शिमला/शैल। पिछले दिनोें राज्यों के मुख्यमंत्रीयों और देश के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का सम्मेलन था। विधि मन्त्रालय द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में देश के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, देश के प्रधानमन्त्री और कानूनी मन्त्री शिरकत कर रहे थे। सम्मेलन में देश की न्यायव्यवस्था चिन्तन और चिन्ता का विषय थी। इस अवसर पर प्रधान न्यायधीश अपने संबोधन में इतने भावुक हो गये की उनकी आखोें से आसूं छलक आये। प्रधानमंत्री इस भावुकता से इतने संवेदित हो गये की उन्होने भी इस सम्मेलन को संबोधित करने और प्रधान न्यायाधीश के आसूओं का जवाब देने के लिए इस सम्मेलन को सबोंधित करने का फैसला लिया। सम्मेलन मंे पूरी न्यायव्यवस्था की जो तस्वीर प्रधान न्यायधीश ने देश के सामने रखी है वह निश्चित तौर पर गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय है। यह व्यवस्था देश के प्रधान मन्त्री और राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों और मुख्यन्यायधीशों के सामने सार्वजनिक रूप से आ गयी है। यह सब लोग देश की सर्वोच्च सत्ता हैं जिन पर देश की 125 करोड़ जनता की जिम्मेदारी है और इस जनता की सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि उसे न्याय नहीं मिल रहा है। पीढ़ी दर पीढ़ी न्याय के लिए तरसना पड़ रहा है । इस व्यवस्था के लिये अपरोक्ष में प्रधानमंत्री और प्रधानन्यायधीश ने अपने पूर्व वत्तीयों को जिम्मेदार ठहराया है। यह जिम्मेदार ठहराना कितना सही है यह एक अलग बहस का विषय है लेकिन इसमें महत्वपूर्ण यह है कि यह लोग अब इस समस्या का हल क्या और कितनी जल्द देश को देते हैं।
लेकिन इस समय जो व्यवस्था है और उसमें जो नये प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न आदेशों / निर्देशों के माध्यम से देश के सामने आ चुके हैं उनकी अनुपालना कितनी होे पा रही है। सर्वोच्च न्यायलय ने निर्देश दे रखे हैं कि विधायकों/सासंदो के खिलाफ आये आपराधिक मामलों का निपटारा ट्रायल कोर्ट एक वर्ष के भीतर सुनिश्चित करे। इन निर्देशों के बाद राज्य सरकारों को भी यह कहा गया था कि यदि इसके लिये और अधीनस्थ न्यायालयों का गठन करना पड़े तो वह किया जाये। केन्द्र सरकार इसके लिये राज्यों को पूरा आर्थिक सहयोग देगी क्या इन निर्देशों की अनुपालना हो पायी है नहीं। आज हर राज्य में ऐसे विधायक/सांसद मिल जायेगें जिनके खिलाफ आपराधिक मामले कई-कई वर्षों से अदालतों में लबिंत चल रहे हैं। हिमाचल में ही ऐसे कई मामले चल रहे हैं और इन पर सर्वोच्च न्यायालय के इन निर्देशों का कोई असर ही नही है। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दे रखी है कि जांच ऐजैन्सीयों के पास आयी हर शिकायत पर एक सप्ताह के भीतर विधिवत एफ.आई.आर. दर्ज हो जानी चाहिए। यदि जांच अधिकारी को ऐसा लगे की इसमें एफ.आई.आर. दर्ज करने की गुंजाईश नहीं है उसे ऐसा कारण रिकार्ड पर दर्ज करके शिकायतकर्ता को तय समय सीमा के भीतर इसकी लिखित में जानकारी देनी होगी। लेकिन इस व्यवस्था की भी कोई अनुपालना नही हो रही है। हर मामले की एफ.आई.आर. तुरन्त प्रभाव से वैबसाईड पर डालकर सार्वजनिक की जानी चाहिये। इन निर्देशों के बावजूद शिकायतकर्ताओं को एफ.आई.आर. नही दिये जाने के मामले हर रोज सामने आते हैं।
यही नही बहुत सारे महत्वपूर्ण मामलों को उच्च न्यायालय स्वतः संज्ञान लेकर उनमें एस.आई.टी. गठित करके जांच के निर्देश दे देते हैं। हमारे ही प्रदेश में पीलिया के मामले में उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर एस.आई.टी. गठित की है लेकिन आज इस पूरे मामले की स्थिति क्या है इसे लोग भूल चुके हैं। इसी तरह नालागढ़ में एक समय लगे थर्मल पावर प्लांट पर कड़ा रूख अपनाते हुए उच्च न्यायालय ने एस.आई.टी. गठित करके जांच करवायी थी। इस एस.आई.टी. की रिपोर्ट भी उच्च न्यायालय में आ चुकी है लेकिन आज तक यह सामने नही आ पाया है कि अन्त में इसमें हुआ क्या है। ऐसे दर्जनों मामले हैं जहां मामलों के शुरू होने की तो जानकारी है लेकिन उनके अन्तिम परिणाम की कोई जानकारी नही है। यह ऐसी स्थितियां हैं जिनसे उच्च न्यायपालिका पर से भी आम आदमी का भरोसा उठने लग पड़ा है। ऐसे में यह सबसे पहली आवश्यकता है कि न्यायपालिका के पास जितने भी उपलब्ध साधन है उनसे वह आम आदमी के भरोसे को बहाल करने की पहल करे। क्यांेकि यदि एक बार न्यायपालिका पर से भरोसा उठ गया तो उनके परिणाम स्वरूप जो अराजकता पैदा होगी वह बहुत ही भयानक हो जायेगी ।