शिमला/शैल। वर्ष 2017 में कुछ राज्य विधान सभाओं के चुनाव होने जा रहे है। कुछ वर्ष के शुरू में ही हो जायेेंगे और कुछ वर्ष के अन्त में। इन चुनावों को लेकर अभी से राजनीतिक दल और नेता तैयारीयों में लग गये हैं। संबधित राज्य सरकारों ने अभी से अपनी उपलब्धियों का वखान करने वाले विज्ञापन प्रिन्ट और इलैक्ट्रानिक मीडिया में जारी करने शुरू कर दिये है। इसी के साथ चुनाव प्रचार विशेषज्ञों और कंपनीयों की सेवाएं भी ली जानी शुरू कर दी गयी हैं। इस प्रचार तन्त्र पर जो खर्च हो शुरू हो गया है यदि अन्त तक पहुंचते-पहुंचते उसका सही और निपक्ष आकलन सामने आ पाया तो निश्चित रूप से यह आंकडा प्रति विधान सभा क्षेत्रा में चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा से कई गुणा अधिक होगा यह तय है। लेकिन फिर भी यह आचार संहिता के तय मानकों की उल्लघंना की सीमा में नही आयेगा क्योंकि राजनीतिक दलों के लिये खर्च की कोई सीमा ही तय नही है। न ही यह सब कुछ पेड न्यूज की श्रेणी में आ पायेगा। अभी पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक समाचार आया था कि ए बी पी न्यूज को उत्तर प्रदेश के चुनाव को प्रभावित करने के लिये सौ करोड़ रूपया दिया जा रहा है 45 करोड़ के कैश के साथ इस चैनल के एक अधिकारी को पकड़ा गया है यह भी समाचार में था। लेकिन इस चैनल को इतनी बड़ी रकम किसने दी? 45 करोड़ कैश के साथ इसके अधिकारी के पकडे जाने पर उसके खिलाफ आगे क्या कारवाई की गयी इसका कहीं कोई जिक्र आगे नही चला। सारा मीडिया इस समाचार पर मौन रहा। यहां तक की जिस चैनल पर यह आरोप लगा उसकी ओर से भी कोई प्रतिक्रिया कोई खण्डन नहीं आया। किसी भी राजनीतिक दल की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया नही आयी । यहां तक की स्वयं चुनाव आयोग तक ने इस पर कुछ नही कहा। इस घटना से यही प्रमाणित होता है कि हमारा चुनाव तन्त्रा कितना संवेदन हीन हो चुका है। ऐसे परिदृश्य में होने वाले चुनाव कितने निष्पक्ष, कितने प्रमाणिक कहे जा सकते हैं।,
इसी के साथ जुड़ा हुआ दूसरा सवाल है कि चुनाव प्रचार विशेषज्ञ और कंपनीयां अनुबंधित की जा रही है उनकी भूमिका क्या होने जा रही है। निश्चित रूप से इन विशेषज्ञों के माध्यम से राजनितिक दलों और उनके नेताओं की छवि को संवारने में जनता के सामने वह परोसा जायेगा जिसका व्यवहारिकता और सच्चाई के साथ दूर-दूर तक कोई वास्ता नही होगा। पिछले लोकसभा चुनावों में सारा चुनाव प्रचार ऐसे ही प्रचार विशेषज्ञों से संचलित था। इन्ही की प्रचार नीति के तहत जनता में इतने वायदे परोस दिये गये जिनसे परिणाम का प्रभावित होना स्वाभाविक था और परिणाम प्रभावित हुआ भी। यह वायदे अव्यवहारिक थे। सच्चाई से कोसों दूर थे। इसलिये पूरे नही हुए। अच्छे दिन नही आये। प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख काला धन नही आया। जिन वयादों को पूरा करने के लिये पांच वर्ष का समय मांगा गया था चुनाव जीतने के बाद उनके लिये दस वर्ष का समय मांग लिया गया। आज यदि ईमानदारी से आंकलन किया जाये तो कोई भी राजनीतिक दल कसौटी पर पूरा नही उतरता है। कोई भी अपने वायदे पूरा नही कर पाया है क्योंकि यह वायदे पूरे हो नही सकते थे। यह तो केवल जनता को भ्रमित करने के लिये थे और जनता भ्रमित हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस सब पर नियन्त्राण कैसे किया जाये। नियन्त्राण और नियोजन की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। चुनाव आयोग को इसके लिये कुछ मानक नये सिरे से तय करने होंगे। इसमें राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च की भी सीमा तय करनी होगी और इस में प्रत्यक्ष या अपरोक्ष रूप से किया जाने वाला हर खर्च शामिल रहना चाहिये। चुनाव में किये गये हर वायदे की पूर्ति के लिये संसाधन कहां से आयेंगे इसका खुलासा चुनाव घोषणा पत्रा में रहना अनिवार्य होना चाहिये? किसी भी वायदे को पूरा करने के लिये सरकारी कोष पर कर्ज भार डालने की अनुमति नही होनी चाहिये? अव्यवहारिक वायदों को खुले प्रलोभन की संज्ञा देकर ऐसे वायदे करने वालो के खिलाफ अपराधिक कारवाई का प्रावधान होना चाहिये। क्योंकि जिस तरह से आने वाले चुनावों में राजनीतिक दलों की संभावित रणनीति के संकेत उभरते नजर आ रहे हैं वह देश के लिये घातक सिद्ध होगा। क्योंकि चुनाव प्रचार के नाम पर जो वायदों के प्रलोभन परोसे जायेंगे उससे चुनाव परिणामों का प्रभावित होना स्वाभाविक है और कायदे से यह आचार संहिता का खुला उल्लघंन है। इसे रोकना चुनाव आयोग का दायित्व है इसलिये यह सवाल आयोग से उठाये जा रहे हैं।