गोरक्षक और दलित समाज

Created on Monday, 15 August 2016 09:02
Written by Baldev Sharma

शिमला। पिछले कुछ अरसे से देश के विभिन्न भागों से गोरक्षा के नाम पर कुछ गोरक्षकों की उग्रता दलित अत्याचार के रूप में सामने आयी है। यह उग्रता इतनी बढ़ गयी कि इस पर देश की संसद में बैठे दलित सासंदों को पार्टी लाईन से ऊपर उठकर दलित अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी पडी है। दलित सासंदों की इस चिन्ता का संज्ञान लेते हुए प्रधान मन्त्री नरेन्द्रमोदी ने भी बढ़ते दलित अत्याचार और फर्जी गोरक्षकों की कडे़ शब्दों में निंदा की है। लेकिन प्रधान मन्त्री की इस प्रतिक्रिया का विश्व हिन्दु परिषद ने खुले मन से पूरा समर्थन नही किया है। इसी के साथ दलित अत्याचार पर भी रोक नही लगी है। गोरक्षा के नाम पर गोरक्षकों की उग्रता के खिलाफ अपना रोष मुखर करते हुए दलित संगठनों ने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अपने परम्परागत कार्य को छोड़ने तक का ऐलान कर दिया है। आज यह समस्या एक ऐसा रूप धारण करती जा रही है कि यदि इसका समय रहते सही हल न निकला तो इसका देश के सामाजिक सौहार्द पर गहरा असर पड़ेगा।
गाय का हिन्दु धर्म और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गाय दान का हिन्दु धर्म में एक ऐसा विशेष स्थान है जिससे स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग सरल और सुगम हो जाता है। स्वाभाविक है कि जिस समाज में किसी भी पशु का ऐसा केन्द्रिय स्थान होगा उसमें सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिये भी यही पशु मुख्य भूमिका में ला खड़ा किया जा सकता है। यह देश कृषि प्रधान देश माना जाता है। कृषि कार्य में गाय-बैल की उपयोगिता से सभी परिचित हैं फिर गाय दूध का भी मूल स्त्रोत है और प्राय हर भूगौलिक क्षेत्र में सुगमता से उपलब्ध है। जबकि भंैस भी दूध का स्त्रोत है परन्तु क्षेत्र में उपलब्धता नही है। इसलिये एक समय तक कृषि कार्य से जुड़े हर परिवार में गाय का होना अनिवार्य था। अब जब कृषि कार्यो में बैल का स्थान टैªक्टर ने ले लिया है तो उसी अनुपात में आज हर घर में गाय नही है। लेकिन गाय का धार्मिक स्थान आज भी अपनी जगह कायम है। फिर टैªक्टर के चलन के साथ ही गाय पालन की अनिवार्यता पहले जैसी नही रह गयी है। जहंा पहले हर घर में गाय होती थी आज उसका स्थान गौशालाओं ने ले लिया है क्योंकि गाय पालने के साधनों में कमी आती जा रही है। इसलिये आज आवारा पशुओं में भी गाय और बैल की संख्या बढ़ गयी है। डेयरी फार्मो में भी गाय का स्थान भंैस लेती जा रही है। इस परिदृश्य में गाय की व्यवहारिक उपयोगिता और गोरक्षा में कमी आने के कारण गाय की रक्षा एक समस्या बनती जा रही है। क्योंकि उपयोगिता और रक्षा एक दूसरे के अभिन्न अंग है।
इसका दूसरा पक्ष है कि जब आप गाय को आवारा छोड़ रहे है तो फिर उसकी चिन्ता कौन करेगा। राजस्थान में एक सरकारी गौशाला में पांच सौ गायों का मरना इसी सत्य को प्रमाणित करता है। आज गाय की रक्षा चैरिटी से नही की जा सकती है। आज यहां एक साथ इतने पशु मर जायेंगे वहां पर उनका अन्तिम संस्कार क्या होगा? प्रत्येक मृत पशु का चमड़ा निकालना और उसका शोधन करके उसे उपयोग में लाना अपने में एक बहुत बड़ा व्यवसाय है। पहले समाज का एक वर्ग यह कार्य करता था। मृत पशु का चमड़ा और उसकी हड्डीयां तक उपयोग में लायी जाती थी। संयोगवश चमड़ा निकालने का काम दलित वर्ग करता था लेकिन इस कर्म के लिये जब उसे हेय और अछूत माना जाने लगा तो इससे समाज में विकृतियां आनी शुरू हो गयी है। आज समस्या फिर वहीं खड़ी है कि जिन्दा पशु का चाहे वह गाय है या कोई अन्य पशु उसका पालन कौन करेगा? उसे आवारा तो नही छोड़ा जायेगा? फिर पशु के मरने के बाद उसका चमडा आदि निकालने का काम कौन करेगा या फिर मृत पशु का संस्कार क्या होगा और कौन करेगा? आज यह सामाजिक व्यवस्था तय करना आवश्यक है। इस व्यवहारिक पक्ष को नंजर अन्दाज करके गौरक्षा के नाम पर समाज में बवाल तो खड़ा किया जा सकता है लेकिन उससे समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता है। आदमी की मृत्यु के पश्चात उसके अनितम संस्कार की रीति नीति तय है क्या उसी तर्ज पर हर मृत पशु के संस्कार की रीति नीति उसकी मरणोपरान्त उपयोगिता के आधार पर तय होना आवश्यक है। आज के अधिकांश गोरक्षक वह लोग मिल जायेंगे जिनके अपने घरों में गाय का पालन नही होता है। यह लोग हिन्दु धर्म में गाय के स्थान की व्यवहारिकता में रक्षा करने की बजाये उसकेे नाम पर समाज में सौहार्द बिगाडने का काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों को कानून के मुताबिक दण्डित किया जाना चाहिये। आज किसी भी गोरक्षक से पहला सवाल ही यह पूछा जाना चाहिये की गाय का अन्तिम संस्कार क्या और कैसा होना चाहिये तथा कौन करेगा।