चुनाव आयोग से अपेक्षाएं

Created on Monday, 03 April 2017 13:42
Written by Shail Samachar

बलदेव शर्मा 

चुनाव आयोग ने कांग्रेस को अपने संगठनात्मक चुनाव पूरा करने के लिये छः माह का समय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग से पूछा है कि पूर्व विधायकों/सांसदो को मिल रही पैन्शन को बन्द किये जाने की गुहार को लेकर जो याचिका आयी है उस पर आयोग की क्या राय है। दागी छवि के जन प्रतिनिधियों को चुनाव से अयोग्य घोषित कर दिया जाये यह आग्रह एक याचिका के जवाब में सर्वोच्च न्यायालय से आयोग ने किया है। यह सारे प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और सभी राजनीतिक स्वच्छता के लिये आवश्यक हैं। इस समय हमारे चुनाव पंचायत से लेकर संसद तक इतने महंगे हो गये हैं कि आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता। चुनाव आयोग ने ही विधानसभा से लेकर संसद तक चुनाव खर्च की सीमा इतनी बढ़ा दी है कि कोई भी सामान्य व्यक्ति चुनाव के लिये इतना सफेद धन खर्च नहीं कर सकता। इन चुनावों में एक-एक प्रत्याशी करोड़ो खर्च कर रहा है लेकिन आयोग के पास जो ब्योरा इस खर्च का दायर किया जाता है वह एकदम साफ झूठ होता है। सारा खर्च संबधित राजनीतिक दल के नाम डाल दिया जाता है और पार्टी के लिये खर्च की कोई सीमा है नहीं। पार्टीयों के लिये दिये जा रहे चन्दे की जो सीमा बीस हजार से घटाकर दो हजार करने की बात की गयी थी उसे फिर संशोधित करके पहले से भी ज्यादा सरल कर दिया गया है। अब किसी भी पंजीकृत कंपनी से पार्टी कितना भी चन्दा ले सकती है। उस पर कंपनी से कोई स्त्रोत नही पूछा जायेगा। कंपनी में राजनेता का ही काला धन निवेश होकर चन्दे के रूप में वापिस आ रहा है इसको चैक करने का कोई प्रावधान नही है। कुल मिलाकर धन के मामले में पार्टीयां फिर निरंकुश हो गयी हैं और व्यक्ति के पास चुनाव लड़ने के लिये पार्टी के मंच का सहारा लेना ही एक विकल्प रह गया है।
ऐसे में जब तक चुनाव को खर्च मुक्त नही किया जायेगा तब तक देश की व्यवस्था में सुधार का हर प्रयास बेमानी हो जायेगा। राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र हो उसके लिये संगठन में चुनाव होना आवश्यक है। लेकिन आज देश में कितने ही राजनीतिक दल हैं जो केवल एक परिवार के ही होकर रह गये हैं और फिर सत्तासीन भी रह चुके हैं यह सब पैसे के कारण हुआ है। भाजपा जैसे दल में चयन के स्थान पर मनोनयन का चलन है और यह भी अपरोक्ष परिवारवाद की ही संज्ञा में आता है क्योंकि यह संघ परिवार के निर्देशों पर होता है। इसी धन और परिवारवाद के कारण ही आज देश का कोई भी दल बाहुबलियों से मुक्त नही है। हर दल चुनाव में इन्हें ज्यादा -से-ज्यादा टिकट देने की होड़ में रहता है यह हर दिये जा रहे टिकटों के बढ़ते आकंड़ो से प्रमाणित हो रहा है। पूर्व विधायकों/सांसदो को पैंन्शन देने के मामले में वित्त मन्त्री अरूण जेटली ने स्पष्ट कर दिया है कि यह तय करना संसद का अधिकार क्षेत्र है न्यायालय का नहीं। इसलिये चुनाव सुधारों की दिशा में उठाये जा रहे इन कदमों से भी कोई बड़ा लाभ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। क्योंकि आज के राजनीतिक दल एकदम कारपोरेट घरानों जैसे हो गये हैं। आज चुनाव प्रचार एक व्यवसाय बन गया है। चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र क्या हैं और उसमें किये गये वायदे कैसे पूरे होंगे, कितने समय में होंगे तथा उनके लिये धन की व्यवस्था कहां से होगी इसकी कोई चर्चा प्रचार के दौरान सामने आ ही नही पाती है। देश या प्रदेश की आर्थिक स्थिति क्या है इसकी कोई चर्चा उठ ही नही पाती है। जबकि किसी भी चुनाव प्रचार का मूल यही रहना चाहिये। आज देश अपरोक्ष में एक राजनीतिक निरंकुशता की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है। क्योंकि इस समय राजनीति को धर्म और संस्कृति के सहारे बढ़ाया जा रहा है जो कि कालान्तर में घातक सिद्ध होगा।
इस स्थिति से बचने के लिये चुनाव सुधारों का ही माध्यम शेष बचा है। इसमें चुनाव प्रचार को खर्च से मुक्त करने का रास्ता खोजना पडे़गा। यदि ईमानदारी से इस दिशा में प्रयास किया जाये तो ऐसा किया जा सकता है। इसी के साथ आदर्श आचार संहिता की उल्लंघना को क्रिमिनल अपराध की संज्ञा दी जानी चाहिये। आज आचार संहिता की उल्लंघना पर केवल चुनाव याचिका दायर करने का ही विकल्प है और ऐसी याचिकाएं वर्षों तक लंबित रहती हैं। आचार संहिता की उल्लंघना का मामला दर्ज होते ही उस चुनाव क्षेत्र का चुनाव स्थगित कर देना चाहिये। चुनाव खर्च की सीमा पार्टीयों के लिये भी तय होनी चाहिये। पार्टीयों को अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार के लिये चुनावों की घोषणा के बाद कोई समय नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि पार्टीयों के पास चुनावों के बाद अगले चुनावों तक का जो समय रहता है उसी के बीच यह प्रचार-प्रसार होना चाहिये। चुनावों की घोषणा के बाद हर मतदाता के पास उम्मीदवार का पूरा प्रोफाईल और उसका चुनाव घोषणा पत्र हर मतदाता तक पहुचा दिया जाना चाहिये। चुनाव घोषणा पत्रा में राज्य की आर्थिक स्थिति और उस स्थिति में घोषणा पत्र में घोषित दावों को कैसे पूरा किया जायेगा इसका पूरा उल्लेख रहना अनिवार्य होना चाहिये। जब मतदाता के पास सारे उम्मीदवारों का यह विवरण पहुंच जायेगा तो वह उसकी समीक्षा करके सही उम्मीदवार का चयन कर पायेगा। इसी के साथ जनप्रतिनिधियों के जो अपराधिक मामले वर्षों से अदालतों में लंबित चल रहे हैं उनका निपटारा ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक प्राथमिकता के आधार पर एक तय समय सीमा के भीतर किये जाने का प्रावधान किया जाना चाहिये। आज चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के बीच कुछ मामलों में जो एक संवाद की स्थिति उभरी है उसमें इन पक्षों पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है।