शिमला/शैल। वीरभद्र मन्त्रीमण्डल ने वीरभद्र की धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने की घोषणा पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी है। मन्त्रीमण्डल की स्वीकृत के बाद सरकार का यह फैसला वाकायदा अधिसूचित हो जायेगा। फैसला अधिसूचित होने के साथ ही मन्त्रीमण्डल में रखे गये इस आश्य के प्रस्ताव की Statement of objects भी सामने आ जायेगी। उससे सरकार की नीयत और नीति साफ हो जायेगी कि यह दूसरी राजधानी अंशकालिक है या नियमित। क्योकि अभी तक जो सामने आया है उसके मुताबिक सर्दीयों के दो माह ही धर्मशाला में राजधानी रेहगी। यदि दो माह ही धर्मशाला में यह राजधानी रहनी है तो सरकार का यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि जब राजधानी अधीसूचित हो जायेगी तब सरकार के सारे कार्यालय मुख्यसचिव से लेकर नीचे तक वहां स्थित होने आवश्यक हो जायेंगे। इसमें हर विभाग का निदेशालय और उससे जुड़ा सचिवालय प्रभाग रहेगा। इस समय सरकार के साठ से अधिक विभाग हैं जिनके अपने -अपने निदेशालय होते है। सचिव स्तर पर तो एक सचिव के पास कई विभाग हो सकते हैं लेकिन एक ही निदेशालय अन्य निदेशालयों का काम नहीं कर सकता। इसलिये प्रशासनिक अर्थो में राजधानी एक संपूर्ण ईकाई है जिसे खण्डों में विभाजित नही किया जा सकता। यदि सचिव स्तर के अधिकारी ही बिना उनके निदेशालयों के वहां बिठाये जायेंगे तो उससे कोई लाभ नहीं होगा और केवल दो माह के लिये निदेशालय से लेकर सचिवालय स्तर तक सारा कुछ स्थानान्तरित कर पाना या करना न तो व्यवहारिक होगा और न ही संभव। इस तरह का प्रयोग और प्रयास केवल वित्तिय बोझ बढ़ाना ही होगा।
मन्त्रीमण्डल ने इन सारे पक्षों पर विचार किया है या नहीं? मन्त्रीमण्डल के सामने रखे गये प्रस्ताव में संबधित प्रशासन ने यह सारी स्थिति रिकार्ड पर लायी है या नही। इसका खुलासा तो आने समय में ही होगा। लेकिन इस समय प्रदेश की जो वित्तिय स्थिति है उसके मुताबिक प्रदेश का कर्जभार 31 मार्च को 50 हजार करोड़ तक पहुंच जाने की संभावना है क्योंकि 2016-17 को जब बजट सदन में पारित किया गया था उसमें 69084 करोड़ ऋण के माध्यम से जुटाया जाना दर्शाया गया था। अब इसी वर्ष के लिये 3940 करोड़ की अनुपूरक मांगे पारित की गयी है। जिसका अर्थ है कि यह खर्च पहले पारित हुए अनुमानों से बढ़ गया है। स्वाभाविक है कि बढ़े हुए खर्च के लिये धन या तो जनता पर कर लगाकर किया गया है या फिर कर्ज लेकर। इसका खुलासा भी आने वाले बजट दस्तावेजों में सामने आ जायेगा। कुल मिलाकर प्रदेश कर्ज के बोझ तले इतना डूब चुका है कि यदि यह चलन न रूका तो भविष्य कठिन हो जायेगा। ऐसी स्थिति मे हर तरह के अनुत्पादक खर्चों को रोका जाता है न कि बढ़ाया जाता है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति किसी भी तर्क से इस समय यह अनुमति नहीं देती है कि केवल दो माह के लिये धर्मशाला को राजधानी बनाया जाये।
प्रशासनिक और वित्तिय पक्षों के बाद केवल राजनीतिक पक्ष रह जाता है। राजनीतिक वस्तुस्थिति का यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो इस समय केन्द्र में भाजपा की सरकार है और लोक सभा की चारों सीटें कांग्रेस वीरभद्र के नेतृत्व में बुरी तरह से हारी हुई है। वीरभद्र और उनका परिवार आय से अधिक संपति को लेकर आयकर सीबीआई और ईडी की जांच झेल रहा है। जबकि भाजपा और धूमल शासन के कार्यकाल को लेकर जो भी मामले वीरभद्र सरकार ने बनाये है उनमें एक भी मामले में सफलता नही मिली है। बल्कि कुछ मामलों में तो सर्वोच्च न्यायालय में हार का मुंह देखना पड़ा है। बाबा रामदेव के मामलें में वीरभद्र ने जो यूटर्न लिया है उससे तो वीरभद्र सरकार ने स्वयं मान लिया है कि यह मामले गलत बनाये गये थे। राजनीति के इस व्यवहारिक पक्ष मेें भी कांग्रेस और वीरभद्र भाजपा धूमल के सामने बहुत कमजोर सिद्ध होते है। फिर प्रदेश की राजनीति में डा. परमार के बाद कोई भी सरकार रिपिट नहीं हो पायी है। ऐसे में आज कांग्रेस वीरभद्र सिंह को जो सातवी बार मुख्यमन्त्री की शपथ दिलाने का जो दावा कर रही है उस दिशा में धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाकर प्रदेश के सबसे बडे़ जिले कांगड़ा को प्रभावित करने के लिये यह पासा फैंक रही है। लेकिन इससे शिमला, सोलन और सिरमौर के लोग नाराज होंगे। मण्डी में भी यह मांग उठेगी की दूसरी राजधानी यहां क्यों नही। वीरभद्र यह फैंसला कांग्रेस को चुनावी लाभ देने की बजाये नुकसान देने वाला सिद्ध हो सकता है क्योंकि जब अब एक बार दूसरी राजधानी बनाये जाने के लिये मन्त्रीमण्डल के स्तर पर फैसला ले लिया गया है तो आने वाले समय में भी हर सरकार को इस दिशा में आगे ही बढ़ना होगा। कोई भी सरकार इस फैसले को राजनीति के चुनावी गणित के साथ जोड़कर ही देखगी। जैसे की धर्मशाला में स्थित विधानसभा भवन की कोई सही उपयोगिता आज तक नही हो पायी है। सभी इसे एक अवांच्छित फैसला करार देते रहे है लेकिन इसे बदलने का प्रस्ताव आज तक कोई नहीं ला पाया है। ऐसा ही इस राजधानी के नाम पर होगा यह तय है।