शिमला/शैल। प्रधानमंत्री के नोटबंदी फैसले के बाद अब आटा, दाल आदि की कीमतों में बढ़ौत्तरी के समाचार आने लग पड़े हैं। नोटबंदी से मंहगाई का बढ़ना एक खतरनाक संकेत है क्योंकि इन दोनों का आपस में कोई सीधा संबद्ध नही है। मंहगाई के लिये केवल थोक में काम करने वाला बड़ा व्यापारीे ही जिम्मेदार होता है जो कि बाजार से चीज उठाकर स्टोर कर लेता है और फिर उसकी कालाबाजारी करता है जब नोटबंदी के फैसले की घोषणा हुई थी उसके बाद इसी काले बाजार ने देश के कुछ भागों में नमक की कमी की अफवाह फैला दी और नमक को लेकर अफरातफरी मची। नमक की कमी की अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ जब कोई कारवाई नहीं हुई तब इन्ही लोगों ने अब दैनिक जरूरत के आटा दाल आदि की कीमतें बढ़ा दी हैं ।
प्रधानमन्त्री ने कालेधन का कारोबार करने वालों के खिलाफ यह नोटबंदी का कदम उठाया है। देश के गरीब और मध्यम वर्ग ने प्रधान मन्त्री को इस पर खुलकर समर्थन दिया है। प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा था। लेकिन इन काला बाजारीयों ने पन्द्रह दिन में ही प्रधान मन्त्री को चुनौती दे दी है। उन्होने दैनिक जरूरत की चीजों के दाम बढ़ाकर फिर से दो गुणा कालाधन जमा करने का रास्ता अपना लिया है। दैनिक खाद्य सामग्री की कीमतें बढ़ना एक घातक संकेत है और आने वाले दिनों में इसके परिणाम भयानक हो सकते है। नोटबंदी से तो इन काला बाजारीयों की कमर टूट जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। इस मंहगाई से यह स्पष्ट हो गया है कि नोटबंदी का इन जमाखोरों पर कोई असर नही हुआ है। उल्टे आम आदमी की जमा पूंजी भी इस फैंसले से बैकों के पास जमा हो गई और बदले में उसे अपने ही पैसे जरूरत के मुताबिक वापिस बैंक से नहीं मिल रहें है। पैसों के लिये बैंको के आगे लगी लम्बी लाईनों में देश के 74 आदमी अपनी जान गंवा चुके है। आखिर इन मौतों के लिये किसी को तो जिम्मेदार ठहराना होगा। सरकार ने बार -बार कहा कि सरकारी और प्राईवेट अस्पतालों में ईलाज के लिये पुराने नोट स्वीकार किये जायें। लेकिन सरकार के इस दावे की हवा केन्द्रिय मंत्री डी वी गौड़ा के साथ एक प्राईवेट अस्पताल में हुए व्यवहार से निकल जाती है। मन्त्री ने अपने मृतक भाई के ईलाज का भुगतान जब पुराने नोटों से करना चाहा तो अस्पताल ने पुराने नोट लेने से इन्कार कर दिया। ऐसे सैंकडों किस्से हैं।
कालेधन के खिलाफ नोटबंदी एक सराहनीय और सही फैंसला है और इस पर प्रधानमंत्री का सहयोग किया जाना चाहिए यह मेरा पहले दिन से ही मानना है लेकिन इस फैंसले का परिणाम यदि गरीब आदमी को मंहगाई के रूप में मिलता है तो इस फैसले का समर्थन करना कठिन होगा। इस फैंसले से हर घर और हर व्यक्ति सीधे प्रभावित हुआ है। ऐसा ही आपातकाल के दौरान हुआ था। जमाखोरों और काला बाजारीयों को जेल देखनी पड़ी थी। दफ्रतरों में लोग एक समय पर आने शुरू हो गये थे। रिश्वत पर अकुंश लग गया था। आपातकाल का विरोध तब भी राजनीतिक कारणों से हुआ था। लेकिन उस दौरान जब परिवार नियोजन के नाम पर जन संख्या कम करने के लिये नसबंदी कार्यक्रम शुरू हुआ तो उसमें आकंडो की होड में पात्र-अपात्र की परख किये बिना नसबंदी आप्रेशन शुरू हो गये। इन आप्रेशनों से हर घर प्रभावित हो गया। आपातकाल का और कोई ऐसा फैंसला नही रहा है जिससे आम आदमी प्रभावित और डरा हो। लेकिन एक नसबंदी के फैंसले पर हुए अमल ने आपातकाल के सारे अच्छे पक्षों को पीछे छोड़ दिया और 1977 में कांग्रेस पूरे देश से सत्ता से बाहर हो गयी। आज नोटबंदी का फैंसला ठीक नसबंदी जैसा ही फैंसला है और इसके परिणाम भी वैसे ही होने की आशंका मंहगाई से उभरने लग पड़ी है। यदि इसे अभी सख्ती से न रोका गया तो फिर सर्वोच्च न्यायालय की दंगे भड़कने की आशंका सही साबित हो जायेगी।