुनाव जनता पार्टी के नाम पर लडे़ गये थे तक केन्द्र में जनता पार्टी को ऐसा ही प्रचण्ड बहुमत मिला था। जनता पार्टी के गठन के लिये वाम दलों को छोड़कर शेष सारे दलों ने कागें्रस के विरोध के लिये अपने आप को जनता पार्टी में विलय कर दिया था। लेकिन 1977 में प्रचण्ड बहुमत मिलने के बावजूद 1980 में जनता पार्टीे टूट गयी, केन्द्र में सरकार गिर नये चुनाव हुए और स्व. इन्दिरा गंाधी के नेतृत्व में कांग्रेस फिर सत्ता में आ गयी। 1980 में जनता पार्टी पूर्व जन संघ के सदस्यों के जनता पार्टी और आरएसएस के एक साथ सदस्य होने पर उठे दोहरी सदस्यता के प्रश्न पर टूटी। शिमला में मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री राजनारायण को गिरफतार करके इस टूटन को मूर्त रूप दिया।
1980 के 1988 में जब स्व. वी पी सिंह ने बोफोर्स तोप सौदे पर सवाल उठाकर कांग्रेस से बाहर निकलकर जन मोर्चे का गठन किया और भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आन्दोलन छेड़ा तब फिर उस आन्दोलन में सारे गैर कांग्रेसी दल इकट्ठे हो गये। 1989 का चुनाव जनतादल के नाम पर लड़ा गया भाजपा इस गठबन्धन में शामिल हुई। 1990 के विधानसभा चुनाव जनतादल और भाजपा ने मिलकर लड़े। वी पी सिंह ने ओबीसी को आरक्षण की घोषणा की और भाजपा एवम संघ परिवार ने इसका विरोध किया। मण्डल बनाम कमण्डल आन्दोलन आया। आरक्षण के विरोध में आत्मदाह हुए परिणामस्वरूप वीपी सिंह सरकार गिर गयी। इसकेे बाद अब फिर अन्ना आन्दोलन आया इसमें भी संघ परिवार की परोक्ष/अपरोक्ष में पूरी भूमिका रही लेकिन जैसे ही आन्दोलन सफलता तक पहुंचा और अगले राजनीतिक स्वरूप की चर्चा उठी तोे आन्दोलन बिखर गया। अन्ना किनारे हो गये असफल होकर। लेकिन केन्द्र की सत्ता भाजपा को मिल गयी और दिल्ली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को। यह सारी पृष्ठभूमि यह स्पष्ट करती है कि जब भी कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन हुए उसमें संघ परिवार की भूमिका अपरोक्ष में सर्वेसर्वा की रही। लेकिन आन्दोलनों की सफलता के बाद जो भी राजनीतिक प्रतिफल सामने आये उन्हें संघ परिवार ने ज्यादा देर तक चलने नही दिया।
ऐसे में आज कांग्रेस और भाजपा का राजनीतिक विकल्प बनने का जो भी प्रयास करेगा उसे यह समझना होगा कि उसके विरोध में अब यह दोनों दल एक साथ खड़े हो जायेंगे। कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित- प्रसारित करने में एक लम्बा समय लगा है और भ्रष्टचार के कारण ही आज कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा इसी भ्रष्टाचार पर टिका है। ऐसे में भाजपा/संघ का मुकाबला करने के लिये उन्ही के बराबर की ठोस विचारधारा का विकल्प तैयार करना होगा। आज आम आदमी पार्टी के पास ठोस विचारधारा की कमी है। उसके सगंठन में हर कहीं संघ भाजपा से जुड़े लोग मिल जायेंगे जो अन्ना आन्दोलन में शामिल रहने के कारण ‘आप’ पर अपना पहला अधिकार मानते हैं। आप नेतृत्व को इस बारे सजग रहने की आवश्यकता है। इसी के साथ यह हकीकत भी माननी होगी कि हर राज्य में दिल्ली का माॅडल लागू नही होगा क्योंकि दिल्ली केन्द्रिय राजधानी है यहां पर देश के हर कोने का व्यक्ति सक्रिय राजनीति कर सकता है। किसी भी प्रदेश का मूल निवासी यहां का विधायक/सांसद/ मन्त्री और पार्टी प्रमुख हो सकता है। लेकिन अन्य राज्यों में नही। अभी तक पार्टी अन्य राज्यों में अपनी सशक्त इकाईयां ही खड़ी नहीं कर पायी है। संयोगवश ‘आप’ का केन्द्रिय नेतृत्व अधिकांश में एनजीओ संस्कृति से जुड़ा रहा है। लेकिन राजनीतिक संगठन एनजीओ की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता। राज्य इकाईयों के लिये राज्यों से ही लोग तलाशने होंगे। फिर संगठन का सेाशल मीडिया के माध्यम से प्रचार प्रसार नही किया जा सकता जबकि आप के कई नेता केवल सोशल मीडिया में ही दो दो लाईनो के ब्यान से प्रदेश के नेता होने का भ्रम पाले हुए है। ऐसे में आज ‘आप’ को इस संकट के दौर में इन व्यवहारिक पक्षों को सामने रखना बहुत आवश्यक है। बहुत संभव है कि ‘आप’ को दिल्ली नगर निगम के चुनावों में हार देखनी पड़े और उसके बाद चुनाव आयोग कुछ विधायकों पर भी अपना चाबुक चला दे। इस लिये सरकार से ज्यादा इस समय संगठन को बिखरने से बचाना ज्यादा आवश्यक है क्योंकि आप का बिखरना/टूटना एक राष्ट्रीय नुकसान होगा।