एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के मुताबिक़ भारत की कुल दौलत का चालीस प्रतिश्त केवल एक प्रतिशत लोगों के पास है। एक व्यक्ति के पास सौ में से चालीस हो जाये और शेष निनावे लोगों के एक रूपये से भी कम प्रति व्यक्ति संपत्ति हो तो उस देश में अमीर और गरीब के बीच में बढ़ते अन्तराल का अंदाजा लगाया जा सकता है। केंद्र से राज्यों तक हर सरकार प्रतिवर्ष आर्थिक सर्वेक्षण करती है। इस सर्वेक्षण में प्रतिव्यक्ति आय और ऋण का आंकड़ा जारी किया जाता है। इस आंकड़े के मुताबिक भारत में प्रतिव्यक्ति निवल राष्ट्रीय आय वर्ष 2023-24 में 1,85,854 रूपये अनुमानित है। हिमाचल में प्रतिव्यक्ति आय 2022-23 में 2,18,788 रुपए रही है। आंकड़ों के अनुसार भारत विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है। आय के इन आंकड़ों को झूठलाया नहीं जा सकता। लेकिन क्या व्यवहार में यह आंकड़े कहीं मेल खाते हैं? केंद्र और राज्य के आंकड़ों को एक साथ रखकर हिमाचल में प्रतिव्यक्ति आय चार लाख से बढ़ जाती है। इसमें यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जिस प्रदेश में प्रतिव्यक्ति आय चार लाख हो उस प्रदेश की सरकार को विकास के लिये कर्ज लेने की आवश्यकता क्यों होगी। लेकिन आज हिमाचल में प्रति व्यक्ति कर्ज का आकड़ा भी लगभग आय के बराबर ही हो गया है।
ऐसा इसलिये है कि आंकड़ों की इस गणना का आम आदमी के साथ व्यवहारिक रूप से कोई सीधा संबंध ही नहीं है। कोई भी सरकार व्यवहारिक रूप से दस प्रतिशत लोगों के लिये ही काम करती है। आम आदमी के विकास के नाम पर कर्ज लेकर केवल दस प्रतिश्त के लाभ के लिये ही काम किया जाता है। एक उद्योगपति के बड़े निवेश से राज्य की जीडीपी बढ़ जाता है। उसके लाभ से ही प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ जाता है। आय और कर्ज के बढ़ते आंकड़ों के इस खेल में सरकारों में स्थायी और नियमित रोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। चुनावों में मुफ्ती की घोषणाओं के साथ समाज में लाभार्थियों के छोटे-छोटे वर्ग खड़े किए जा रहे हैं। आज कर्ज विश्व बैंक, आईएमएफ जैसी अंतरराष्ट्रीय एजैन्सियों से सरकारें बाहय सहायता प्राप्त योजनाओं के नाम पर ले रही है। जिन योजनाओं के लिये यह कर्ज लिया जा रहा है उनके कार्यन्वयन के लिये ग्लोबल टैन्डर की शर्तें रहती हैं। अभी शिमला में 24 घंटे जलापूर्ति के लिये विश्व बैंक से 460 करोड़ की योजना स्वीकृत हुई थी और इसमें ग्लोबल टैंडरिंग के नाम पर उसका ठेका एक विदेशी कंपनी को शायद 870 करोड़ में दे दिया गया। इसमें कैसे क्या हुआ का प्रसंग छोड़ भी दिया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है की किस तरह से आम आदमी के नाम पर कर्जा बढ़ाया जा रहा है। ऐसे सैकड़ो उदाहरण केंद्र से लेकर राज्यों तक उपलब्ध हैं।
आज केंद्र से लेकर राज्यों तक की सभी योजनाओं पर यह सवाल उठाता है कि आम आदमी के नाम पर लिये जा रहे कर्ज के लाभार्थी कुछ मुठी भर लोग क्यों हो रहे हैं। केंद्र से लेकर राज्यों तक कोई भी सरकार रोजगार के वायदों को पूरा क्यों नहीं कर पा रही है? मुफ्त राशन पाने वालों का आंकड़ा लगातार क्यों बढ़ता जा रहा है। राजनीतिक दलों को सत्ता प्राप्ति के लिए मुफ्ती की घोषणाओं और धार्मिकता का सहारा क्यों लेना पड़ रहा है? आज सरकार को नई शिक्षा नीति लाते हुये उसकी भूमिका में ही क्यों लिखना पड़ रहा है कि इस शिक्षा के बाद खाडी के देशों में बतौर मजदूर हमारे युवाओं को रोजगार के बड़े अवसर उपलब्ध होंगे। क्या आज देश के नीति नियन्ताओं से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये की अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार देश में गरीब और अमीर के बीच का अंतराल लगातार बढ़ता क्यों जा रहा है? इस बढ़त का अंतिम परिणाम क्या होगा?