देश के पांच राज्यों में विधान सभाओं के चुनाव होने जा रहे है। इन चुनावों के परिदृश्य में यह सवाल फिर उभरा है कि जिन लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं क्या उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए या नही? चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल पर विचार कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए की समय रहते हीे इसका कोई जवाब जनता के सामने आ जायेगा। आज विधान सभाओं से लेकर देश की संसद तक आपराधिक मामले झेल रहे लोग जन प्रतिनिधि बनकर बैठे हुए हैं। क्योंकि यह लोग न्यायपालिका की बजायेे जनता की अदालत पर ज्यादा भरोसा करते हैं और जनता इन्हे विजयी बनाकर अपने प्रतिनिधि के रूप में आगे भेज देती है। इस जनता की अदालत में इनके आपराधिक मामलों पर कितनीे बहस होती है कैसे और कौन इनका पक्ष रखता है इसका कोई लेखा जोखा नहीं रहता है। केवल हार या जीत सामने आती है। इसी के कारण चुनावों में धन बल और बाहुबल के प्रभाव के आरोप लगते आ रहे हैं। यह चलन कब समाप्त होगा? कब व्यवस्थापिका को इन अपराधियों से निजात मिलेगी?
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह निर्देश दे रखे हैं कि जिन जन प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामले आदलतों में लंबित हैं उनमें एक वर्ष के भीतर फैसला करना होगा। इसके लिये अगर दैनिक आधार पर भी सुनवाई करनी पडे़ तो की जानी चाहिये। इसको सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त अदालतें तक स्थापित करने की व्यवस्था दी गयी थी। केन्द्र सरकार ने उस समय राज्य सरकारों को इस आश्य का पत्रा भी भेजा था। सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ अदालतों को सख्त हिदायत दी थी कि एक वर्ष से अधिक का समय लगने की स्थिति में संबधित उच्च न्यायालय से इसकी अनुमति लेनी होगी। लेकिन क्या सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की अनुपालना हो पायी है? आज भी जन प्रतिनिधियों के खिलाफ वर्षो से ट्रायल में मामले लंबित हैं। क्योंकि फैसले के बाद न तो सर्वोच्च न्यायालय ने और ही सरकार ने इस बारे में जानकारी लेने का प्रयास किया है। एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिये थे कि जांच ऐजैन्सी के पास आने वाली हर शिकायत पर एक सप्ताह के भीतर मामला दर्ज हो जाना चाहिये। यदि जांच अधिकारी को शिकायत पर कुछ प्रारम्भिक जांच करने की आवश्यकता लगे तो ऐसी जांच भी एक सप्ताह में पूरी करके शिकायत पर कारवाई करनी होगी। यदि जांच अधिकारी की राय में शिकायत पर मामला दर्ज करने का आधार न बनता हो तो इसकी वजह लिखित में रिकार्ड करनी होगी और शिकायतकर्ता को भी लिखित में इसकी जानकारी देनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम स्टेेट आॅफ उत्तर प्रदेश में स्पष्ट कहा है कि किसी भी शिकायत को बिना कारवाई के नहीं समाप्त किया जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से उम्मीद जगी थी कि अब व्यवस्थापिका में देर सवेर आपराधिक छवि के लोगों के घुसने पर रोक लग ही जायेगी। यह भी आस बंधी थी कि पुलिस तन्त्र उसके पास आने वाली शिकायतों को आसानी से रद्दी की टोकरी में डालकर ही नहीं निपटा देगा। लगा था कि ‘‘हर आदमी कानून के आगे बराबर है ’’ के वाक्य पर अमल होगा। लेकिन अभी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमन्त्री मोदी के खिलाफ आयी प्रशान्त भूषण की शिकायत के मामले को जिस तरह से निपटाया है उससे आम आदमी की उम्मीद को गहरा आघात लगा है। मोदी जब गुजरात के मुख्यमन्त्री थे उस समय उन्हें कुछ उद्योग घरानों से करीब 40 करोड़ मिलने का आरोप लगा है। इस आरोप की पुष्टि में उन्हें जो कुछ दस्तावेज मिले हैं उन पर आयकर विभाग का भी हवाला है। राहुल गांधी ने भी इन आरोपों को जनता के सामने रखा है। इन आरोपों से आज की राजनीति और आर्थिक परिस्थितियों से एक नयी बहस उठी है। क्योंकि इस समय देश में भ्रष्टाचार और कालाधन केन्द्रित मुद्दे बन चुके हंै। नोटंबदी से इस पर और भी ध्यान केन्द्रित हुआ है। राजनीतिक दल और नेता एक दूसरे के भ्रष्टाचार पर हमला बोलने लगे हैं और यह एक अच्छा संकेत है। इस वस्तु स्थिति में न्यायपालिका की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि देश की सबसे बड़ी जांच ऐजैन्सी सीबीआई को सर्वोच्च न्यायालय ही सरकार के पिंजरे का तोता करार दे चुका है। ऐसे में न्यायपालिका पर ही अन्तिम भरोसा है। यदि सर्वाच्च न्यायालय मोदी पर लगे इन आरोपों की जांच का मार्ग अपनी निगरानी में प्रशस्त कर देता तो इस भरोसे को और बल मिल जाता लेकिन इस जांच का रास्ता ही रोक दिये जाने से यह धारणा बनना और सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बदले राजनीतिक परिदृश्य में न्यायपालिका के सरोकार भी बदल गये हैं?