संसद की सुरक्षा में सेंध लगाकर दो युवाओं का सदन के भीतर तक पहुंच जाना और दो का संसद प्रांगण में नारे लगाना एक ऐसी घटना है जिसने हर आदमी का ध्यान अपनी और आकर्षित किया है। क्योंकि देश की सबसे बड़ी सुरक्षित जगह संसद भवन है। यदि कोई व्यक्ति हंगामा करने की नीयत से सारे सुरक्षा प्रबंधनों को लांघकर यहां तक पहुंच जाये तो इसे एक साधारण घटना नहीं माना जा सकता। संसद की सुरक्षा में चूक हुई है और इस पर देश को यह जानने का अधिकार है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ। यदि यह लोग कहीं हथियार लेकर ही गये होते तो परिस्थितियों क्या हो जाती इसकी कल्पना करना भी भयावह लगता। यह लोग बिना हथियारों के अन्दर घुसे उससे यह माना जा सकता है कि इनका मकसद अपनी और ध्यान आकर्षित करने का ही रहा होगा। यह सही है कि इस तरह का तरीका अपनाना अपने में गलत है। यह सभी लोग पकड़े गये हैं उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज होकर जांच चल रही है। इस जांच का परिणाम आने तक इस पर और कुछ तकनीकी पक्षों को लेकर कहना सही नहीं होगा। जांच रिपोर्ट आने तक इन लोगों को किसी आतंकी संगठन से जोड़ना भी जायज नहीं होगा।
यह घटना उस समय घटी जब संसद का सत्र चल रहा था। इसलिए इस घटना पर संसद में गृह मंत्री के वक्तव्य की सांसदों द्वारा मांग किया जाना किसी भी तरह नाजायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन सांसदों की इस मांग पर उनके आचरण को असंसदीय करार देकर संसद से निलंबित कर देना अपने में ही मामले को और गंभीर बना देता है। यदि सांसद गृह मंत्री से घटना पर वक्तव्य की मांग नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? यदि सांसदों की मांग ही नहीं मानी जा रही है तो किसी अन्य की मांग मान ली जायेगी इसकी अपेक्षा कैसे की जा सकती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है की सुरक्षा में सेंध लगाने वालों के ‘‘पास’’ एक भाजपा सांसद प्रताप सिम्हा की संस्तुति पर बनाये गये है इसलिये इस घटना पर प्रधानमंत्री या गृहमंत्री कोई भी ब्यान नहीं दे रहा है। जिस तरह का राजनीतिक वातावरण आज देश के भीतर है उसमें यदि इन लोगों के ‘‘पास’’ कांग्रेस या किसी अन्य विपक्षी दल के सांसद के माध्यम से बने होते तो परिदृश्य क्या होता? क्या अब तक उस सांसद के खिलाफ भी मामला न बना दिया गया होता? ऐसे सवाल उठने लग पड़े हैं।
अभी पांच राज्यों में हुये विधानसभा चुनावों में जिस तरह की जीत भाजपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हासिल हुई है उससे उत्साहित होकर प्रधानमंत्री ने यह घोषित कर दिया कि वही अगली सरकार बनाने जा रहे हैं। इसे प्रधानमंत्री का अतिउत्साह कहा जाये या अभियान पाठक इसका स्वयं निर्णय कर सकते हैं। इन चुनाव परिणामों के बाद ई.वी.एम. मशीनों और चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। चयन प्रक्रिया पर जो सवाल एक समय वरिष्ठतम भाजपा नेता एल.के.आडवाणी ने तब के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर उठाये थे वही सवाल अब उठ रहे हैं। ई.वी.एम. मशीनों की विश्वसनीयता पर भी सबसे पहले सन्देह भाजपा ने ही उठाया था। ई.वी.एम. का मुद्दा नये रूप में सर्वाेच्च न्यायालय में जा रहा है। एक ऐसी स्थिति निर्मित हो गयी है जहां हर चीज स्वतः ही सन्देह के घेरे में आ खड़ी हुई है। लेकिन लोकप्रिय प्रधानमंत्री इन जनसन्देहों को लगातार नजरअन्दाज करते जा रहे हैं।
ऐसे परिदृश्य में क्या देश का शिक्षित बेरोजगार युवा अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये इस तरह के आचरण के लिये बाध्य नहीं हो जायेगा? आज का युवा सरकार की नीतियों का आकलन करने में सक्षम है। वह जानता है कि किस तरह से देश के संसाधन निजी क्षेत्र को सौंपे जा रहे हैं। इन नीतियों से कैसे हर क्षेत्र में रोजगार के साधन कम होते जा रहे हैं। यदि इस ओर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो युवाओं का ऐसा आचरण एक राष्ट्रीय मुद्दा बन जायेगा यह तय है।