शिमला/शैल। दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार का अपने गठन के पहले दिन से लेकर ही मोदी का केन्द्र सरकार से टकराव चल रहा है। केन्द्र सरकार केजरीवाल को अराजकतावादी तक करार दे चुकी है। आम आदमी पार्टी ने भी मोदी सरकार को खुली चुनौती दे रखी है कि वह हटने वाली नहीं है। दोनों सरकारों के बीच चल रहा यह टकराव आज आम आदमी में चर्चा का केन्द्र बन चुका है। यह टकराव मोदी की भाजपा और केजरीवाल की आप पर क्या असर डालेगा यह तो आने वाले समय में ही स्पष्ट हो पायेगा। लेकिन इस टकराव से देश को लाभ होगा यह तय है। क्योंकि इस समय देश एक राजनीतिक बदलाव के दौर में गुजर रहा है। देश में व्यवस्था के खिलाफ पहली बार स्व. जय प्रकाश नारायण की समग्रक्रान्ति से जो स्वर उभरे थे उन्हे आज एक स्पष्ट दिशा-दशा मिलने के संकेत झलकते नजर आ रहे हैं। यहां तक पहुंचने के लिये देश नेे जनता पाटी्र्र के टूटने से लेकर स्व. वी.पी.सिंह की भ्रष्टाचार के खिलाफ खुली लड़ाई उसके बाद मण्डल बनाम कमंडल और फिर रामदेव तथा अन्ना आन्दोलन का एक लम्बा दौर देखा है। इसमें किसकी क्या भूमिका रही है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह रहा है कि हर बार कांग्रेस के समस्त विकल्प की तलाश मुख्य बिन्दु रहा है। क्योंकि बहुभाषी और बहुधर्मी देश की संस्कृति ने वाम विचारधारा तथा आर एस एस की हिन्दु अवधारणा को कभी विकल्प के रूप में नहीं स्वीकारा है। यदि ऐसा होता तो वाम दल केरल, बंगाल और त्रिपुरा से निकलकर केन्द्र तक में स्वीकार्य हो चुके होते। संघ भी 1967 में पहली बार जन संघ को सबिं( सरकारों में कुछ राज्यों में मिली भागीदारी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता बना चुका होता।
केजरीवाल और मोदी के टकराव को इस बड़े परिप्रेक्ष में देखना होगा। मोदी और भाजपा का मूल आधार संघ है। संघ अपने गठन से लेकर आज तक हिन्दु अवधारणा पर टिका हुआ है। हिन्दु अवधारणा को आगे बढ़ाने के लिये समान नागरिक संहिता, धारा 370 और राम मन्दिर निर्माण जैसे मुद्दे इसका मुख्य आधार रहें हैं। आज केन्द्र में 282 सीटें जीतकर संघ का आर्थिक चिन्तन भी भामाशाही अवधारणा पर टिका है। इसके लिये उसे अदानी-अंबानी जैसे भामाशाह पोषित करना भी अनिवार्यता है। संघ-भाजपा को अपने हिन्दु ऐजैण्डे को आगे बढ़ाने में कांग्रेस और वामदलों से कोई चुनौती नहीं है। क्योंकि कांग्रेस को भ्रष्टाचारी छवि के आरोपों से बाहर निकलने में बहुत वक्त लगेगा। वामदल भी बंगाल खोने के बाद बचाव की मुद्रा में चल रहे हैं। ऐसे में केवल केजरीवाल की आप ही रह जाती है जिससे मोदी-भाजपा को खतरा हो सकता हेै।
भाजपा को केजरीवाल से खतरा क्यों है? इस सवाल को समझने के लिये थोड़ा सा अन्ना आन्दोलन को समझना होगा। अन्ना आन्दोलन संघ का प्रायोजित ऐजैण्डा था यह स्पष्ट हो चुका है। केजरीवाल और आप भी इसी आन्दोलन का प्रतिफल है। आज संयोगवंश केजरीवाल और अन्ना के रास्ते अलग हो चुके हंै। केजरीवाल तो आप बनाकर भाजपा-कांग्रेस का विकल्प बनते नजर आ रहे हंै। लेकिन अन्ना अपने आन्दोलन का फिर से आह्वान कर पाने की स्थिति में नहीं है। केजरीवाल पहले कभी राजनीतिक सत्ता में नही रहे हंै और आज भी अपने पास कोई विभाग न रखकर सत्ता के विकेन्द्रीकरण के ऐजैण्डे को मूर्त रूप दे दिया है। आज केजरीवाल और मोदी सरकार में दिल्ली सरकार के अधिकारों की व्याख्या और सीमा ही टकराव का केन्द्र बिन्दु है। इस मुद्दे को लेकर आप सरकार सर्वोच्च न्यायालय में पहंुच चुकी है और सर्वोच्च में दो न्यायधीश इस इस मुद्दे की सुनवाई से बिना कारण बताये पीछे हट गये हैं। इससे अधिकारों के इस मामले में ठोस आधार का होना स्पष्ट होता है। इस परिदृश्य में केजरीवाल और आप का पक्ष जायज नज़र आता है। इससे राष्ट्रीय स्तर पर केजरीवाल की स्वीकार्यता बनती नजर आ रही है। क्योंकि कांग्रेस-भाजपा और वामदलों को छोड़कर बाकी दल अपने हर आयोजन में केजरीवाल को आमन्त्रिात करने लग गये हैं। ऐसे में केजरीवाल को भी कुछ मामलांे में विशेष सावधानी से चलना होगा। उनके राजनीतिक और प्रशासनिक सहयोगीयों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के हर आरोप पर पूरी सावधानी से कदम उठाने होगें। क्योंकि जब उनके पहले कानून मंत्राी पर आरोप लगे थे तब शुरू में उन्होंने उसका बचाव किया लेकिन जैसे ही पूरे तथ्यों की जानकारी मिली तो अपना स्टैण्ड बदला और जनता को स्पष्ट बताया भी। आज उनके प्रधान सविच की गिरफ्तारी के मामले में भी देश उनसे वैसी ही स्पष्टता की उम्मीद रखता है। इसी के साथ आगे संगठन को बढ़ाने के लिये जहां भी इकाई गठित की जायेगी वहां पदाधिकारियो का चयन करते समय पर्याप्त सावधानियां बरतनी होंगी।