हिमाचल प्रदेश में इस बार फिर प्राकृतिक आपदा ने कहर बरसाना शुरू कर दिया है। अभी पिछले वर्ष आर्यी आपदा के जख्म अभी भरे भी नहीं है कि फिर इस आपदा ने प्रदेश को ग्रस लिया है। जब आपदा आती है तो सबसे पहले सरकारी तंत्र का पूरा ध्यान उस ओर केंद्रित हो जाता है। हिमाचल की सुक्खू सरकार ने पिछले वर्ष भी आपदा प्रबंधन पर पूरा ध्यान केंद्रित कर आपदा में फंसे लोगों को सुरक्षित बाहर निकलने में लगा दिया था और इस बार भी। आपदा में कुल कितना नुकसान हुआ और उसकी भरपाई किन-किन साधनों से की गयी। राज्य सरकार ने अपने साधनों से क्या किया। केंद्र ने कितना सहयोग दिया और जनता ने कितना दिया। इस सबके आंकड़ों पर चर्चा करने से राजनीति तो हो सकती है और शायद हो भी रही है। लेकिन इस चर्चा से कुदरत पसीज नहीं रही है उसका कहर अपनी जगह जारी है। वैसे तो प्रदेश में अनुपाततः वर्षा कम हुई है जिसका असर भविष्य में अलग रूपों में देखने को मिलेगा। लेकिन यह लगने लगा है कि शायद अब हर बरसात में ऐसा ही भोगना पड़ेगा। पर्यावरण विशेषज्ञ इस आपदा को कुदरत का कहर मानने की बजाये इसे मानव निर्मित त्रासदी की संज्ञा दे रहे हैं और यही चिंता और चिंतन का सबसे बड़ा विषय है।
हिमाचल का अधिकांश हिस्सा गहन पहाडी क्षेत्र है। गलेशियरो का प्रदेश है। हर पहाड़ पानी का स्त्रोत है । नदी, नालों का प्रदेश है। इसी पानी की बहुलता और पहाड़ों के नैर्संगिक सौंदर्य से प्रभावित होकर इसे बिजली ऊर्जा राज्य के रूप में प्रचारित प्रसारित किया गया। हर छोटे-बड़े नदी नाले का अध्ययन हुआ और बिजली उत्पादन की क्षमताओं के आंकड़े आते चले गये। चंबा से लेकर सिरमौर तक 504 छोटी बड़ी विद्युत परियोजना चिन्हित हो गई। यह प्रचारित हो गया कि हिमाचल इस बिजली के सहारे ही आत्मनिर्भर राज्य बन जाएगा। विद्युत परियोजनाओं में हिमाचल सरकार केंद्र सरकार और प्राइवेट सैक्टर सब कूद पड़े। इन परियोजनाओं के लिए हजारों पेड़ काट दिए गए। हैडटेल श्रृंखला में दरियाओं का वास्तविक प्रभाव की बदल दिया गया। चंबा में 65 किलोमीटर तक रावी अपने मूल प्रवाह रूट से ही गायब है। अवय शुक्ला की रिपोर्ट में यह सब दर्ज है। परियोजना निर्माताओं के लिए यह अनिवार्य किया गया था कि वह जितने पेड़ काटेंगे उसके 10 गुना उन्हें लगाने पड़ेंगे। लेकिन आज तक इसकी कोई रिपोर्ट नहीं आयी है कि वास्तव में कटे पेड़ों की जगह कितने नए पेड़ लगाए गए हैं। जहां पर स्थानीय लोगों ने किसी परियोजना का विरोध किया तो उस विरोध को कुचल दिया गया। इन परियोजनाओं से जो पर्यावरणीय बदलाव पैदा हुए हैं आज हो रहे नुकसान का शायद पहला मूल कारण यह परियोजनाएं है। फिर इन परियोजनाओं के आधारभूत ढांचा खड़ा करने और दूसरे उपादान देने में जितना निवेश सरकारें कर चुकी है उसके अनुपात में इनसे मिला रोजगार और राजस्व बहुत कम रह जाता है। आज जहां-जहां बादल फटे हैं उसके आसपास कोई न कोई परियोजना स्थल आवश्यक है जो इस तथ्य की पुष्टि करता है। कैग रिपोर्टों के सारे आंकड़े उपलब्ध है। बिजली बोर्ड और दूसरी पावर कॉरपोरेशन जिस घाटे में चल रही है वह भी इसी दिशा में सवाल उठता है।
विद्युत के साथ ही प्रदेश को आदर्श पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना तैयार हो रही है । शहरों से गांवों की ओर होमस्टे की अवधारणा को कार्यरूप दिया जा रहा है। देवी देवताओं की भूमि में हर देवस्थान को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने पर काम शुरू हो गया है। इसके लिए अपेक्षित अधोसंरचना तैयार करने में पर्यावरण का संतुलन बिगड़ना स्वभाविक है जिसका अंतिम परिणाम भूस्खलनों के रूप में देर सुबह सामने आयेगा। शिमला सहित सारे पर्यटक स्थलों को जिस तरह से कंकरिट के जंगल में बदल दिया गया है उसको लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक प्रदेश सरकारों को फटकार लगा चुका है। एन.जी.टी. ने तो शिमला से राजधानी को भी किसी दूसरे स्थान पर ले जाने के निर्देश दे रखे हैं लेकिन सरकार पर इन निर्देशों का कोई असर नहीं है। आज सरकारें सिर्फ अपना कार्यकाल किसी न किसी तरह पूरा करने के सोच से आगे बढ़ ही नहीं रही है। शिमला में एक समय रिटैन्शन पॉलिसीयों पर हाईकोर्ट ने सवाल उठाए थे जिन्हें नजरअंदाज कर दिया गया और अब राजधानी शिफ्ट करने के निर्देशों तक की बात पहुंच चुकी है जिस पर अमल नहीं किया जायेगा। शिमला को इस समय जिस तरह से लोहे के जंगल में बदला जा रहा है उससे इसको लेकर आ चुकी भूकंप की चेतावनियां तो नहीं बदल जायेगी। अगर इन आपदाओं से आज कोई सबक नहीं लिया जाता है तो भविष्य में और भी बड़े संकटों के लिए तैयार रहना होगा ।