मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू केन्द्रीय वित्त मंत्री, गृह मंत्री और प्रधानमंत्री से मिलकर प्रदेश को विशेष वित्तीय सहायता देने तथा कर्ज लेने पर लगी बंदीशे हटाने की गुहार लगा चुके हैं। इस समय प्रदेश का कर्जभार एक लाख करोड़ से अधिक हो चुका है। इसी सरकार के कार्यकाल में यह कर्ज भार बढ़कर डेढ़ लाख करोड़ तक पहुंच जाने की संभावना है। प्रदेश की वित्तीय स्थिति कब से बिगड़नी शुरू हुई है इसका इतिहास कोई बहुत लंबा नहीं है। स्व.रामलाल ठाकुर के कार्यकाल में प्रदेश 80 करोड़ के सरप्लस में था। यह तथ्य प्रो. धूमल के पहले कार्यकाल में लाये गए श्वेत पत्र में दर्ज हैं। स्व.ठाकुर रामलाल के बाद 1977 में शान्ता कुमार के कार्यकाल में आये नीतिगत बदलाव में प्राइवेट सैक्टर को प्रदेश के विकास में भागीदार बनने के प्रयास हुये। इन प्रयासों में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना हुई। उद्योगों को आमंत्रित करने के लिये उन्हें हर तरह की सब्सिडी दी गयी। शान्ता काल में उद्योगों पर जो निर्भरता दिखाई गई वह आज दिन तक हर
सरकार के लिये मूल सूत्र बन गया। राजनेताओं के साथ ही प्रदेश की शीर्ष नौकरशाही ने भी स्वर मिला दिया है। किसी ने भी इमानदारी से यह नहीं सोचा कि उद्योगों के लिये प्रदेश में न तो कच्चा माल है और न ही पर्याप्त उपभोक्ता हैं। केवल सरकारी सहायता के सहारे ही प्रदेश में उद्योग आये। जैसे-जैसे सरकारी सहायता में कमी आयी तो उद्योगों का प्रवाह भी कम हो गया। इन्हीं उद्योगों की सहायता में प्रदेश का वित्त निगम और खादी बोर्ड जैसे कई अदारे खत्म हो गये। उद्योग विभाग के एक अध्ययन के मुताबिक प्रदेश में स्थापित हुये उद्योगों को कितनी सब्सिडी राज्य और केंद्र सरकार दे चुकी है उतना उद्योगों का अपना निवेश नहीं है। रोजगार के क्षेत्र में आज भी यह उद्योग सरकार के बराबर रोजगार नहीं दे पाये हैं। जबकि हर सरकार अपने-अपने कार्यकाल में नई-नई उद्योग नीतियां लेकर आयी है।
हिमाचल में गैर कृषकों को सरकार की अनुमति के बिना जमीन खरीदने पर प्रतिबन्ध है। जहां-जहां उद्योग क्षेत्र स्थापित हुये थे वहां श्रमिकों और उद्योग मालिकों को आवास उपलब्ध करवाने के लिये भवन निर्माणों की नीति कब बिल्डरों तक पहुंच गयी किसी को पता भी नहीं चला। जबकि धारा 118 की उल्लंघना पर चार आयोग जांच कर चुके हैं और एक रिपोर्ट पर भी अमल नहीं हुआ है। 1977 के दौर में जो उद्योग आये थे उनमें से शायद एक प्रतिशत भी आज उपलब्ध नहीं हैं। पूरा होटल सरकारी जमीन पर बन जाने के बाद जब चर्चा उठी तो सरकारी जमीन का प्राइवेट जमीन के साथ तबादला कर दिया गया। लेकिन ऐसी सुविधा कितनों को मिली यह चर्चा उठाने का मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि आज ईमानदारी से सारी नीतियों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। पिछली सरकार के दौरान एक हजार करोड़ निवेश ऐसे भवनों पर कर दिये जाने का आरोप है जो आज बेकार पड़े हैं यह आरोप लगा है। लेकिन इसी के साथ आज जो निवेश एशियन विकास बैंक के कर्ज के साथ किया जा रहा है क्या वह कभी लाभदायक सिद्ध हो पायेगा शायद नहीं। इसलिये आज हर सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि यह बढ़ता कर्जभार पूरे भविष्य को गिरवी रखने का कारण बन जायेगा।
आज जो कैग रिपोर्ट वर्ष 2023-24 की आयी है उसमें यह कहा गया है कि इस सरकार ने 2795 करोड़ रूपये कहां खर्च कर दिये हैं इसका कोई जवाब नहीं दिया जा सकेगा। कैग में पहली बार ऐसी टिप्पणी आयी है कि शायद यह निवेश उन उद्देश्यों के लिये खर्च नहीं किया गया है जिनके लिये यह तय था। कैग में यह टिप्पणी भी की गयी है कि 2023 में आयी आपदा के लिये सरकार ने 1209.18 करोड़ खर्च किया है जिसमें से केन्द्र सरकार ने 1190.35 करोड़ दिया है। आपदा राहत के इन आंकड़ों से सरकार के दावों और आरोपों पर जो गंभीर प्रश्न चिन्ह लग जाता है उसके परिदृश्य में राज्य सरकार केन्द्र सरकार से कैसे सहायता की उम्मीद कर सकती है। 2795 करोड़ का कोई हिसाब न मिलना अपने में प्रशासन पर एक गंभीर आरोप हो जाता है। एग्रो पैकेजिंग कॉरपोरेशन का एक समय विशेष ऑडिट करवाया गया था उस ऑडिट रिपोर्ट पर प्रबंधन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। क्या आज भी सरकार ऐसा करने का साहस करेगी? जब तक सरकार का वित्तीय प्रबंधन प्रश्नित रहेगा तब तक कोई सहायता मिल पाना कैसे संभव होगा।