क्या चुनावी बॉण्ड में हुआ खुलासा चुनावी मुद्दा बन पायेगा? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक और महत्वपूर्ण है कि इसमें हुए खुलासे के बाद नैतिकता के आधार पर स्वतःही बहुत कुछ घट जाना चाहिये था। क्योंकि इस माध्यम से चुनावी चन्दा देने वाली अधिकांश कम्पनियों के खिलाफ केन्द्रीय जांच एजेंसियों की कारवाई सवालों के घेरे में आ गयी है। दिल्ली सरकार के खिलाफ जिस कथित शराब घोटाले को लेकर हुई कारवाई में मनीष सिसोदिया, अरविन्द केजरीवाल गिरफ्तार हुये हैं उस शराब कम्पनी के ठेकेदार ने चुनावी बॉण्ड के माध्यम से केन्द्र में सतारूढ़ भाजपा को करीब साठ करोड़ चन्दा दिया है। जबकि इस काण्ड की जांच के दौरान आप नेताओं के यहां मनी लॉंडरिंग के कोई बड़े साक्ष्य सामने नहीं आये हैं। सर्वाेच्च न्यायालय तक यह प्रश्न कर चुका है की मनिट्रेल कहां है। अब जब इसी शराब कम्पनी के मालिक द्वारा भाजपा को चुनावी चन्दा देने का साक्ष्य बाहर आ गया है तो स्वतः ही सारा परिदृश्य बदल जाता है। इसी तरह कांग्रेस के बैंक खातों का सीज किया जाना और चुनावों के दौरान आयकर का नोटिस आना यह प्रमाणित करता है कि कांग्रेस को चुनावों के दौरान साधनहीन करने की एक सुनियोजित बड़ी योजना पर काम किया जा रहा है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई होनी चाहिये। इसके गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। लेकिन जब ऐसी कारवाई चुनावों के दौरान होगी तो निश्चित रूप से सरकार और जांच एजेंसियों की नियत और नीति पर सवाल उठेंगे ही। आज केजरीवाल की गिरफ्तारी और कांग्रेस के खिलाफ हो रही आयकर की कारवाई पर जर्मनी अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र महासंघ के महासचिव की प्रतिक्राओं ने देश के नागरिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय जगत भारत पर नजर रख रहा है। यदि चुनावी बॉण्ड का खुलासा सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से सामने न आता तो विदेशीयों की इन प्रतिक्रियाओं को देश के आंतरिक मामलों में दखल देना करार दिया जा सकता था। लेकिन चुनावी बॉण्ड के इस खुलासे ने देश की जनता के सामने एक बड़ा सवाल रख दिया है जिस पर जनता को अपनी प्रतिक्रिया एक दिन तो देश के सामने रखनी ही होगी। क्योंकि कम्पनियों के इसी चन्दे के खेल का सीधा असर आम जनता पर महंगाई और बेरोजगारी के रूप में पड़ रहा है। कम्पनियां इस चन्दे की वसूली अपने उत्पाद महंगे करके जनता से वसूलती है।
लेकिन यहीं पर यह सवाल भी सामने आता है की जनता कोई संगठित इकाई तो है नहीं और अकेले व्यक्ति की प्रतिक्रिया तो ‘‘नक्कार खाने में तूती की आवाज’’ बनकर रह जायेगी। ऐसे में यह जिम्मेदारी विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों को निभानी होगी। इसके लिये इन राजनीतिक दलों को अपनी-अपनी सरकारों की परफॉरमैन्स को कसौटी पर लाना होगा और संगठन के भीतर भी एक खुले संवाद की जमीन तैयार करनी होगी। क्योंकि किसी भी सरकारी संगठन की नीतियों की व्यवहारिक परीक्षा उसकी जनता में परफॉरमैन्स बनती है। इस समय विपक्ष के रूप में इण्डिया गठबन्धन सामने है और उसको कमजोर करने के लिये उसके नेताओं को गठबंधन से दूर रखने के लिये कैसी रणनीति सरकार ने अपनायी है वह सामने आ चुकी है। ऐसे में इस समय सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस पर आती है। लेकिन जिस तरह से उसके नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं उस पर भी केन्द्रीय नेतृत्व को ध्यान देना होगा। बड़ी निष्पक्षता से अपने राज्यों के नेतृत्व का तुरन्त प्रभाव से हल तलाशना होगा। केवल नेता के चश्मे से ही जनता और संगठन का आकलन करना घातक होगा। इस समय चुनावी चन्दा बाण्डज से जो खुलासा देश के सामने आ चुका है उससे बड़ा प्रमाणिक मुद्दा और कोई नहीं मिलेगा यह तय है।