नोट बंदी से संकट क्यों

Created on Sunday, 20 November 2016 13:11
Written by Baldev Sharma

शिमला/शैल। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने काले धन के खिलाफ एक बड़ा कदम उठाते हूए आठ नवम्बर रात बारह बजे से 500 और 1000 के नोटों के चलन पर रोक लगा दिये जाने का ऐलान किया। इस ऐलान के साथ ही इन पुराने नोटों को बदलने के लिये तीस दिसम्बर तक का समय दिया। पूराने नोटों के स्थान पर 2000 का नया नोट पहले चरण में जारी किया गया। नये नोटों में 500 और 1000 के भी नये नोट जारी किये जायेंगे और कब किये जायेंगे इसको लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। प्रधानमन्त्री ने इस फैसले से होने वाली व्यवहारिक असुविधा के सामान्य होने के लिये पचास दिन का समय मांगा है। फैसला लागू होने के बाद जिस तरह की व्यहवहारिक असुविधा सामने आयी है उससे यह सवाल अवश्य उठता है कि प्रशासनिक स्तर पर इस फैसले की व्यापकता और व्यवहारिकता दोनां का ही आकलन करने में भारी चूक हुई है। यह आकलन उस तन्त्र को करना था जिन्हें इतने बड़े फैसला की प्रक्रिया में शामिल किया गया होगा। इस फैसले के सकारात्मक परिणाम कब, क्या और कितने आयेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस समय इससे व्यवहारिक अराजकता फैलती जा रही है इसमें कोई दो राय नही है।
काला धन एक भयानक समस्या ही नही बल्कि अन्य समस्याओं मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का भी स्त्रोत है यह सब जानते और मानते हैं। इसी कालेधन के सहारे नशा खोरी और आंतकवाद पनपता फैलता है जिसका सबसे बड़ा शिकार आम आदमी होता है। इसीलिये आम असुविधा सहते हुए भी इस फैसले का स्वागत कर रहा है और प्रधान मन्त्री को पचास दिन का समय देने के लिये तैयार है। आज इस फैसले का विरोध आम आदमी की असुविधा के नाम पर वह राजनीतिक वर्ग कर रहा है जिसका अधिकांश काम कालेधन के बिना नही चलता है। आज नोट बदलवाने के लिये यह बैंक से अपने ही खाते से पैसा निकलवाने के लिये लग रही लाईनों में कहीं से भी ऐसी कोई खबर नही आयी है कि कहीं कोई मन्त्री, सांसद विधायक, बड़ा नौकरशाह या बड़ा व्यापारी ऐसी लाईन में देखा गया हो। जबकि कालाधन सबसे पहले इसी वर्ग के पास आता है। क्योंकि सरकार में कोई भी बड़ा-छोटा फैसला इसी वर्ग के हाथों से होकर निकलता है और घूसखोरी का पहला कदम यहीं से शुरू होता है। इसी घूसखोरी का पैसा आगे चलकर कालेधन की शक्ल लेकर बाजार में निवेश होता है। आज पंचायत सदस्य से लेकर सांसद तक सबका चुनाव इसी कालेधन के सहारे हो रहा है। चुनाव खर्च की सीमा जिस अनुपात में बढती आयी है उसी अनुपात में कालाधन बढ़ा है। आज चुनावों के लिये राजनीतिक दलों की खर्च सीमा पर कोई पाबन्दी नही है। राजनीतिक दलों के लिये खर्च की कोई सीमा न होना तथा चुनाव खर्च का लगातार बढ़ता जाना ही भ्रष्टाचार और कालेधन की बाध्यता बनता है और हमाम में सारे छोटे बड़े राजनीतिक दल बराबर के नगें है।
इसलिये आज काले धन पर हुई चोट से जो वर्ग आहत है वह आगे चलकर इस फैसले को पलटने के लिये और इसे असफल प्रमाणित करने के लिये किसी भी हद तक जा सकता है इस संभावना को ध्यान में रखना होगा। आज काले धन के खिलाफ उठे इस कदम की जो मध्यम वर्ग हिमायत कर रहा है देश में बहुत मत उसका है। उसको साथ रखने के लिये आवश्यक है कि इस फैसले के सीधे लाभ उसे प्रत्यक्ष मिलें। इसके लिये यदि उसके किचन का खर्च उसके बच्चों की पढ़ाई का खर्च और अस्पताल में उसके ईलाज का खर्च आधा रह जाता है तभी वह इस फैसले के साथ इतनी असुविधा सहने के बाद भी खड़ा रहेगा। यदि आज इस कालेधन के बाहर आने से उद्योगपतियों को दिये ट्टणों के कारण बीमार पडे बैंको को ही राहत दी जाती है तो इस फैसले का समर्थन आम आदमी ज्यादा देर तक नही कर पायेगा। बल्कि वह इसके आक्रमक विरोध में खड़ा हो जायेगा। इस फैसले से हो रही व्यवहारिक असुविधा को दूर करने के लिये 2000 के नोट के साथ ही पांच सौ और हजार के नोट जारी करना आवश्यक हो जायेगा। क्योंकि बाकी के खुले पैसे मिलने में व्यवहारिक कठिनाई आती है। क्योंकि पुराने बंद किये गये नोट पहले ही कुल कंरसी का 86% थे तो उन्हे बदलने के लिये भी उसी मूल्य पांच सौ और एक हजार के 86% नोट ही उपलब्ध करवाने होंगे। क्योकि पांच, दस, बीस और सौ के नोट तो पहले ही केवल 14% थे। इसलिये 14% से 86% नही बदले जा सकते यह सामान्य सी समझ की बात है। लेकिन लगता है कि इस फैसले को अमली शक्ल देने के लिये जिम्मेदार तन्त्र ने इस व्यवहारिकता को ही नजर अन्दाज कर दिया और इसी के कारण यह संकट खडा हो रहा है।