गांधी जी ने राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक या जो भी विचार व्यक्त किए हैं उनका आधार कोई स्वरचित ग्रन्थ नही था वरन् वह मानवतावादी विचारक थे। भारतीय निर्धनों की दशा से द्रवित होकर उन्होने समय -समय पर जो भी विचार प्रतिपादित किये वे उनकी आर्थिक योजनाओं तथा अर्थव्यवस्थाओं पर प्रकाश डालते हैं। गांधी जी, अन्य विचारकों के समान अपने समय की अर्थव्यवस्था से असन्तुष्ट थे क्योंकि तत्कानील पूंजीवादी अर्थव्यवस्था तथा उसकी उत्पादन क्षमता सामाजिक जीवन की आवश्कयताओं को पूरा करने में असमर्थ थी और आज भी है। गांधीजी पूंजीवाद को शोषण पर आधारित व्यवस्था बताते हैं। इसलिए, वह सरल अर्थव्यवस्था प्रतिपादित करने के समर्थक थे। गांधीवादी अर्थव्यवस्था की व्याख्या हम गांधीजी के निम्मलिखित विचारों के आधार पर कर सकते है।
रोटी के लिए श्रम का सिद्धांत (Bread Labour) सर्वप्रथम हम गांधी जी के द्वारा प्रतिपादित रोटी के लिए श्रम का सिद्धांत की व्याख्या करेंगे। यह सिद्धांत ‘जो कार्य नहीं करेगा वह खायेगा भी नहीं’ का सिद्धांत है। गांधी जी का कहना है कि जीवन में रोटी मुनष्य की अनिवार्यतम आवश्यकता है और वह कठिन परिश्रम से प्राप्त होती है। अतः जो व्यक्ति बिना उपयुक्त श्रम के भोजन करता है वह चोर है। वह व्यक्ति जो आधुनिक सभ्यता के आवरण में अपनी आवश्यकताएं बढ़ाए जाते है तथा स्वयं शारीरिक श्रम नहीं करते वे अन्य व्यक्तिों (गरीबो) का शोषण करते हैं। गांधीजी शारीरिक श्रम को अधिक महत्व देते हैं। उनका विचार था कि शारीरिक श्रम करने वाला मेहनती ईमानदार तथा चरित्रवान होता है। प्रत्येक व्यक्ति के निजि परिश्रम से तथा खाने की वस्तु का उत्पादन करने से आर्थिक समानता की नींव पडे़गी। यदि प्रत्येक व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हेें ऐसे कार्य करने चाहिए जिसमें उनका शारीरिक श्रम लगता हो जैसे कताई, बुनाई, काष्ठकला तथा अन्य हस्त कलाएं।
गांधी जी शारीरिक श्रम को प्राकृतिक नियम मानते थे। जिस तरह मानसिक भूख को शांत करने के लिए लौकिक कार्य किये जाते हैं उसी प्रकार शरीर की भूख रोटी से शान्त होती है। गांधी जी का मामना है कि बौद्धिक या मानसिक श्रम करने वाले को भी शारीरिेक श्रम करना चाहिए उसके द्वारा ही वह अपनी बौद्धिक प्रतिभा को अधिक विकसित कर सकता है। यह श्रम ऐच्छिक होना चाहिए, अनिवार्य नहीं, क्योंकि इसकी अनिवार्यता व्यक्ति को असन्तुष्ट बनाए रखेगी ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाः गांधी जी आधुनिक अर्थव्यवस्था को पूंजीवादीे अर्थव्यवस्था बताते थे तथा वह इसके विरूद्ध थे। इस प्रणाली में कुछ बडे-बडे धनाढ्य व्यक्ति अपनी पूंजी का उपयोग बडी बडी मशीनों में लगाते है और मशीनों द्वारा उत्पादन किया जाता है। पूंजीपति उन कारखानों में कार्यरत मजदूरों का शोषण करते है। उद्योगों का सचालन मुटठी भर पूंजीपतियों के हाथों में चला जाता है उन्ही के हाथों में समाज का धन भी केन्द्रित हो जाता है। धन का असमान वितरण और संचय होने से शोषण, भूखमरी और आर्थिक विषमता बढ़ती चली जाती है। पूंजीपति अपने कारखानों के लिए कच्चा माल प्राप्त करने तथा निर्मित माल की मंडिया प्राप्त करने के लिए साम्राज्य निर्माण में प्रवृत हो जाते हैं। राज्य इसी प्रवृति के अधीन होकर कार्य करते हैं, इससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव, अशांति और महायुद्ध उत्पन्न होते हैं।
विकेन्द्रीकरणःगांधी जी ने आर्थिक क्षेत्रों में विकेन्द्रीयकरण के सिन्द्धात का प्रतिपादन किया है वह आर्थिक क्षेत्रों में धन के संकेन्द्रीकरण को सब बुराईयों की जड़ मानते थे। अतः आदर्श अहिंसात्मक राज्य में अर्थव्यवस्था को परिवर्तित किया जाएगा और उत्पादन के साधन पर जनसमूहं का स्वामित्व होगा तथा ईश्वर प्रदत प्राकृतिक साधनों पर सामूूहिक रूप से समाज का आधिपत्य होगा। उत्पादन का विकेन्द्रीकरण ही इस समस्या का समाधान होगा। रक्तिम क्रान्ति उसे समाप्त नही कर सकती।
गांधीजी आर्थिक क्षेत्र में केन्द्रीकरण को व्यक्ति के विकास में बाधक मानते है। अतः आर्थिक दृष्टि से ग्रामों को स्वावलंबी बनाया जाना चाहिए। गांधीजी ‘हिन्द स्वराज’ नामक ग्रन्थ में अपने आदर्श ग्राम स्वराज्य का चित्रांकन करते हुए बताते है कि उसमें प्रत्येक ग्राम एक पूर्ण गणराज्य होगा वह अपनी आवश्यक वस्तुओं के लिए पड़ोसी राज्यों पर निर्भर नही होगा वरन उनका उत्पादन करेगा। प्रत्येक कार्य सहकारिता के आधार पर किया जाएगा। ग्राम का शासन पंचायत द्वारा संचालित किया जायेगा और इस व्यवस्था का मूलाधार व्यक्ति स्वातंत्रय होगा। इस प्रकार प्रत्येक ग्राम अपने शासन उत्पादन, वितरण आदि का स्वयं स्वामी होगा।
केन्द्रीय उत्पादन को सुधारने के लिए गांधीजी ने व्यक्तिगत स्वामित्व को उस समय तक उचित बताया है जब वे श्रमिकों का स्वर इतना उठाये कि उन्हे अपना भागीदार समझे श्रमिक और पूंजीपति सम्पति को अपने पास धरोहर समझे। यदि वे ऐसा नहीं समझते तो उन पर राज्य का स्वामित्व होना चाहिए। राज्य का कारखानों में स्वामित्व हो जाने पर भी श्रमिक अपने निर्वाचित प्रतिनिधों द्वारा सरकार के प्रतिनिधियों के साथ प्रबन्ध में हाथ बटायेंगे।
भारत की आर्थिक व्यवस्था सुधारने के लिए गांधीजी ने कुटीर उ़द्योग, ग्रामद्योग एवं स्वदेशी पर विशेष जोर दिया है घर-घर में स्त्राी पुरूष और बच्चे सभी कताई-बुनाई करेंगे तो उससे एक ओर नागरिको की बेकारी दूर होगी, दूसरे उन्हे पर्याप्त धन मिल जाता है और उनके जीवन के आर्थिक व्यवधान दूर हो जाते हैं स्वदेशी का महत्व देश को आत्म-निर्भर बनाता है अपनी आवश्यकाओं को पूरा करने के लिए अन्य देशों का मुहं नही ताकना पड़ता है। गांधीजी गांवों में मशीनों के प्रयोग के पक्ष में थे। परन्तु उन्हें शोषण करने के लिए नही किया जाएगा। ग्रामीण मशीन के यदि दास नहीं बनेेगे तो उनका प्रयोग वर्जित नही होगा।
आर्थिक समानता का सिन्द्धातः सामाजिक जीवन में न्याय लाने के लिए आर्थिक समानता एंव स्वतन्त्रता स्थापित करनी चाहिए। गांधीजी का मानना था कि आर्थिक समानता का अर्थ सह नहीं कि हर को अक्षरशः उसी मात्रा में कोई चीज मिले बलिक प्रत्येक एक को अपनी आवश्यकता के लिए काफी मात्रा में मिले गांधी जी का आर्थिक समानता का अर्थ था कि सबको अपनी-अपनी जरूरत के अनुसार मिले, माक्र्स की व्याख्या भी यही है यदि अकेला आदमी भी उतना ही मांगे जितना स्त्री और चार बच्चों वाला व्यक्ति मागें तो यह आर्थिक समानता के सिन्द्धात का भंग होगा। गांधीजी का आर्थिक समानता का सिन्द्धात प्रत्येक को सतुलित भोजन, रहने का अच्छा मकान, बच्चो को शिक्षा और दवा की मदद का है।
वितरण का प्राकृतिक सिन्द्धातः गांधीजी का विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए ही वस्तुओें को प्राप्त करना चाहिए। अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना चोर प्रवृति है। मनुष्य की अधिक से अधिक सग्रंह करने की प्रवृति ही निर्धनता और विषमता उत्पन्न करती हैं क्योंकि अधिक सग्रंह करने पर वह न तो उस व्यक्ति के प्रयोग में आती है और न ही अन्य व्यक्ति उसका लाभ उठा सकते है। सम्पति का कुछ हाथों में सीमित हो जाना विकास में बाधक होता है तथा पतन को आमंत्रित करता है। अतः गांधीजी ने न्याय युक्त वितरण के लिए प्रकृति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकाएं पूरी करने के समान अवसर उपलब्ध हों। प्रकृति उतनी ही वस्तु उत्पन्न करती है जितनी की आवश्यकता होती है।
गांधी जी ने धन के समान बंटवारे के लिए दैनिक आवश्यकताओं को कम से कम करने पर जोरे दिया है। गांधीजी ने लिखा है अब हम इस बात का विचार करे कि अहिंसा के द्वारा समान वितरण कैसे कराया जा सकता है? इस दिशा में पहला कदम यह होगा कि जिसने इस आदर्श को अपने जीवन का अंग बना लिया है वह अपने व्यक्तिगत जीवन में तदानुसार जरूरी परिवर्तन करेगा। भारत की दरिद्रता को ध्यान में रखते हुए वह अपनी जरूरतें कम कर लेगा उसकी कमाई बेईमानी से मुक्त होगी। जीवन के हर क्षेत्र मेें वह संयम का पालन करेगा। जब वह अपने ही जीवन में जो कुछ हो सकता है वह सब कर लेगा तभी वह इस स्थिति में होगा कि वह अपने साथियों और पडोसियों में इस आदर्श का प्रचार करेगा।
समान वितरण के लिए संरक्षकता या प्रन्यास पद्धति: गांधीजी ने आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए पूंजीपतियों के लिए न्यास या प्रन्यास की विचार धारा का प्रतिपादन किया हैं उन्होनें लिखा है ‘‘अगर धनवान लोग अपने धन का और उसके कारण मिलने वाली सत्ता को खुद राजी -खुशी से छोडकर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतनेे को तैयारे न होगें, तो यह समझिए कि हमारे देश में हिंसक और खूंखार क्रान्ति हुए बिना न रहेगी।’’
समान वितरण का सिद्धांत कहता है कि अमीरों को अपने पडोसियों से एक रूपया भी अधिक नही रखना चाहिए। यह सब कैसे किया जाये? अहिंसा के द्वारा या धनवानों की सम्पति छीनकर? सम्पति छीनने के लिए हमें स्वाभाविक रूप से हिंसा का आश्रय लेना पडेगा। यह हिसंक कार्यवाही समाज को लाभ नही पहुंचा सकती। समाज उल्टा घाटे में रहेगा क्योंकि वह उस आदमी के गुणों से वंचित हो जायेगा जो धन इकटठा करता है। इसलिए अहिसक उपाय स्पष्ट ही श्रेष्ठ है। धनवान आदमी के पास उसका धन रहने दिया जाएगा परन्तु उसका उतना ही भाग वहअपने काम में लेगा जितना उसे अपनी जरूरतांे के लिए उचित रूप में चाहिए, बाकी को वह समाज के उपयोग के लिए धरोहर (संरक्षक) समझेगा।
गांधी जी का मत था कि आर्थिक व्यवस्था को सुधारने के लिए विषमता को मिटना आवश्यक है यह विषयमता दो प्रकार से मिटाई जा सकती है। एक साम्यवादी-उपाय से जो पूंजीपतियों की सम्पति छीन कर क्रान्ति द्वारा समानता लाना चाहते है। गांधीजी क्रांन्ति के द्वारा समानता के पक्ष मंे नही थे। दूसरा उपाय है कि पूंजीपति स्वेेच्छा से अपनी सम्पति दूसरों के हित के लिए प्रयोग करें। अतः गांधी जी साम्यवादी नीति के स्थान पर प्रन्यास (न्यास) सिद्धांत के समर्थक थे।
प्रन्यास सिद्धांत विशुद्ध भारतीय है। गांधीजी ने इसकी व्याख्या वेदान्त और ईसाई धर्म की मान्यताओं के अनुसार की है। हिन्दु धर्म के अनुसार सम्पति एक पवित्रा प्राप्ति है। यह उसी व्यक्ति के पास होनी चाहिए, जो उसे सामान्य हित के लिये प्रयोग करे।
यह विचारधारा गीता के अपरिग्रह (Non - possession) सिद्धान्त के अनुकूल है। अपरिग्रह का अर्थ है कि मनुष्य अपने पास अपने जीवन की आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं का संचय ना करे। यह सिद्धान्त ईशावास्योपनिषद् के प्रथम भाग के अनुकूल है जिसके अनुसार ईश्वर ही सम्पति आदि सभी वस्तुओं का उत्पादन है। यदि किसी के पास इससे अधिक सम्पति है तो उसे वह अपनी ना समझकर ईश्वर या समाज की समझनी चाहिए। संग्रहकर्ता को ईश्वरीय दृष्टि से प्रत्येक वस्तु को अपने साथियो की सेवा में लगाकर उन्हे देवार्पण करनी चाहिए। सम्पति का त्यागपूर्वक उपयोग किया जाना चाहिए।
गांधी जी का प्रन्यास सिद्धान्त पूर्णतः अहिंसात्मक है। वह साध्य और साधन में उचित सम्बन्ध रखना चाहते थे। उचित साधनो द्वारा ही उचित साध्य होता है। हिंसा के अनुचित साधनों द्वारा जो समानता लाई जाएगी वह हितकारी नहीं हो सकती और न ही स्थायी। यदि पूंजीपति हृदय परिवर्तन करके अपनी ही अतिरिक्त सम्पति तथा कारखानों आदि का न्यासी मान लेता है तो यह अहिंसात्मक है।
गांधीजी ने संरक्षकता (ट्रस्टीशिप) के सिद्धान्त के असफल होने पर मजदूरों द्वारा असहयोग और सविनय अवज्ञा का सुझाव दिया है। गांधीजी कहते हैं ‘‘यदि भरसक कोशिशों के बावजूद धनवान लोग सच्चे अर्थ में निर्धनों के संरक्षक ना बनें, और गरीबों को अधिकाधिक कुचला जाए और वे भूख से मरे, तो क्या किया जाए? इस पहेली का हल ढूंढने के प्रयत्न में मुझे अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा भंग का सही और अचूक उपाय सूझा है। धनवान लोग समाज के गरीबों के सहयोग के बिना धन संग्रह नहीं कर सकते। यदि ज्ञान गरीबों में प्रवेश करके फैल जाए तो वे बलवान हो जायेंगे और अहिंसा के द्वारा अपने आप को उन कुचलने वाली असमानताओं से मुक्त करना सीख लेंगे। जिन्होने उन्हें भूखमरी के किनारे पहुंचा दिया है।
इस विचारधारा के अनुसार पूंजीपतियों को अपनी सम्पति समाज की धरोहर समझने के लिए समझाना चाहिए। वे उस समाज की धरोहर में से जीविका निर्वाह के लिए आवश्यक धनराशि ले सकते हैं। शेष धनराशि को समाज के हितकारी कार्यों में लगा देना चाहिए इसका अर्थ यह नहीं है कि वे उस सम्पति को निर्धन व्यक्तियों में बांट दें। क्योंकि यदि ऐसा किया जाएगा तो निर्धन उसका दुरूप्योग करेंगे और इस प्रकार वितरण करने से सम्पति उपभोग में आकर शीघ्र नष्ट हो जाएगी। व्यक्ति स्वावलम्भी बनकर धन कमाने में उदासीन रहेंगे। उस सम्पति को ऐसे, उद्योग धन्धों में लगाया जाना चाहिए, जिससे जनसाधारण को रोजगार मिल सके अथवा उत्पादन बढ़ा कर सार्वजनिक हित की वृद्धि की जा सके। माक्र्सवादी तथा अन्य विचारक यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि धनी लोग स्वेच्छापूर्वक अपनी सम्पति का त्याग कर देंगे किन्तु गांधीजी को मानवीय प्रकृति की उदारता, दिव्यता तथा सुधार में अगाध विश्वास था। उनकी धारणा थी कि प्रारम्भ में दो-चार साधु स्वभाव वाले पूंजीपति कत्र्तव्य भावना से प्रेरित होकर इस सिद्धान्त का अनुसरण करेंगे, बाद में अन्य पूंजीपति भी उनकी प्रेरणा ग्रहण करके उनका अनुसरण करने लगे। फिर भी यदि वह स्वेच्छापूर्वक अपनी सम्पति का परित्याग करने को तैयार ना हो तो अहिंसात्मक असहयोग और सत्याग्रह के बह्मास्त्र से उन्हें विवश किया जा सकता है।
यह कहा जा सकता है कि गांधी जी का प्रन्यास सिद्धान्त विश्व को भारत की देन है। उनके अनुयायी विनोवा भावे के भूदान आन्दोलन द्वारा गांधी जी के प्रन्यास सिद्धान्त को क्रियान्वित करते हुए हजारों एकड़ भूमि भूमिहीन किसानों को दिलवाई। यह सही है कि प्रन्यास सिद्धान्तों को अपनाकर आर्थिक समानता और शोषणविहीन समाज की स्थापना की जा सकती हैः पर सत्य यह है कि कोई भी पूंजीपति कभी भी अपनी सम्पति को समाज की धरोहर नहीं समझ सकता। यदि एकाध पूंजीपति इस सिद्धान्त का अनुसरण कर भी ले तो पूंजीवाद समाप्त नहीं हो जाएगा। शायद गांधीजी पूंजीपतियों की सही प्रवृति को पहचान नहीं सके। सम्पति को पूंजीपतियों के नियन्त्रण और निर्देशन में रखने से उनका लाभ आम जनता को मिल जाएगा, ऐसी आशा रखना सदैव निराशाजनक ही रहा है। पूंजीपति हमेशा से शोषक रहे हैं और कुछ गिने चुने चन्द पूंजीपतियों के उदाहरण से सामान्य नियम नहीं बनाए जा सकते। सम्पति के जनहितकारी उत्पादन, विनिमय, वितरण आदि पर प्रभावशाली नियन्त्रण और निर्देशन, तथा जागरूक शासन की शक्ति होना आवश्यक है।