उत्तराखण्ड से सबक लेना होगा

Created on Sunday, 15 May 2016 12:15
Written by Baldev Sharma

शिमला। उत्तराखण्ड में अन्ततः राष्ट्रपति शासन हट गया है। क्योंकि शक्ति परीक्षण में कांग्रेस बहुमत पाने में सफल हो गयी। उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन के खिलाफ पहले वहां के उच्च न्यायालय ने फैसला दिया जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौति दी गयी। इस बीच स्टिंग आपरेशन हुए जिसको लेकर सी.बी.आई. की जांच चल रही है। इसी बीच राष्टपति शासन के खिलाफ फैसला देने वाले न्यायध्ीश को लेकर सोशल मीडिया में हर तरह का प्रचार और प्रतिक्रियाएं भी सामने आयी और संभवतः इसी सबके कारण उनका वहां से तबादला भी हो गया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय भी इस फैसले को पलट नहीं सका है। उत्तराखण्ड में राजनीतिक तौर पर जो कुछ घटा और उसका जो भी अन्तिम परिणाम शक्ति परीक्षण में सामने आया है उसे राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी राजनीति के तौर पर देखा जा सकता है। उसके पक्ष और विरोध में अपने-अपने तर्क हो सकते हैं। लेकिन इस पूरे प्रकरण में जिस तरह का प्रचार उच्च न्यायालय के न्यायाध्ीश के खिलाफ आया है वह पूरी व्यवस्था के लिए एक गम्भीर संकेत और संदेश है जिसके परिणाम भयानक और दूरगामी होंगे। क्योंकि यह प्रतिक्रिया फैंसले पर ना होकर फैंसला देने वाले के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर थी। यह न्यायधीश एक अरसे से उच्च न्यायपालिका में है और दर्जनों मामलों में फैंसले दिये होंगे लेकिन आज तक इस तरह उनके खिलाफ पहले कभी नहीं आया।
इसमें चिन्ता जनक सवाल यह उभरता है कि क्या जब भी राजनीतिक हितों के खिलाफ कोई ऐसा फैसला देगा तो क्या उसका इस तरह से चरित्र हनन किया जायेगा? फिर यदि न्यायाधीश के खिलाफ सही में ही ऐसा कुछ था तो फिर उसका विरोध पहले क्यों नहीं किया गया। आज उत्तराखण्ड के राष्ट्रपति शासन का लाभ केवल भाजपा को मिलना था। इस लाभ के लिए ही विधानसभा को भंग किये बिना राष्ट्रपति शासन लगाया था ताकि आगे चलकर चुनावों से पहले ही वहां पर भाजपा सरकार बना लेती। लेकिन जब उच्च न्यायालय के फैसले से बाजी पलट गयी तो न्यायधीश को ही निशाने पर ले लिया गया। निश्चित तौर पर इस तरह के प्रचार के पीछे भाजपा/ संघ के समर्थकों की ही भूमिका थी। इससे भाजपा और संघ की छवि को लेकर आने वाले समय में यह प्रचारित होता चला जाएगा कि यदि इनके राजनीतिक हितों के खिलाफ कहीं पर भी इस तरह का कुछ घटता है तो उसको लेकर यह लोग किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। क्योंकि भाजपा/संघ के किसी भी बड़े ने इस तरह के प्रचार की निन्दा नहीं की है।
अभी भाजपा को देश भर में स्थापित होने में समय लगेगा भले ही लोकसभा में उनके पास 282 सीटें अपनी अकेली हैं। लेकिन जब तक राज्यों की सत्ता उनके हाथ में नही आ जाती है तब तक उसके हिन्दुवादी स्थापनों के प्रयासों को देश स्वीकार नहीं करेगा। आज राजस्थान में जिस तरह से स्कूली पाठ्यक्रम से देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू का नाम हटाया गया है वह भी उत्तराखण्ड़ के न्यायाध्ीश के खिलाफ किये जा रहे प्रचार जैसा ही प्रयास है। ऐसे ही गुजरात में दीनानाथ बत्रा की पुस्तकों को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने का कदम है। भाजपा को केन्द्र की सत्ता भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ ठोस कड़ी कारवाईयां करने की उम्मीद में मिली है। लेकिन अभी दो वर्षों में भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रचार के अतिरिक्त कुछ भी ठोस नहीं किया जा सका है। भाजपा जिस तरह से नेहरू गांधी को घेरने का प्रयास कर रही है उससे उसे कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। बल्कि इस तरह के प्रयासों से राहुल/सोनिया को और ताकत मिलेगी। जिस तरह से उत्तराखण्ड में सरकार गिराने का प्रयास किया गया यदि वैसा ही प्रयास किसी और राज्य में किया गया तो परिणाम बहुत भयानक होंगे। यदि भ्रष्टाचार के ठोस मामलों में कुछ एक भाजपा नेताओं और कुछ कांग्रेस के मुख्यमन्त्रियों के खिलाफ तुरन्त कारवाई की जाती है तो उससे ही भाजपा और मोदी दोनांे को लाभ मिलेगा अन्यथा नही है।